Friday 29 April 2016

न्याय-प्रणाली को बदलने वाला दिमाग ? ------ विजय राजबली माथुर

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010
शाहजहांपुर द्वितीय चरण (प्रथम भाग )
शाम तक हम लोग शाहजहांपुर पहुंच गए थे .लखनऊ छोटी लाईन के उस देवदूत समान कुली ने समान इस प्रकार रखवा दिया था कि ,शाहजहापुर में कुली को कोई दिक्कत नहीं हुई .स्टेशन के पास ही नानाजी का घर था ,आधे घंटे के भीतर हम लोग वहां पहुँच गए .सितम्बर का महीना था और बाबूजी का वहां का ट्रान्सफर आर्डर नहीं था लिहाजा हम तीनो बहन भाइयों के दाखिले में एक बार फिर दिक्कत थी.सिलीगुड़ी जाने से पहले जिस स्कूल में पढ़े थे वह आठवीं तक ही था .नानाजी ने अपने परिचित माथुर साहब जो सरदार पटेल हिन्दू इंटर कालेज के वाईस प्रिंसिपल थे ,से बात की थी .लेकिन अगले दिन वह प्रिंसिपल टंडन जी के पास पहुंचा कर अपने कर्त्तव्य की इति श्री कर लिए .टंडन जी ने बिना ट्रान्सफर आर्डर के दाखिले से इनकार कर दिया ;वही  समस्या आर्डिनेंस फेक्टरी के कालेज में थी .किसी की सलाह पर नानाजी गांधी फेजाम कालेज के प्रिंसिपल चौधरी मोहम्मद वसी साहब  से मिले .वसी साहब ने मधुर शब्दों में नानाजी का अभिवादन करके कहा कालेज आप ही का है आप शौक से दाखिला करा दीजिये .इस प्रकार मेरा इंटर फर्स्ट इयर में दाखिला हो गया .अजय का मिशन हाई स्कूल (जिसमे कभी क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल भी पढ़े थे )और शोभा का दाखिला आर्य कन्या पाठशाला में हो गया .

 हमारे जी .ऍफ़ .कालेज में बी .ए .के साथ इंटर की पढ़ाई उस समय होती थी (अब वह केवल डिग्री कालेज है और इंटर सेक्शन इस्लामिया कालेज में चला गया है ).उ .प्र .में चौ .चरण सिंह की संविद सरकार ने अंगरेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया था .लखनऊ से भुआ ने मुझे पत्र लिखा था कि ,"यह सरकार बच्चों को कुबड़डा बनाने पर तुली है ,तुम अंगरेजी जरूर लेना ".मै अंगरेजी में कमजोर था और नहीं लेना चाहता था .तब तक कालेज में सर्कुलर का इन्तजार था ,मैंने किताब नहीं खरीदी थी .किताब की शाहजहांपुर में किल्लत भी थी .प्रो .मोहिनी मोहन सक्सेना ने बरेली से मगाने  का प्रबंध किया था  ;समय बीतने के बाद उन्होंने सब की किताबें चेक करने को कहा था .मैंने उन्ही के रिश्तेदार जो वहां टी .ओ .थे के पुत्र जो मेरे क्लास में था से पुस्तक लेकर सारी रात टेबल लैम्प जला कर कापी में नक़ल उतार ली और अगले दिन कालेज ले गया .जब प्रो .सक्सेना ने मुझ से किताब दिखाने को कहा तो मैंने वही नक़ल दिखा दी .बोले ऐसा क्यों ?मैंने  जवाब दिया चूंकि मुझे अंग्रेजी छोड़ना है ,इसलिए किताब नहीं खरीदी -आपको दिखाना था इसलिए गिरिधर गोपाल की किताब से नक़ल बना ली है .प्रो .साहब इस बात से बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि जब तुमने अग्रेजी के लिए इतनी मेहनत की है तो मेरी ख़ुशी के लिए तुम अंगरेजी को एडिशनल आप्शनल के रूप में जरूर लेना ,जिस से मेरा -तुम्हारा संपर्क बना रहे .इस प्रकार मैंने अंगरेजी को एडिशनल आप्शनल ले लिया .प्रो . सक्सेना बहुत अच्छी तरह पढ़ाते थे ,उनसे क्लास में संपर्क बनाये रखने में ख़ुशी ही हुई .


अंगरेजी के एक चैप्टर में पढ़ाते हुए प्रो . सक्सेना ने बड़े मार्मिक ढंग से कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी के लेख को समझाया जिसमे उन्होंने (तब वह भारत के शिक्षा मंत्री थे )ब्रिटिश कौसिल इन इंडिया का उद्घाटन करते हुए कहा था ---यहाँ मै एक साहित्यकार की हैसियत से आया हूँ ,एक राजनीतिग्य की हैसियत से नहीं क्योंकि यदि एक 

राजनीतिग्य कहता है ---हाँ तो समझो शायद ,और यदि वह कहे शायद तो समझो नहीं और नहीं तो वह कहता ही नहीं .

हमारे इतिहास के प्रो .माशूक अली साहब नगर पालिका के चेयरमैन रहे छोटे खां सा .के परिवार से थे .उनका लकड़ी का व्यवसाय था वह तब केवल -रिक्शा और कालेज में खाए पान का खर्च मात्र १५० रु .आन्रेरियम लेते थे .हमारे नानाजी के एक भाई स्व .हरीश चन्द्र माथुर के वह सहपाठी रहे थे .जब उन्हें यह बताया तो बहुत खुश हुए और यदा -कदा मुझसे कहते थे अपने नानाजी को मेरा सलाम कह देना .इसी प्रकार बम्बई वाले नानाजी (नानाजी के वह भाई बम्बई में सर्विस काल में रहे थे)भी प्रो .सा .को अपना आदाब कहलाते थे .
नागरिक -शास्त्र के प्रो .आर .के .इस्लाम सा .तथा अर्थ शास्त्र के प्रो .सा .(नाम अब याद नहीं है )भी अच्छा पढ़ाते थे ,इन दोनों का चयन अलीगढ मुस्लिम यूंनिवर्सिटी  में हो गया था .

इस्लाम सा .ने सर सैय्यद अहमद खां के बारे में बताते हुए उनके पुत्र सैय्यद महमूद जो बड़े वकील थे ,कभी केस हारे नहीं थे का उल्लेख किया था जो बहुत दिलचस्प है .:: पंजाब के किसी राज -परिवार के सदस्य को फांसी की सजा हो गयी थी उसे बचाने के लिए उन्हें महमूद सा . का नाम सुझाया गया था .जब वे लोग उनके पास पहुंचे तब उनके पीने का दौर चल रहा था और ऐसे में वह किसी से मिलते नहीं थे .बड़ी अनुनय -विनय करने पर उन्होंने सिख राज-परिवार के लोगों को बुलाया तथा काफी फटकार लगाई कि अब उनके पास क्यों आये ,अपने वकील से जाकर लड़ें जो अपील भी हार गया ,अब तो फांसी लगने दो .बड़ी खुशामद किये जाने पर उन्होंने कहा उनका कहा सब मानना होगा ,किसी के बहकावे में नहीं आना होगा .जब उनकी सभी शर्तें मान ली गयीं तब उन्होंने जिन्दगी बचाने की गारंटी दी और कोई अपील या केस नहीं किया .

फांसी का दिन आ गया ,घबराए परिवारीजनो से उन्होंने जेल पहुचने को कहा .खुद एन वक्त पर पहुंचे .फांसी का फंदा भी पड़ गया ,रोते लोगों को उन्होंने कहा उसे कुछ नहीं होगा ,इतने में  फंदा खींचने का हुक्म हो गया .फंदा खींच दिया गया उसी क्षण महमूद सा .ने तेज गुप्ती से फांसी का रस्सा काट दिया ,रस्सा गले में पड़ा -२ वह मुलजिम गढ़े में जिन्दा गिर गया .उसे उठाया गया लेकिन महमूद सा . ने कहा एक बार "हैंग "हो चुका दोबारा हैंग नहीं किया जा सकता .महमूद सा . के खिलाफ सरकारी काम में बाधा डालने का मुकदमा चला जिसे वह जीत गए उन्होंने सिद्ध किया कि वकील के नाते उनका काम मुवक्किल को बचाना था उन्होंने बचा लिया .सरकारी काम में बाधा नहीं डाली क्योकि फांसी का फदा बाकायदा खींचा गया था .उन्होंने जजमेंट में खामी बताई कि टिळ डेथ नहीं लिखा था इसलिए दोबारा फांसी पर नहीं चढ़ाया जा सकता .वह यह मुकदमा भी जीते.लेकिन उसके बाद से फैसलों में लिखा जाने लगा -"हेंग टिळ डेथ ".इस वाकये ने न्याय  प्रणाली को बदल दिया था जो कि महमूद सा . के दिमाग का खेल था .


