Tuesday 14 November 2017

डॉ एस सी अस्थाना और डॉ एन के सिन्हा : रिशतेदारों से गैर भले





डॉ एस सी अस्थाना साहब  :

डॉ एस सी अस्थाना साहब आर ई आई , दयालबाग,  आगरा में अङ्ग्रेज़ी विषय के अध्यापक थे और रहते हमारी ही कालोनी कमलानगर के ई ब्लाक में थे लेकिन हम लोगों का परस्पर परिचय नहीं था। सर्वप्रथम वह डॉ एन के सिन्हा साहब के बड़े दामाद साहब द्वारा हमारे यहाँ होकर जाने के बाद ईंक्वायारी हेतु एक अङ्ग्रेज़ी का पत्र लेकर आए थे। उन्होने स्पष्ट कहा कि,  हम आपको जानते नहीं हैं इनको क्या जवाब दें ? जो आप कहेंगे वही लिख देते हैं। मैंने उनको कहा कि,  आप यही लिख दें कि,  आप मुझे नहीं जानते हैं। इसके बाद यदि हम दोनों चाहें तो परस्पर मैत्री भाव रख सकते हैं। उन्होने वैसा ही किया। 

हम लोगों का परस्पर आना - जाना होता रहता था।चूंकि मैं ज्योतिष में पकड़ रखता था  एक रोज़ उनकी श्रीमती जी उनकी भतीजी डॉ भावना अस्थाना ,  अध्यापिका गवर्नमेंट कालेज को लेकर आईं और बोलीं कि,  इनका अपने पति से टकराव है  कुछ ऐसा उपाय बताएं जो डायवोर्स हो जाये। मेरा जवाब था कि, फिर आप गलत जगह आईं हैं मैं अलगाव नहीं एकता का उपाय बता सकता हूँ। और सीधे भावना अस्थाना से ही पूछा कि, क्या वह खुद अपने पति से अलगाव चाहती हैं या एकता ? भावना का जवाब था अगर एकता हो सकती है तो वह एकता ही चाहती हैं उनकी एक छोटी सी पुत्री भी थी। इस पर मैंने डॉ अस्थाना की श्रीमती जी से कहा कि, भाभी जी आप कोई हस्तक्षेप न करें मैं सिर्फ भावना को ही उपाय बताऊंगा। सच में भावना ने पूरी तन्मयता से बताए गए मंत्रों का निर्धारित विधि से जाप किया और उनके पति उनको साथ रखने को तैयार हो गए लेकिन समस्या यह थी कि, भावना अपनी जेठानी के साथ नहीं रहना चाहती थीं और उनके पति अपने श्वसुर साहब के मकान में बिना किराया दिये नहीं रहना चाहते थे जबकि वह दामाद से किराया नहीं लेना चाहते थे । यह ज्योतिष की समस्या नहीं थी किन्तु भावना मेरे पास आईं और बोलीं अंकल अब क्या करें ? मैंने उनको कहा आप अपने पिताजी को समझाएँ कि, वह उनसे किराया ( रु 800/- ) जो वह दें ले लें फिर उनकी ही बेटी के नाम रेकरिंग डिपॉजिट खोल कर जमा करते जाएँ इससे दामाद समझेंगे कि, वह सुसराल में मुफ्त नहीं रह रहे हैं और सुसर को संतुष्टि रहेगी कि वह दामाद का पैसा नहीं ले रहे हैं।  ऐसा ही हुआ और इसके बाद भावना के पिता श्री व पति दोनों का ही हम लोगों से निजी मेल - जोल हो गया। 

जब भावना के पति ने अपना अलग मकान खरीदा तब मुझसे ही वास्तु संबंधी जानकारी लेकर उस पर अमल भी किया और गृह प्रवेश का हवन भी मेरे पुरोहिताई में ही किया। फिर जब भावना ने एक और मकान खरीदा तब भी वहाँ के गृह प्रवेश की पुरोहिताई भी मुझसे ही करवाई।भावना के मईंया सुसर साहब व चाचा डॉ  एस सी अस्थाना साहब ने भी मुझसे ही अपने - अपने घरों के वस्तु - दोष निवारणार्थ हवन करवा कर पूर्ण लाभ उठाया।