प्रांतीय शिक्षा दल के इंस्ट्रक्टर गफूर सा .भी अच्छे व्यवहार के धनी थे .हमारी एक मौसी (बऊआ की चचेरी बहन ,अब दिवंगत ) जो मुझ से ४ वर्ष बड़ी थीं और बी .ए .फाइनल में थीं को फीस में १० रु .कम पड़ गए थे ,एक्जाम चल रहे थे .गफूर सा .ने अपनी जेब से १० रु . देकर मदद की .मौसी की अगले दिन परीक्षा नहीं थी ,मुझे रु .देकर गफूर सा .को वापिस करने को कहा और निर्देश दिया कि लता दीदी बताना ,मौसी नहीं ,उनके हुक्म का वैसे ही पालन किया परन्तु मा की बहन को अपनी बहन बताना अजीब लगा .


एक बार नानाजी छोटे भाई को ३ - ४ रोज से साईकल चलाना सिखा रहे थे .कैंची पर उसे चलाना आ गया था .कालोनी के एक वयोवृद्ध सज्जन श्री श्रीराम जिन्हें नानाजी समेत सभी लोग आदर से बाबूजी कहते थे ,मुझसे बोले छोटा भाई तुम से पहले साईकल सीख जायेगा .उन्होंने कहा कि तुम्हारे नानाजी तो अजय को अभी और कई दिन कैंची चलवाएंगे तुम दूसरी साईकल लेकर आओ और मेरे तरीके से चलाओ आज और अभी सीख जाओगे .मैंने बउआ से पूंछ कर अपने बाबूजी वाली पुरानी साईकल उठाई और बाबू श्रीराम के फार्मूले से रेलवे ओवर ब्रिज तक साईकल पैदल ले गया और ढलान की ओर रुक कर गद्दी पर बैठ कर हैंडल साध लिए .३ -४ बार में संतुलन कायम हो गया .कई बार पुल के दोनों ओर ढलान पर ठीक से साईकल चला ले पाने पर मै गद्दी पर बैठ कर ही घर आया .नानाजी परेशान  थे कि कहीं मै हड्डी -पसली न तुडवा कर लौटूं श्रीराम उन्हें संतुष्ट कर रहे थे और मुझे देख कर नानाजी से बोले देखिये डा . सा .मेरी  शिक्षा सफल  रही .बहरहाल तगड़ा जोखिम लेकर मै एक -डेढ़ घंटे में ही साईकल चलाना तब सीख गया था आज कहीं भी किसी भी ब्रिज पर चढ़ते -उतरते साईकल क्या कोई भी वाहन चलाना काफी जोखिम भरा काम हो गया है .आज लोग काफी लापरवाह  और स्वार्थी हो गए हैं ---यह भी विकास की ही एक कड़ी है .l
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Saturday 24 October 2015

ईमान व स्वाभिमान का प्रतीक : ताजराज बली माथुर ------ विजय राजबली माथुर


**जन्मदिन 24 अक्तूबर पर एक स्मरण बाबूजी का :
(ताज राजबली माथुर : जन्म 24 -10-1919 मृत्यु 13-06-1995 )
हमारे बाबूजी का जन्म 24-10-1919 को दरियाबाद, बाराबंकी में हुआ था और मृत्यु 13-06-1995 को आगरा में । बाबूजी जब चार वर्ष के ही थे तभी दादी जी नहीं रहीं और उनकी देख-रेख तब उनकी भुआ ने की थी। इसीलिए जब बाबूजी को बाबाजी ने जब पढ़ने के लिए काली चरण हाई स्कूल, लखनऊ भेजा तो वह कुछ समय अपनी भुआ के यहाँ व कुछ समय स्कूल हास्टल में रहे। 

भीखा लाल जी उनके सहपाठी और  कमरे के साथी भी थे। जैसा बाबूजी बताया करते थे-टेनिस के खेल में स्व.अमृत लाल नागर जी ओल्ड ब्वायज असोसियेशन की तरफ से खेलते थे और बाबूजी उस समय की स्कूल टीम की तरफ से। स्व.ठाकुर राम पाल सिंह जी भी बाबूजी के खेल के साथी थे। बाद में जहाँ बाकी लोग अपने-अपने क्षेत्र के नामी लोगों में शुमार हुए ,हमारे बाबूजी 1939-45  के द्वितीय  विश्व-युद्ध में भारतीय फ़ौज की तरफ से शामिल हुए। 

अमृत लाल नागर जी हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हुए तो ठा.रामपाल सिंह जी नवभारत टाइम्स ,भोपाल के सम्पादक। भीखा  लाल जी पहले पी.सी एस. की मार्फ़त तहसीलदार हुए ,लेकिन स्तीफा देके भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए और प्रदेश सचिव भी रहे। बाबूजी को लगता था  जब ये सब बड़े लोग बन गए हैं तो उन्हें पहचानेंगे या नहीं ,इसलिए फिर उन सब से संपर्क नहीं किया। एक आन्दोलन में आगरा से मैं लखनऊ आया था तो का.भीखा  लाल जी से मिला था,उन्होंने बाबूजी का नाम सुनते ही कहा अब उनके बारे में हम बताएँगे तुम सुनो-उन्होंने वर्ष का उल्लेख करते हुए बताया कब तक दोनों साथ-साथ पढ़े और एक ही कमरे में भी रहे। उन्होंने कहा कि,वर्ल्ड वार में जाने तक की खबर उन्हें है उसके बाद बुलाने पर भी वह नहीं आये,खैर तुम्हें भेज दिया इसकी बड़ी खुशी है। बाद में बाबूजी ने स्वीकारोक्ति की कि, जब का.भीखा लाल जी विधायक थे तब भी उन्होंने बाबूजी को बुलवाया था परन्तु वह संकोच में नहीं मिले थे। 


बाबूजी के फुफेरे भाई साहब स्व.रामेश्वर दयाल माथुर जी के पुत्र कंचन ने (10  अप्रैल 2011  को मेरे घर आने पर) बताया कि ताउजी और बाबूजी  दोस्त भी थे तथा उनके निवाज गंज के और साथी थे-स्व.हरनाम सक्सेना जो दरोगा बने,स्व.देवकी प्रसाद सक्सेना,स्व.देवी शरण सक्सेना,स्व.देवी शंकर सक्सेना। इनमें से दरोगा जी को 1964  में रायपुर में बाबाजी से मिलने आने पर व्यक्तिगत रूप से देखा था बाकी की जानकारी पहली बार प्राप्त हुई थी । 



बाबू जी ने खेती कर पाने में विफल रहने पर पुनः नौकरी तलाशना शुरू कर दिया। उसी सिलसिले में इलाहाबाद जाकर लौट रहे थे तब उनकी कं.के पुराने यूनिट कमांडर जो तब लेफ्टिनेंट कर्नल बन चुके थे और लखनऊ में सी.डब्ल्यू.ई.की पोस्ट पर एम्.ई.एस.में थे उन्हें इलाहाबाद स्टेशन पर मिल गए। यह मालूम होने पर कि बाबूजी  पुनः नौकरी की तलाश में थे उन्हें अपने दफ्तर में बुलाया। बाद में बाबूजी जब उनसे मिले तो उन्होंने स्लिप देकर एम्प्लोयमेंट  एक्सचेंज भेजा जहाँ तत्काल बाबूजी का नाम रजिस्टर्ड करके फारवर्ड कर दिया गया और सी.डब्ल्यू ई. साहब ने अपने दफ्तर में उन्हें ज्वाइन करा दिया।  घरके लोगों ने ठुकराया तो बाहर के साहब ने रोजगार दिलाया। सात साल लखनऊ,डेढ़ साल बरेली,पांच साल सिलीगुड़ी,सात साल मेरठ,चार साल आगरा में कुल  चौबीस साल छः माह  दुबारा नौकरी करके 30  सितम्बर 1978  को बाबू जी रिटायर हुए.तब से मृत्यु पर्यंत (13  जून 1995 )तक मेरे पास बी-560  ,कमला नगर ,आगरा में रहे। बीच-बीच में अजय की बेटी होने के समय तथा एक बार और बउआ  के साथ फरीदाबाद कुछ माह रहे। 

कुल मिला कर बाबूजी का सम्पूर्ण जीवन संघर्ष और अभावों का रहा। लेकिन उन्होने कभी भी ईमान व स्वाभिमान को नहीं छोड़ा। मैं अपने  छोटे भाई-बहन की तो नहीं कह सकता परंतु मैंने तो उनके इन गुणों को आत्मसात कर रखा है जिनके परिणाम स्वरूप मेरा जीवन भी संघर्षों और अभावों में ही बीता है जिसका प्रभाव मेरी पत्नी व पुत्र  पर भी पड़ा है।चूंकि बाबूजी अपने सभी भाई-बहन में सबसे छोटे थे और बड़ों का आदर करते थे इसलिए अक्सर नुकसान भी उठाते थे। हमारी भुआ उनसे अनावश्यक दान-पुण्य करा देती थीं। अब उनकी जन्म-पत्री के विश्लेषण से ज्ञात हुआ है कि इससे भी उनको जीवन में भारी घाटा उठाना पड़ा है। उनकी जन्म-कुंडली में ब्रहस्पति 'कर्क' राशिस्थ है अर्थात 'उच्च' का है अतः उनको मंदिर या मंदिर के पुजारी को तो भूल कर भी 'दान' नहीं करना चाहिए था किन्तु कोई भी पोंगा-पंडित अधिक से अधिक दान करने को कहता है फिर उनको सही राह कौन दिखाता? वह बद्रीनाथ के दर्शन करने भी गए थे और जीवन भर उस मंदिर के लिए मनी आर्डर से रुपए भेजते रहे। इसी वजह से सदैव कष्ट में रहे। 1962 में वृन्दावन में बिहारी जी के दर्शन करके लौटने पर बरेली  के गोलाबाज़ार स्थित घर पहुँचने से पूर्व ही उनके एक साथी ने नान फेमिली स्टेशन 'सिलीगुड़ी' ट्रांसफर की सूचना दी। बीच सत्र में शाहजहांपुर में हम लोगों का दाखिला बड़ी मुश्किल से हुआ था।  

बाबूजी के निधन के बाद जो आर्यसमाजी पुरोहित शांति-हवन कराने आए थे उनके माध्यम से मैं आर्यसमाज, कमलानगर- बल्केश्वर, आगरा में शामिल हो गया था और कार्यकारिणी समिति में भी रहा। किन्तु ढोंग-पाखंड-आडंबर के विरुद्ध व्यापक संघर्ष चलाने वाले स्वामी दयानन्द जी के आर्यसमाज संगठन में आर एस एस वालों की घुसपैठ देखते हुये संगठन से बहुत शीघ्र ही अलग भी हो गया था परंतु  पूजा पद्धति के सिद्धान्त व नीतियाँ विज्ञान-सम्मत होने के कारण अपनाता हूँ।  

मेरे पाँच वर्ष की आयु से ही बाबूजी 'स्वतन्त्र भारत' प्रति रविवार को ले देते थे। बाद में बरेली व मेरठ में दफ्तर की क्लब से पुराने अखबार लाकर पढ़ने को देते थे जिनको उसी रोज़ रात तक पढ्ना  होता था क्योंकि अगले दिन वे वापिस करने होते थे,  पुराने मेगजीन्स जैसे धर्मयुग,हिंदुस्तान,सारिका,सरिता आदि पूरा पढ़ने तक रुक जाते थे फिर दूसरे सप्ताह के पुराने पढ़ने को ला देते थे। अखबार पढ़ते-पढ़ते अखबारों में लिखने की आदत पड़ गई थी। इस प्रकार कह सकता हूँ कि आज के मेरे लेखन की नींव तो बाबूजी द्वारा ही डाली हुई है। इसलिए जब कभी भूले-भटके कोई मेरे लेखन को सही बताता या सराहना करता है तो मुझे लगता है इसका श्रेय तो बाबूजी  को जाता है क्योंकि यह तो उनकी 'दूरदर्शिता' थी जो उन्होने मुझे पढ़ने-लिखने का शौकीन बना दिया था। आज उनको यह संसार छोड़े हुये बीस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं परंतु उनके विचार और सिद्धान्त आज भी मेरा 'संबल' बने हुये हैं।  
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Wednesday 23 September 2015

भारत पाक संघर्ष : १९६५ की लड़ाई ------ विजय राजबली माथुर

भारत पाक संघर्ष : पचास वर्ष  पूर्ण होने पर पुनः स्मरण ---

( अपनी आंतरिक राजनीतिक परिस्थितियों के कारण पाक राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अय्यूब खान ने अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जानसन के इशारों पर भारतीय सीमाओं पर संघर्ष अगस्त 1965 से ही शुरू कर दिया था किन्तु भारतीय वायु सेना ने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के निर्देश पर एक सितंबर से पाकिस्तान पर आक्रमण शुरू किया जो 23 सितंबर 1965 को युद्ध विराम होने तक चला था। इस संबंध में अपने ब्लाग 'विद्रोही स्व- स्वर में ' पूर्व में जो पोस्ट्स लिखे थे उनके कुछ युद्ध संबंधी अंशों को संयोजित कर पुनः प्रकाशित किया जा रहा है )