भावना अस्थाना के कालेज की डॉ सरोज कुलश्रेष्ठ ने भी अपने बेटों की जन्म पत्रियों का विश्लेषण करवाया था और अपने घर बुला कर हवन भी करवाया था। उनके दामाद के छोटे भाई 'ब्रह्मपुत्र समाचार ' नामक साप्ताहिक पत्र निकलते थे उनसे उन लोगों ने परिचय करवाया। उनके अखबार में सामाजिक, राजनीतिक लेख ही नहीं कुछ समय तक साप्ताहिक भविष्यफल भी मैंने लिखा।इसमें छ्पे लेख पढ़ कर 'अग्रमंत्र ' त्रैमासिक के संपादक ने मुझे उप- संपादक के रूप में जोड़ कर कई वर्ष मेरे अनेक लेख प्रकाशित किए हैं।  उनके दामाद ने अपने एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर साहब से संपर्क करवाया जिनके परिवार के सभी सदस्यों की जन्म पत्रियों का विश्लेषण मैंने ही किया है। उन इंजीनियर साहब के घर वास्तु आदि के हवन भी मैंने किए। कानपुर ट्रांसफर हो जाने पर भी मुझे आगारा से बुलवाकर अपने बेटे का नामकरण संस्कार मुझ से करवाया। गोमती नगर लखनऊ के अपने मकान का भूमि पूजन व गृह प्रवेश के हवन मुझ से ही करवाए। 

इतना संपर्क डॉ एस सी अस्थाना साहब और उनकी भतीजी डॉ भावना अस्थाना के माध्यम से ही संभव हुआ था।   

डॉ एन के सिन्हा  साहब : 
यों तो डॉ एन के सिन्हा साहब थे बाबू जी साहब (पत्नी के पिताजी ) के समधी किन्तु वह मुझसे बेहद लगाव रखते थे। उन्होने जब भी मैं बाबूजी साहब के घर जाता था मुझसे मिलने का क्रम बना रखा था और कहते थे हम आज आप से ही मिलने आए हैं और ज़्यादातर मुझसे ही ज़्यादा बात करते थे। विषय राजनीति और अध्यात्म रहते थे। एक बार मैंने उनके जाने के बाद बाबूजी साहब  से कहा कि, ये आते तो आपसे मिलने हैं और मुझे देख कर कह देते हैं कि, मुझसे मिलने आए थे। उनका जवाब था कि, वह आपसे मिलने के इच्छुक रहते हैं और कह रखा है जब भी वह आगरा से आयें उनके रुकने का पूरा पूरा कार्यक्रम उनको बताते रहें इसलिए वह मेरे पहुँचने से पूर्व ही उनको सूचित कर देते हैं तभी वह आते हैं वैसे उनसे तो अक्सर मिलते ही रहते हैं । 
 मुझसे उनका लगाव क्या और क्यों था इसका खुलासा उन्होने खुद ही 26 मई 2000 को तब किया था जब बाबूजी साहब के निधन के बाद उनके घर शोक प्रकट करने हेतु आए थे। तब उन्होने साफ - साफ कहा था कि, हम और आप आर्यसमाजी भाई हैं। उम्र में कोई 21 वर्ष बड़े होने के बावजूद भी भतीजा न मान कर  उन्होने मुझे भाई का दर्जा  दिया था। एक शिक्षक और एक चिकित्सक के नाते वह काफी दूरदर्शी थे। उनको मालूम था कि, उनकी बड़ी बेटी के पति और उनके दामाद सा :   अपने पिता के नहीं बल्कि, अपने चाचा - चाची और भुयाओं के साथ हैं। 1996 में इसी कारण उनके दामाद साहब को उनके पिता ने कहा भी था - " You are not faithfull to me, You are not reliable to me. " वस्तुतः वह अपने पिताजी को चकमा देकर कि, अभी आ रहे हैं इसलिए उठ गए थे क्योंकि उनके सबसे छोटे चाचा आलोक ( जो अपनी माताश्री को ठग कर मकान बेचने का असफल प्रयास कर चुके थे ) के आँख की पुतली के इशारे पर ही। इसी अवसर पर  1996 में उनका स्पष्ट कथन था कि, वह अपनी बेटियों के बजाय अपने चाचा - चाची और भुआओं का साथ देंगे।