भारत पाक संघर्ष--जी हाँ १९६५ की लड़ाई को यही नाम दिया गया था.टैंक के एक गोले की कीमत उस समय ८० हज़ार सुनी थी.पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना साः की बहन फातिमा जिन्ना को जनरल अय्यूब खान ने चुनाव में हेरा फेरी करके हरा भी दिया और उनकी हत्या भी करा दी परन्तु जनता का आक्रोश न झेल पाने पर भारत पर हमला कर के अय्यूब साः हमारे नए प्रधान मंत्री शास्त्री जी को कमजोर आंकते थे.यह पहला मौका था जब शास्त्री जी की हुक्म अदायगी में भारतीय फ़ौज ने पाकिस्तान में घुस कर हमला किया था.हमारी लड़ाई रक्षात्मक नहीं आक्रामक थी.पाकिस्तानी फौजें अस्पतालों और मस्जिदों पर भी गोले बरसा रही थीं जो अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन था.लाहौर की और भारतीय फौजों के क़दमों को रोकने के लिए पाकिस्तानी विदेशमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो सिक्योरिटी काउन्सिल में हल्ला मचाने लगे.हवाई हमलों के सायरन पर कक्षाओं से बाहर निकल कर मैदान में सीना धरती से उठा कर उलटे लेटने की हिदायत थी.एक दिन एक period खाली था,तब तक की जानकारी को लेखनीबद्ध कर के (कक्षा ९ में बैठे बैठे ही) रख लिया था जिसे एक साथी छात्र ने बाद में शिक्षक महोदय को भी दिखाया था.यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ:--
''लाल बहादूर शास्त्री'' -
खाने को था नहीं पैसा
केवल धोती,कुरता और कंघा ,सीसा
खदरी पोशाक और दो पैसा की चश्मा ले ली
ग्राम में तार आया,कार्य संभालो चलो देहली
जब खिलवाड़ भारत के साथ,पाकिस्तान ने किया
तो सिंह का बहादुर लाल भी चुप न रह कदम उठाया-
खदेड़ काश्मीर से शत्रु को फीरोजपुर से धकेल दिया
अड्डा हवाई सर्गोदा का तोड़,लाहोर भी ले लिया
अब स्यालकोट क्या?करांची,पिंडी को कदम बढ़ाया-
खिचड़ - पिचड़ अय्यूब ने महज़ बहाना दिखाया
''युद्ध बंद करो'' बस जल्दी करो यू -थांट चिल्लाया
चुप न रह भुट्टो भी सिक्योरिटी कौंसिल में गाली बक आया
उस में भी दया का भाव भरा हुआ था
आखिर भारत का ही तो वासी था
पाकिस्तानी के दांत खट्टे कर दिए थे
चीनी अजगर के भी कान खड़े कर दिए थे
ऐसा ही दयाशील भारतीय था जी
नाम भी तो सुनो लाल बहादुर शास्त्री जी
आज जब भी सोचता हूँ तो यह किसी भी प्रकार से कविता नज़र नहीं आती है पर तब युद्ध के माहोल में किसी भी शिक्षक ने इस में कोई गलती नहीं बताई.
जब जनरल चौधरी बाल बाल बचे-बरसात का मौसम तो था ही आसमान में काला,नीला,पीला धुंआ छाया हुआ था.गर्जन-तर्जन हो रहा था.हमारे मकान मालिक संतोष घोष साः (जिनकी हमारे स्कूल के पास चौरंगी स्वीट हाउस नामक दुकान थी)की पत्नी माँ को समझाने लगीं कि शिव खुश हो कर गरज रहे हैं.आश्रम पाड़ा में ही यह दूसरा मकान था.उस वक़्त बाबू जी बाग़डोगरा एअरपोर्ट पर A G E कार्यालय में तैनात थे.उन्होंने काफी रात में लौटने पर सारा वृत्तांत बताया कि कैसे ५ घंटे ग्राउंड में सीना उठाये उलटे लेटे लेटे गुज़ारा और हुआ क्या था?
दोपहर में जब हल्ला मचा था तब मैं और अजय राशन की दुकान पर थे,शोभा बाबू जी के एक S D O साः के घर थी,घर पर माँ अकेली थीं.जब हम लोग राशन ले कर लौटे तब शोभा को बुला कर लाये.पानी बरस नहीं रहा था,आसमान काला था,लगातार धमाके हो रहे थे.बाबू जी एयर फ़ोर्स के अड्डे पर थे इसलिए माँ को दहशत थी,मकान मालकिन उन्हें ढांढस बंधा रही थीं.माँ तक उन लोगों ने पाकिस्तानी हमले की सूचना नहीं पहुँचने दी थी.
बाबू जी ने बताया कि चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ जनरल जतिंद्र नाथ चौधरी बौर्डर का मुआयना करने दिल्ली से चले थे जिसकी सूचना जनरल अय्यूब तक लीक हो गयी थी.अय्यूब के निर्देश पर पूर्वी पाकिस्तान से I A F लिखे कई ज़हाज़ उन्हें निशाना बनाने के लिए उड़े.इधर बागडोगरा से बम वर्षक पूर्वी पाकिस्तान जाने के लिए तैयार खड़े थे. जनरल चौधरी के आने के समय यह घटना हुई.उधर जनरल चौधरी को हांसीमारा एअरपोर्ट पहुंचा दिया गया क्योंकि हमारी फौजों को पता चल गया था कि पाक को खबर लीक हो गयी है.बागडोगरा एअरपोर्ट का इंचार्ज I A F लिखे पाकिस्तानी  ज़हाज़ों पर फायर का ऑर्डर नहीं कर रहा था और वे हमारे बम लदे ज़हाज़ों पर गोले दाग रहे थे लिहाज़ा सारे बम जो पाकिस्तान पर गिरने थे बागडोगरा एअरपोर्ट पर ही फट गये और आसमान में काला तथा रंग बिरंगा धुआं उन्हीं का था.डिप्टी इंचार्ज एक सरदार जी ने अवहेलना करके I A F लिखे पाक ज़हाज़ों पर फायर एंटी एयरक्राफ्ट गनों से करने का ऑर्डर दिया तब दो पाक ज़हाज़ बमों समेत नष्ट हो गये दो भागने में सफल रहे.जनरल चौधरी को सीधे दिल्ली लौटा दिया गया और उनकी ज़िन्दगी जो तब पूरे देश के लिए बहुत मूल्यवान हो रही थी बचा ली गयी.
मेले और प्रदर्शनी-युद्ध के बाद दुर्गा पूजा के पंडालों में अब्दुल हमीद आदि शहीदों की मूर्तियाँ भी सजाई गयीं टूटे पाकिस्तानी पैटन टैंकों की भी भी झलकियाँ दिखाई गयीं.काली पूजा के समय भी युद्ध की याद ताज़ा की गयी.


 दिसंबर में सरकारी प्रदर्शनी पर भी भारत -पाक युद्ध की छाप स्पष्ट थी.कानपुर के  गुलाब बाई के ग्रुप के एक गाने के बोल थे--

चाहे बरसें जितने गोले,चाहे गोलियां
अब न रुकेंगी,दीवानों की टोलियाँ

शास्त्री जी व जनरल चौधरी जनता में बेहद लोकप्रिय हो गए थे.पहली बार कोई युद्ध जीता गया था.युद्ध की समाप्ति पर कलकत्ता की जनसभा में शास्त्री जी ने जो कहा था उसमे से कुछ अब भी याद है.पडौसी भास्करानंद मित्रा साः ने अपना रेडियो बाहर रख लिया था ताकि सभी शास्त्री जी को सुन सकें.शास्त्री जी ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था.उन्होंने सप्ताह में एक दिन (उनका सुझाव सोमवार का था) एक समय अन्न त्यागने की जनता से अपील की थी.उन्होंने PL -४८० की अमरीकी सहायता को ठुकरा दिया था क्योंकि प्रेसीडेंट जानसन ने बेशर्मी से अय्यूब का नापाक साथ दिया था.चीनी आक्रमण के समय केनेडी से जो सहानुभूति थी वह पाक आक्रमण के समय जानसन के प्रति घृणा में बदल चुकी थी,हमारे घर शनिवार की शाम को रोटी चावल नहीं खाते थे.हल्का खाना खा कर शास्त्री जी के व्रत आदेश को माना जाने लगा था.शास्त्री जी ने अपने भाषण में यह भी बताया था की १९६२ युद्ध के बाद चीन से मुकाबले के लिए जो हथियार बने थे वे सब सुरक्षित हैं और चीन को भी मुहं तोड़ जवाब दे सकते हैं.जनता और सत्ता दोनों का मनोबल ऊंचा था.
मेरी कक्षा में बिप्रादास धर नामक एक साथी के पिता कलकत्ता में फ़ौज के J C O थे.एक बेंच पर हमारे पास ही वह भी बैठता था.उसके साथ सम्बन्ध मधुर थे.जिन किताबों की किल्लत सिलीगुड़ी में थी वह अपने पिता जी से कलकत्ता से मंगवा लेता था.हिन्दी निबंध की पुस्तक उससे लेकर तीन-चार दिनों में मैंने दो कापियों पर पूरी उतार ली,देर रात तक लालटेन की रोशनी में भी लिख कर.उसके घर सेना का ''सैनिक समाचार'' साप्ताहिक पत्र आता था.वह मुझे भी पढने को देता था.उसमे से कुछ कविताएँ मुझे बेहद पसंद आयीं मैंने अपने पास लिख कर रख ली थीं।
सीमा मांग रही कुर्बानी

सीमा मांग रही कुर्बानी
भू माता की रक्षा  करने बढो वीर सेनानी
महाराणा छत्रपति शिवाजी बूटी अभय की पिला गये
भगत सिंह और वीर बोस राग अनोखा पिला गए
शत्रु सामने शीश झुकाना हमें बड़ों की सीख नहीं,
जिन्दे लाल चुने दीवार में मांगी सुत  की भी भीख  नहीं,
गुरुगोविंद से सुत कब दोगी बोलो धरा भवानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.

विकट समय में वीरों ने यहाँ अपना रक्त बहाया था
जब देश की खातिर अबलाओं ने भी अस्त्र उठाया था.
कण-कण में मिला हुआ है यहाँ एक मास के लालों का
अभी भी द्योतक जलियाना है देश से मिटने वालों का
वीरगति को प्राप्त हुई लक्ष्मी झांसी  वाली रानी,
सीमा मांग रही कुर्बानी.

अपनी आन पे मिटने को यह देश देश हमारा है
मर जायेंगे पर हटें नहीं यह तेरे बड़ों का नारा है
होशियार जोगिन्दर कुछ काम हमारे लिए छोड़ गए
दौलत,विक्रम मुहं शत्रु का मुख मोड़ गए.
जगन विश्व देखेगा कल जो तुम लिख रहे कहानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.

विक्रम साराभाई आदि परमाणु वैज्ञानिकों,होशियार सिंह,जोगिन्दर सिंह,दौलत सिंह आदि वीर सैन्य अधिकारियों को भी पूर्वजों के साथ स्मरण किया गया है.आज तो बहुत से लोगों को आज के बलिदानियों के नामों का पता भी नहीं होगा.

रूस नेहरु जी के समय से भारत का हितैषी रहा है लेकिन उसके प्रधान मंत्री M.Alexi kosigan भी नहीं चाहते थे कि शास्त्री जी लाहोर को जीत लें उनका भी जानसन के साथ ही दबाव था कि युद्ध विराम किया जाए.अंतर्राष्ट्रीय दबाव पर शास्त्री जी ने युद्ध विराम की  बात मान ली और कोशिगन के बुलावे पर ताशकंद अय्यूब खान से समझौता करने गए.रेलवे के  एक उच्च अधिकारी ने जो ज्योतिष के अच्छे जानकार थे और बाद में जिन्होंने कमला नगर  आगरा में विवेकानंद स्कूल की स्थापना की शास्त्री जी को ताशकंद न जाने के लिए आगाह किया था.संत श्याम जी पराशर ने भी शास्त्री जी को न जाने को कहा था.परन्तु शास्त्री जी ने जो वचन दे दिया था उसे पूरा किया,समझौते में जीते गए इलाके पाकिस्तान को लौटाने का उन्हें काफी धक्का लगा या  जैसी अफवाह थी कुछ षड्यंत्र हुआ 10 जनवरी 1966 को ताशकंद में उनका निधन हो गया.11 जनवरी को उनके पार्थिव शरीर को लाया गया,अय्यूब खान दिल्ली हवाई अड्डे तक पहुंचाने आये थे.एक बार फिर  गुलजारी लाल नंदा ही कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे.वह बेहद सख्त और ईमानदार थे इसलिए उन्हें पूर्ण प्रधानमंत्री बनाने लायक नहीं समझा गया.  

नेहरु जी और शास्त्री जी के निधन के बाद 15 -15 दिन के लिए प्रधानमंत्री बनने वाले नंदा जी जहाँ सख्त थे वहीँ इतने सरल भी थे कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व दिल्ली के जिस फ़्लैट में वह रहते थे वहां कोई पहचानने वाला भी न था.एक बार फ़्लैट में धुआं भर गया और नंदा जी सीढ़ीयों पर बेहोश होकर गिर गए क्योंकि वह लिफ्ट से नहीं चलते थे.बड़ी मुश्किल से किसी ने पहचाना कि पूर्व प्रधानमंत्री लावारिस बेहोश पड़ा है तब उन्हें अस्पताल पहुंचाया और गुजरात में उनके पुत्र को सूचना दी जो अपने पिता को ले गए.सरकार की अपने पूर्व मुखिया के प्रति यह संवेदना उनकी ईमानदारी के कारण थी.

कामराज नाडार ने इंदिरा गांधी को चाहा और समय की नजाकत को देखते हुए वह प्रधानमंत्री बन गयीं.किन्तु गूंगी गुडिया मान कर उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने वाले कामराज आदि सिंडिकेट के सामने झुकीं नहीं.1967 के आम चुनाव आ गए,तब सारे देश में एक साथ चुनाव होते थे.उडीसा में किसी युवक के फेके पत्थर से इंदिरा जी की नाक चुटैल हो गयी.सिलीगुड़ी वह नाक पर बैंडेज कराये ही आयीं थीं.मैं और अजय नज़दीक से सुनने के लिए निकटतम दूरी वाली रो में खड़े हो गए.मंच14 फुट ऊंचा था.सभा की अध्यक्षता पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चन्द्र सेन ने की थी.  

इंदिरा जी के पूरे भाषण में से एक बात अभी भी याद है कि" जापानी लोग जरा सी भी चीज़ बर्बाद नहीं करते" हमें बखूबी सीखना चाहिए.आज जब कालोनी में एक रो से दूसरी रो तक स्कूटर,मोटरसाइकिल से लोगों को जाते देख कर या सड़क पर धुलती कारों में पानी की बर्बादी देख कर तो नहीं लगता की इंदिरा जी के भक्त भी उनकी बातों का पालन करते हैं जबकि शास्त्री जी की अपील का देशव्यापी प्रभाव पड़ा था.  
उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया था.संविद सरकारें बन गयीं थी.केंद्र में सिंडिकेट के प्रतिनिधि मोरार जी देसाई ने इंदिरा जी के विरूद्ध अपना दावा पेश कर दिया था.यदि चुनाव होता तो मोरारजी जीत जाते लेकिन इंदिरा जी ने उन्हें फुसला कर उप-प्रधानमंत्री बनने पर राजी कर लिया.

जाकिर हुसैन साःराष्ट्रपति और वी.वी.गिरी साः उप-राष्ट्रपति निर्वाचित हुए.''सैनिक समाचार''में कैकुबाद नामक कवि ने लिखा--

ख़त्म हो गए चुनाव सारे
अब व्यर्थ ये पोस्टर और नारे हैं
कोई चंदू..............................हैं,
तो कोई हजारे हैं.........

http://vidrohiswar.blogspot.in/2010/09/blog-post_24.html


Saturday 12 September 2015

बरेली के कुछ और अनुभव --- विजय राजबली माथुर

गुरुवार, 16 मई 2013

बरेली के दौरान (भाग-2 )

बरेली के दौरान 
क्योंकि बरेली मे बहुत कम समय ही रहे थे अतः 10 सितंबर 2010 को लिखते समय बहुत सी बातें छूट गईं थीं किन्तु अभी भी स्मरण हैं अतः उनको भी सार्वजनिक किया जाना अब समीचीन लगा है।

जब तक बाबूजी ने बरेली में किराये पर घर लिया तब तक के लिए हम लोग शाहजहाँपुर -नानाजी के पास चले गए थे। उस समय तक नानाजी का दक्षिण मुखी घर सामने ऊंचा था तथा पीछे उत्तर की ओर रेलवे लाईन की तरफ नीचा था। नीचे आँगन में तख्त पर ऊपर के चबूतरे से हम लोग छलांग लगा कर खेल रहे थे। बहन सबसे छोटी होने के कारण संभल न सकी और गिर गई उसके सिर में तख्त से चोट लग गई। जब तक वहाँ थे नाना जी अपनी होम्योपेथिक दवाएं देते रहे। गोला बाज़ार में लाला धर्म प्रकाश जी की दुकान के पिछवाड़े हिस्से में उनके घर को किराये पर लेकर बाबूजी लखनऊ से सब सामान और हम लोगों को भी ले गए। बाबू जी का दफ्तर-CWE आफिस सुबह 07-30 से प्रारम्भ होता था। अतः हम दोनों भाई छोटी बहन को केंट जनरल अस्पताल ले जाकर मरहम-पट्टी करवा लाते थे।

शुरू में दोनों भाई रूक्स प्राईमारी स्कूल में थे और बहन का स्कूल हम लोगों से आगे और थोड़ी दूर पर था। उसके स्कूल की प्राचार्या क्रिश्चियन थीं जिनके दो पुत्र हमारे स्कूल में एक मेरे साथ और दूसरा भाई के साथ पढ़ते थे। बहन की एक अध्यापिका हमारे घर चौका-बर्तन करने वाली 'मेहरी'साहिबा की पुत्री थीं। उनकी शादी में हम दोनों भाई भी बाबूजी के साथ बारात में शामिल होकर गए थे। बउआ ने यह बात जब मेहरी साहिबा को बताई थी तो वह बहुत खुश हुईं थीं।