2013 में डॉ एन के सिन्हा साहब के दामाद के एक चाचा SGPGI, लखनऊ में इलाज कराने आए थे तब औपचारिकतावश हम लोग उनको देखने गए थे। उस मौके पर भी उन साहब का कहना था कि, हमें डॉ एन के सिन्हा साहब के दामाद और उनके परिवार का ख्याल नहीं करना चाहिए।मेरी श्रीमतीजी से उनकी श्रीमतीजी ने कहा था कि, वह अपनी भतीजियों का ख्याल न किया करें।  क्योंकि उनको पता था कि, न केवल उनके परिवार के चारों सदस्यों की जन्म पत्रियों का विश्लेषण मैंने किया है बल्कि समय - समय पर उनको सुझाव देता रहता हूँ। डॉ सिन्हा साहब के तीसरी बेटी की  उनके पुत्र  समेत जन्म पत्रियों का विश्लेषण भी मैंने दिया था वांछित उपायों सहित। डॉ साहब की चौथी बेटी व दामाद साहब ने भी अपनी जन्म पत्रियाँ दिखा कर राय ली थी। 

जहां डॉ एस सी अस्थाना साहब की भतीजी ने अपनी चाची से असहमत होकर मेरे सुझावों को मान कर फायदा उठाया था और अपने परिचितों को भी लाभ दिलवाया था वहीं डॉ एन के सिन्हा साहब की बेटी ने अपनी चचिया सास जिनको वह छोटी माँ पुकारती हैं के बहकावे में आकर मेरे बताए सुझावों को ठुकरा कर कह दिया कि, ' हम इनको नहीं मानते'। उनकी छोटी माँ की ही करामात से जब उनके पति बीमार होकर उसी अस्पताल के उसी ICU में उसी बेड पर भर्ती हुये जहां और जिस पर उनके चाचा भी रहे थे। उस स्थिति में भी डॉ सिन्हा की बेटी ने अपनी नन्द को अपने भाई को देखने आने से रोक दिया यह कह कर कि, आने पर रिटर्न टिकट तैयार मिलेगा और कि, उनकी छोटी माँ (देवघर वाली चचिया सास ) का पुत्र उनके साथ 24 घंटे है उनको अपनी नन्द की ज़रूरत नहीं है। अपने इसी 24 घंटे के बाडीगार्ड को लेकर ही वह एकमात्र एक बार आगरा में 12 नवंबर 1995 को आईं थीं और 2010 में उसी को हमारे लखनऊ के मकान में किरायेदार के रूप में रखने की बात उठी थी जिसे न मानने के कारण वे लोग बिदक गए थे। क्योंकि उनके परिवार का कोई भी सदस्य फेसबुक पर हमसे नहीं जुड़ा था इसलिए उनकी दो  बहन के माध्यम से उनको 2015 में आगाह किया था कि उन लोगों से बचें किन्तु सबके पास बुद्धि का अकाल है । अब जब उनके फेसबुक वाल पर ( फेसबुक पर न जुड़े होने के बावजूद ) कमेन्ट में उनके SELF EMPLOYED वाले स्टेटस को लाईक करके 'दुर्गा एवं महिषासुर', 'पूर्व छात्र नेता सतपाल मलिक',' शाब्दिक अर्थ - अनर्थ ', जैसे लेखों के लिंक लगाए  जानकारियों   हेतु  : 

मेसेज के जरिये भी सूचना दी :