लखनऊ से जब बाबू जी अकेले आए थे तो अपने दफ्तर के कुछ साथियों के साथ बी आई बाज़ार में उन लोगों के साथ कमरे पर रहे थे। उनमे एक थे 'बाला प्रसाद'जी जिनसे बाबूजी की घनिष्ठता हो गई थी। उनके परामर्श पर ही बाबूजी उनके कमरे के सामने वाले दुकानदार 'धर्म दास' जी से सामान खरीदने बी आई बाज़ार जाते थे हम दोनों भाईयों को भी ले जाते थे। मकान मालिक 'धर्म प्रकाश' जी की दुकान से छिट -पुट चीज़ें ही कभी-कभी लेते थे। इन बाला प्रसाद जी के एक माने हुये पुत्र से ही जो इंजीनियर हो गए थे  मेहरी साहिबा की शिक्षिका पुत्री का विवाह हुआ था। क्योंकि बाबूजी के दफ्तर के साथियों को यह आश्चर्य हुआ था कि खुद 'तेली'समुदाय से होते हुये अपने दत्तक पुत्र का विवाह वह 'कहार' समुदाय की पुत्री से क्यों कर रहे हैं?अतः बाला प्रसाद जी को इस छिपे रहे रहस्य को उजागर करना पड़ा था कि उनके घर के वफादार सेवक ने  जिनकी पत्नी की मृत्यु पहले हो चुकी थी अपना अन्त समय जान कर अपने 10 वर्षीय पुत्र का हाथ  उनको पकड़ा कर उनसे वचन लिया था कि उसे अपने पुत्र के समान ही मानते हुये उसका लालन-पालन करेंगे। उन्होने अपनी जमा-पूंजी की पोटली भी बाला प्रसाद जी को सौंप दी थी  जिसे बाला प्रसाद जी ने इस शादी के वक्त उस पुत्र को सौंप दिया था। जैसा कि बाला प्रसाद जी ने अपने साथियों को बताया था इस पुत्र की शादी का खर्च उन्होने खुद किया था। हालांकि उस वक्त वह बरेली से ट्रांसफर हो चुके थे किन्तु जब बारात लेकर बरेली आना था तब अपने आफिस और कमरे के पास के मोहल्ले के साथियों को पूर्व में कार्ड भेज कर निमंत्रित किया था। बारात गोला बाज़ार के पास से चली थी और उसमें बैंड-बाजे का भी बंदोबस्त था। लड़की वालों के घर के पास एक खाली मैदान में बाकायदा बेंच-मेज़ पर खाने का प्रबंध 'पत्तल-शकोरे' में था। खाना अच्छा था। लड़की वालों की आर्थिक स्थिति को देखते हुये बाला प्रसाद जी ने खाने का खर्च खुद उठाया था। आजकल जब अखबारों मे पढ़ते हैं कि किस प्रकार लोग लड़की वालों का शोषण उनको दबा कर करते हैं तब 'बाला प्रसाद' जी का आचरण स्मरण हो जाता है। वह भी तब जबकि वह उनका पाला-माना पुत्र था। 

यह भी याद है कि हमारे क्लास का एक छात्र रामलीला में पटाबाजी का खेल करता चलता था। गंगा-पार उतारने का दृश्य धोंपेश्वर महादेव मंदिर के तालाब में 'नाव' पर सम्पन्न किया जाता था। एक वर्ष लक्ष्मण की भूमिका वाले पात्र की लंबाई राम के पात्र से अधिक थी। वहाँ राम बारात और नाव उतरने के कार्यक्रम ही हम लोगों ने देखे थे,राम लीला तो काफी रात में नौटंकी के रूप मे होती थी। सावन के सोमवारों पर वहाँ उस मंदिर पर मेला लगता था।

बबूए मामाजी (बउआ के चचेरे भाई)उस वक्त हास्टल में रह कर सिविल इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे। कुछ त्यौहारों पर जब वह शाहजहाँपुर नहीं जाते थे बउआ ने उनको घर बुलाकर खाना खिलाया था। वैसे मिलने आने पर वह खाना नहीं खाते थे कि मेस में तो खर्चा कटेगा ही। नाना जी के फुफेरे भाई -महेश नाना जी,इंस्पेक्टर आफ फेकटरीज़  सिविल लाईन्स मे रहते थे उनके घर भी मिलने जाना होता रहता था। पहली बार पहुंचाने महेश नानाजी हम सबको अपनी कार से आए थे। बाबूजी की साईकिल को नानी जी की दही मथने की रस्सी से कार की छत पर बांध दिया था। खाना उन्होने खिला कर भेजा था हमारे घर हैंड पंप का पानी ही उन्होने व मौसियों ने पिया क्योंकि रात को तब नाश्ते का समय नहीं था।

सोमवार, 20 मई 2013

बरेली के दौरान (भाग-3)


जब हम लोग धर्म प्रकाश जी के इस मकान में रहने आए थे तब कमरों व बारामदे की छत खपरैल की थीं और एक पड़ौसी की तरफ की दीवार कच्ची मिट्टी की बनी थी। कुछ दिनों बाद दुकान के हिस्से को उन्होने पक्का करवा कर दो मंजिल बनवा कर दुकान के ऊपर भी घर किराये पर उठा दिया था। कच्ची दीवार को पूरा ही उन्होने पक्का करवा डाला था। जब मिट्टी की दीवार तोड़ी गई तो सुना था कि उसमें उनको कुछ गड़ा हुआ खजाना मिला था। कानूनन वह सरकार का होता। पड़ौसी का घर बंद रहता था वह अविवाहित सज्जन अपने किसी भतीजे के पास बाहर रहते थे। धर्म  प्रकाश जी की धर्म पत्नी साहिबा ने उनके सिर पर पोटली बांध कर गहने देकर उनको किसी रिश्तेदार के घर छिपवा दिया था। किसी की शिकायत पर जब पुलिस आई तो दुकान से उनके छोटे भाई को पकड़ कर थाने ले गई।  धर्म प्रकाश जी की पत्नी को मजदूर गण 'ललाईन'कहते थे। वही मकान निर्माण का कार्य देखती थीं। ऐसा सुनने में आया था कि वह थाने मे काफी गरम होती हुई पहुँचीं और अपने पति 'धर्म  प्रकाश'जी को गायब करने तथा देवर को प्रताड़ित करने  का इल्ज़ाम पुलिस पर लगाते हुये दरोगा जी को खूब फटकारा और उनके विरुद्ध शिकायत करने की धमकी दी जिससे घबराकर उन्होने उनके देवर 'नारायण दास' जी को भी तत्काल थाने से बगैर लिखा-पढ़ी के ही छोड़ दिया था। उनको पकड़ना ही नहीं दिखाया होगा। 

आज आए दिन पुलिस द्वारा महिलाओं के उत्पीड़न की कहानियों से रंगे अखबार पढ़ने को मिलते हैं तब आज की उच्च शिक्षित महिलाओं की बुद्धि पर हैरानी होती है। अबसे 52 वर्ष पूर्व की अशिक्षित 'ललाईन' के ज्ञान और पुलिस के प्रति उनके तेवर को क्या आज की शिक्षित महिलाएं अपना कर अपने शोषण-उत्पीड़न से टक्कर नहीं ले सकती हैं ? या अब पुलिस का चरित्र हींन  होना ही पुलिस की पहचान बन गया है -इस उदारवादी विकास वाले भारत में -महिला और पुरुष का भेद मिटा कर सबका उत्पीड़न समान बना दिया  गया है? बड़ा विस्मय होता है!

ललाईन सुबह मजदूरों के पहुँचते ही आ जाती थीं और किसी को भी खाली नहीं बैठने देती थीं। मजदूरों के खाना खाने के समय खुद घर जाकर खाना खातीं और अपने पति व देवर का खाना लाकर दुकान मे पहुंचाती थीं। मकान मालकिन होने के नाते हमारी बउआ दोपहर में उनको चाय पिला देती थीं। उन लोगों का अपना घर भी सादगी युक्त ही था। जैसा कि आज चार पैसे होते ही लोगों मे घमंड झलकता देखते हैं वैसा तब के उन धनाढ्यो में दूर-दूर तक नहीं दिखाई देता था। जब कभी बउआ के साथ उनके घर गए उन्होने अपने बच्चों के साथ ही हम लोगों को भी खेलने दिया व उनके साथ ही खाने की चीज़ भी दीं,बिना किसी भेद-भाव के। 

बाबू जी के आफिस के एक गेरिजन इंजीनियर साहब जिस मकान में रहते थे वह कुतुब बाज़ार जाने के रास्ते में पड़ता था। वह अक्सर अपने बारामदे में बैठे होते थे और बाबूजी द्वारा 'नमस्ते' करने का जवाब बड़ी ही आत्मीयता से देते थे। उस समय तक अफसर होने का घमंड उनमे नहीं था। 

Monday 7 September 2015

बरेली के दौरान ---विजय राजबली माथुर

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

बरेली के दौरान 

बरेली कैंट में गोला बाज़ार में हम लोग रहते थे और रुक्स प्राइमरी स्कूल से पांचवी पास कर रुक्स हायर सेकण्ड्री स्कूल से छठवीं में पढ़ रहा था तो अजय प्राइमरी स्कूल में ही था.एक बार अफवाह फैली की प्राइमरी स्कूल के हैडमास्टर ने किसी लड़के को मुर्गा बना कर उसकी पीठ पर १०-१२ ईंटें रखकर स्कूल के गेट के बाहर धूप में सजा दी जिस कारण उसके नाक-मुहं से खून बहने लगा.हायर सेकण्ड्री स्कूल के वह बच्चे जिनके छोटे भाई प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे अपनी-अपनी क्लास छोड़ कर वहां दौड़ पड़े उनमे मैं भी शामिल हो गया.प्रा.स्कूल के सेकंड हेड मास्टर रमजान अहमद साःने अपने हेड मास्टर इशरत अली साः की जम कर पिटाई की और पुलिस के हवाले कर दिया तथा स्कूल में छुट्टी करा दी.घर पर अजय को सुरक्षित देख कर फिर से अपनी क्लास में साथियों के साथ पहुच गए.रमजान अहमद साः को छावनी बोर्ड ने तरक्की दे कर अन्य स्कूल में हेड मास्टर बना दिया और इशरत अली साः को पद से गिरा कर अन्य स्कूल में सेकंड हेड मास्टर बना दिया.इस स्कूल में अवस्थी जी को हेड मास्टर बना दिया.हमारे उस स्कूल में रहने के दौरान भी रमजान अहमद साः बहुत अच्छा पढ़ाते थे,बच्चों के प्रति उनका व्यवहार बहुत अच्छा था,इसलिए उनकी तरक्की की बात से ख़ुशी हुई थी.

हमारे हायर सेकण्ड्री स्कूल में सालाना प्रोग्राम के के समय लड़कियों द्वारा एक नाटक प्रस्तुत किया गया था जिसमे दो भूमिकाएं याद हैं-(१) अमर सिंह तो मर गया (२)लक्ष्मी हो कर करें मजूरी.

बरेली में पुराने टायर से बनी चप्पलों का रिवाज़ तब था.बाबू जी ने वे चप्पलें सफ़र के लिए लीं थीं.मामाजी का पथरी का लखनऊ में ऑपरेशन हुआ था.बउआ तो शोभा को लेकर मामा जी के घर न्यू हैदराबाद रहीं थीं.बाबू  जी अजय व् मुझे लेकर भुआ के घर सप्रू मार्ग रुके थे.लौटते में लाखेश भाई साः.ने बाबू  जी से वे पुरानी चप्पलें ले लीं थीं.ट्रेन में रात किसी ने बाबू  जी के नए जूते भी चुरा लिए तो बरेली कैंट से गोला बाज़ार तक बाबू  जी को बिना जूता,चप्पल पहने ही आना पड़ा .

पास के गाँव चन्हेटी में साप्ताहिक पैंठ लगती थी जिसमे दोनों भाई बाबू  जी के साथ सब्जी लेने जाते थे.एक बार जब बाबू जी दरियाबाद से होकर लौटे थे तो दोनों भाई सुबह छै बजे चन्हेटी हाल्ट पर उन्हें लेने भी गए थे.जिस दिन हमारे स्कूल का वार्षिकोत्सव था हम लोगों को ट्रेन से मथुरा जाना था.
बउआ की इच्छा बाँके बिहारी मंदिर वृन्दावन जाने की थी और उन्होंने अपने मिले-मिलाए रु.बाबूजी को टिकट वास्ते दिए थे.३-४ दिन वृन्दावन और मथुरा रह कर मंदिर घूम कर जब लौट कर कैंट स्टेशन से घर आरहे थे;रिक्शा पर ही बाबूजी के किसी साथी ने सूचना दी कि उनका तबादला सिलीगुड़ी हो गया है.१९६२ में चीनी आक्रमण के दौरान सिलीगुड़ी नॉन फैमिली स्टेशन था अतः हम लोगों को शाहजहांपुर में नानाजी के घर रहना पड़ा.एक ही क्लास को दो शहरों में पढना पड़ा.डेढ़ वर्ष में ही बरेली छूट गया था.

Wednesday 2 September 2015

लखनऊ की कुछ और झीनी यादें --- विजय राजबली माथुर

गुरुवार, 9 सितंबर 2010


लखनऊ की कुछ और झीनी यादें ---


(यों तो १९७३ में मेरठ से ही मैं साप्ताहिक अख़बारों में लिख रहा था,लखनऊ आकर ब्लॉग के माध्यम से लखनऊ से सम्बंधित  कुछ और लोगों से संपर्क हुआ तो लखनऊ में बचपन की कुछ और यादों को लिखने का पक्का विचार बना अन्यथा बरेली के सम्बन्ध में अधूरे लेखन को पूरा करना था.मेरी पत्नी पूनम कई दिनों से इसे आगे बढाने को कह रहीं थीं,लेखन में उनका पूरा सहयोग और प्रेरणा रहती है.उनके पिता जी पटना के श्रीवास्तव परिवार के स्व.विलास पति सहाय साः की सलाह पर मैंने ज्योतिष को प्रोफेशन बनाया था ,चूंकि वह गणित के माहिर थे अतः उन्होंने ज्योतिष के महत्त्व को ठीक से समझ लिया था.)
बात शायद ५९ या ६० की रही होगी;अजय और मैं बाबू  जी के साथ  साईकिल से ६-सप्रू मार्ग भुआ के घर से लौट रहे थे.बर्लिंगटन होटल के पास पहुंचे ही थे की पता चला नेहरु जी आ रहे हैं.बाबू जी ने प्रधान मंत्री को दिखाने के विचार से रुकने का निर्णय लिया जबकि घर के पास पहुच चुके थे.नेहरु जी खुली जीप में खड़े होकर जनता का अभिवादन करते और स्वीकार करते हुए ख़ुशी ख़ुशी अमौसी एअरपोर्ट से आ रहे थे.आज जब विधायकों,सांसदों तो क्या पार्षदों को भी शैडो के साए में चलते देखता हूँ तो लगता है कि नेहरु जी निडर हो कर जनता के बीच कैसे चलते थे? जनता उन्हें क्यों चाहती थी? हुसैनगंज चौराहे पर मेवा का स्वागत फाटक बनवाने वाले चौरसिया जी का भतीजा मेरे क्लास में पढता था.नेहरु जी की सवारी जा चुकी थी और जनता आराम से मेवा तोड़ कर ले जा रही थी कहीं कोई पुलिस का सिपाही नहीं था और फ़ोर्स भी तुरंत हट चुका था.यह था उस समय के शासक और जनता का रिश्ता.आज क्या वैसा संभव है?हुसैनगंज चौराहे पर ही मुहर्रम का जुलूस या गुड़ियों का मेला दिखाने भी बाबु जी ले जाते थे.इक्का-दुक्का सिपाही ही होते होंगे आज सा भारी पुलिस फ़ोर्स तब नज़र नहीं आता था.
विधान सभा पर २६ जनवरी को गवर्नर विश्वनाथ दास द्वारा ध्वजारोहण भी बाबु जी ने साईकिल के कैरियर और गद्दी पर दोनों भाइयों को खड़ा करके आसानी से दिखा दिया था क्या आज वैसा संभव है? आज तो साईकिल देखते ही पुलिस टूट पड़ेगी.उस समय तो एक निजी विवाह समारोह में भी विधान सभा के लॉन में एक चाय पार्टी में बाबा जी के साथ शामिल होने का मौका मिला था.वह समारोह संभवतः राय उमानाथ बली के घर का था.आज तो उस क्षेत्र में दो लोग दो पल ठहर भी जाएँ तो तहलका मच जायेगा. यह है हमारे लोकतंत्र की मजबूती !
न्यू हैदराबाद से  पहले तो मामा जी खन्ना विला में रहते थे जिसे स्व.वीरेन्द्र वर्मा ने किराए पर ले रखा था और मामा जी वर्मा जी के किरायेदार थे.वर्मा जी तब संसदीय सचिव थे और उनके पास रिक्शा में बैठ कर दो मंत्री चौ.चरण सिंह और चन्द्र भानु गुप्ता अक्सर आते रहते थे.तब यह सादगी थी और आज के मंत्री.......? बाद में मामा जी वहां से शिफ्ट हो गए जिसमे पहले सेन्ट्रल एकसाइज़ इंस्पेक्टर उनके साले श्री वेद प्रकाश माथुर रहते थे. घर के पीछे इसी पार्क के सामने मुझे लिए उनका (मामा जी का) फोटो :


वेद मामाजी की मोटर साईकिल पर मुझे बैठाये सरोज मौसी (माईंजी की बहन व डॉ राजेन्द्र बहादुर श्रीवास्तव साहब की पत्नि ) उनके घर के आगे पुलिस लाईन की तरफ वाली सड़क पर। 
इसी पार्क में बचपन में खेलने का अवसर मिला है.१९६० की बाढ़ में मामा जी का घर तीन तरफ से पानी से घिर गया था.कई दिन वे लोग वहीँ घिरे रहे और पानी उतरने पर ही निकल सके वहां नाव तक चली थी.हमारा घर हुसैनगंज में नाले से सटा था लेकिन हमलोग बाढ़ से बचे हुए थे बल्कि भुआ का पूरा परिवार हमारे ही घर में आकर रहा था.बाढ़ उतरने के बाद ही नाना जी ने आकर कुशलता की सूचना दी थी बल्कि जिस दिन बाढ़ आने वाली थी वह आकर बउआ को बता गए थे की बाढ़ आ रही है कई दिन बाद मिल पाएंगे.तब उनके सामने वाले पार्क में वोट भी पड़ते थे.क्या आज खुले में मतदान स्थल बन सकता है? बातें तो बहुत सी धुंधली यादों में हैं.लखनऊ वापिस आने पर लखनऊ से सम्बंधित पुराने लोगों से ये ब्लॉग परिचित कराता जा रहा है यही बहुत है.
Typist -यशवंत (जो मेरा मन कहे......)

Monday 31 August 2015

लखनऊ वापिसी क्यों ? --- विजय राजबली माथुर

शनिवार, 14 अगस्त 2010


लखनऊ वापसी क्यों ? --- 

१९७८ में आगरा में मकान ले कर बस चुकने के बाद क्या केवल पुत्र के आग्रह पर ही वापिस आया अथवा लखनऊ से लगाव पहले से ही था यह बताना भी बेहद जरूरी है.आगरा में १९८६ में राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय भाग लेना शुरू किया और शहर छोड़ने तक २३ वर्षों में सिर्फ एक बार ही दिल्ली प्रदर्शन में गया जबकि लखनऊ प्रदर्शन के हर अवसर का उपयोग लखनऊ आने में किया.एक तो लखनऊ खुद का जन्म स्थान था दूसरे बाबूजी का बचपन और शिक्षा-दीक्षा लखनऊ में होने के कारण लखनऊ का ज़िक्र होता ही रहता  था.डाली गंज में बाबू  जी ने फूफा जी के प्लाट के बगल में मकान बनवाने के लिए ज़मीन भी खरीदी थी लेकिन दोनों ही मकान न बना सकेऔर ज़मीन बेचनी पड़ी.
बाबूजी कालीचरण हाईस्कूल,लखनऊ में पढ़ते थे,खेल कूद में सक्रिय थे.टेनिस में सीनियर ब्वायज एसोसियेशन  के पंडित अमृत लाल नागर जी  के साथ भी बाबूजी खेले हैं और पत्रकार राम पाल सिंह जी  भी बाबूजी के खेल के साथी थे.का.भीखा लाल जी तो बाबू  जी के रूममेट  और सहपाठी थे  जो जब तहसीलदार बने तो बाबूजी का उनसे संपर्क टूट गया.एक प्रदर्शन के दौरान का.भीखा लाल जी से मैने भेंट की तो उन्होंने शिकायत भी की कि वह उनसे क्यों नहीं मिलते लेकिन उन्होंने संतोष भी जताया था कि वह खुद न मिले लेकिन अपने बेटे को तो भेज दिया.पुराने लोगों में बेहद आत्मीयता थी.१९३९ में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बाबू जी तो फ़ौज में चले गए थे; भीखा लाल जी तहसीलदार बन गए थे फिर नौकरी छोड़ कर राजनीती में आगये थे और उत्तर प्रदेश भारतीय कम्युनिस्ट  पार्टी के सचिव भी बने.युद्ध समाप्त होने के बाद बाबू जी खेती देखने के विचार से दरियाबाद आ गये थे.लेकिन वहां भाइयों का अनमना व्यवहार देख कर खिन्न हो गए.सात साल लड़ाई के दौरान पूरा वेतन बाबूजी ने बाबा जी को भेजा उसका भी कोई रिटर्न  नहीं मिला.लड़ाई के दौरान बाबूजी की यूनिट  के कंपनी कमांडर ने लखनऊ में लेफ्टिनेंट कर्नल  हो कर C .W. E. बनने पर बाबू  जी से फिर से नौकरी करने को कहा जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया.इस प्रकार हम लोगों को लखनऊ में जन्म से ही रहने का अवसर मिला.जिन लोगों का,जिन लोगों कि संतानों का बउआ – बाबूजी के प्रति बर्ताव ठीक नहीं रहा उनका कोई जिक्र अपने संस्मरणों में नहीं कर रहा हूँ. जो लोग मेरे माता-पिता के साथ ठीक-ठाक रहे सिर्फ मुझे ही ठुकराया है उनका उल्लेख जरूर किया जा रहा है५ या ६ वर्ष का रहा होऊंगा तब बड़े मंगल पर अलीगंज मंदिर में मैं  भीड़ में छूट गया था.बउआ महिला विंग से गयीं.नाना जी ने अजय को गोदी ले लिया और बाबूजी शोभा को गोदी में लिए थे मैने बाबूजी का कुर्ता  पकड़ रखा था.पीछे से भीड़ का धक्का लगने पर मेरे हाथ से बाबूजी का कुर्ता छूट गया और मैं कुचल कर ख़तम ही हो जाता अगर एक घनी दाढ़ी वाले साधू मुझे गोद में न उठा लेते तो.वे ही मुझे लेकर बाहर आये और सब को खोजने के बाद एक एकांत कोने में मुझे रेलिंग पर बैठा कर खड़े रहे उधर नाना जी और बाबू जी भी अजय और शोभा को बउआ के सुपुर्द कर मुझे ढूंढते हुए पहुंचे और खोते-खोते मैं बच गया.इसी प्रकार जब मामा जी लखनऊ university की ओर से रिसर्च के लिए आस्ट्रेलिया जाने हेतु बम्बई की गाडी से जा रहे थे तो अजय को चारबाग प्लेटफार्म  से कोई बच्चा चोर ले भागा.तुरंत mike से anauncement कराया गया तो घबरा कर उस आदमी ने अजय को ओवर ब्रिज पर छोड़ दिया जिसे मामा जी के छोटे साले ने देखा और गोद में ले आये तभी मामा जी बम्बई के लिए रवाना हुए वर्ना यात्रा रद्द कर रहे थे.मामा जी की बेटी की शादी में शोभा की बड़ी बेटी भी बादशाह बाग़ की कोठियों में खो गयी थी.सब लोग उसे खोज रहे थे और एक धोबी पुत्र रत्ना को साइकिल पर लिए घर-घर पूछ रहा था.मुझे देखते ही रत्ना रोते हुए मेरे पास आगई.लखनऊ में मैं ,भाई और भांजी खोते-खोते बचे.लखनऊ खोने की नहीं पाने और मिलने की धरती रही है.बाबू जी नहीं बना सके लखनऊ में मकान तो आगरा से हट कर मैं बस गया जो बाबू जी का सपना था मैंने पूरा कर दिया।
Typist-Yashwant