तो उनको आपत्तीजनक मानते हुये  डिलीट करके fb को हाईड कर लिया। अपनी फुफेरी बहन  ( जो भी अपने एक पुत्र की जन्म पत्री का विश्लेषण ले चुकी थीं )  को भी fb पर गलत  भड़का दिया। 
एक दूरदर्शी शिक्षक / चिकित्सक डॉ एन के सिन्हा की  बड़ी बेटी ने (अपने पति के नक्शे कदम अपने पिता की राह के विरुद्ध )  नितांत अदूरदर्शिता व मूर्खता का भौंडा  प्रदर्शन किया और मुझे  अनावश्यक बदनाम करने की लगातार कोशिशें कर रही हैं  जबकि, उनसे उम्र में छोटी डॉ एस सी अस्थाना की भतीजी डॉ भावना अस्थाना ने जो कि, रिश्तेदार नहीं थीं काफी सूझ  - बूझ व दूरदर्शिता का परिचय दिया और उनके माध्यम  द्वारा दो अखबारों में लेख लिख कर मुझे अपनी बातें सार्वजनिक करने का मंच भी उपलब्ध हुआ था। वह अपनी बेटियों से हम लोगों को नानाजी व नानीजी कहलवाती रहीं। जबकि रिश्तेदार के नाम पर भी डॉ सिन्हा की बेटी साहिबा ने अपनी बेटियों को गुमराह करके उनमें नफरत और घृणा का संचार कर दिया है । 
गैर रिश्तेदार लेकिन समझदार आर्यसमाजी विद्वान की  खुद भी समझदार एक पुत्री जो कि, उस वक्त तक फेसबुक पर फ्रेंड नहीं थीं एक तीसरे के स्टेटस पर  लिखती हैं :




निष्कर्ष यही निकलता है कि, ' अपने रिशतेदारों से तो गैर भले '। 








Sunday 21 August 2016

भारत पाक संघर्ष : १९६५ की लड़ाई ------ विजय राजबली माथुर

भारत-पाक संघर्ष की 52 वीं वर्षगांठ पर :

 भारत पाक संघर्ष : पचास वर्ष  पूर्ण होने पर पुनः स्मरण ---

( अपनी आंतरिक राजनीतिक परिस्थितियों के कारण पाक राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अय्यूब खान ने अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जानसन के इशारों पर भारतीय सीमाओं पर संघर्ष अगस्त 1965 से ही शुरू कर दिया था किन्तु भारतीय वायु सेना ने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के निर्देश पर एक सितंबर से पाकिस्तान पर आक्रमण शुरू किया जो 23 सितंबर 1965 को युद्ध विराम होने तक चला था। इस संबंध में अपने ब्लाग 'विद्रोही स्व- स्वर में ' पूर्व में जो पोस्ट्स लिखे थे उनके कुछ युद्ध संबंधी अंशों को संयोजित कर पुनः प्रकाशित किया जा रहा है )
http://krantiswar.blogspot.in/2015/08/blog-post.html

भारत पाक संघर्ष--जी हाँ १९६५ की लड़ाई को यही नाम दिया गया था.टैंक के एक गोले की कीमत उस समय ८० हज़ार सुनी थी.पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना साः की बहन फातिमा जिन्ना को जनरल अय्यूब खान ने चुनाव में हेरा फेरी करके हरा भी दिया और उनकी हत्या भी करा दी परन्तु जनता का आक्रोश न झेल पाने पर भारत पर हमला कर के अय्यूब साः हमारे नए प्रधान मंत्री शास्त्री जी को कमजोर आंकते थे.यह पहला मौका था जब शास्त्री जी की हुक्म अदायगी में भारतीय फ़ौज ने पाकिस्तान में घुस कर हमला किया था.हमारी लड़ाई रक्षात्मक नहीं आक्रामक थी.पाकिस्तानी फौजें अस्पतालों और मस्जिदों पर भी गोले बरसा रही थीं जो अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन था.लाहौर की और भारतीय फौजों के क़दमों को रोकने के लिए पाकिस्तानी विदेशमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो सिक्योरिटी काउन्सिल में हल्ला मचाने लगे.हवाई हमलों के सायरन पर कक्षाओं से बाहर निकल कर मैदान में सीना धरती से उठा कर उलटे लेटने की हिदायत थी.एक दिन एक period खाली था,तब तक की जानकारी को लेखनीबद्ध कर के (कक्षा ९ में बैठे बैठे ही) रख लिया था जिसे एक साथी छात्र ने बाद में शिक्षक महोदय को भी दिखाया था.यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ:--
''लाल बहादूर शास्त्री'' -
खाने को था नहीं पैसा
केवल धोती,कुरता और कंघा ,सीसा
खदरी पोशाक और दो पैसा की चश्मा ले ली
ग्राम में तार आया,कार्य संभालो चलो देहली
जब खिलवाड़ भारत के साथ,पाकिस्तान ने किया
तो सिंह का बहादुर लाल भी चुप न रह कदम उठाया-
खदेड़ काश्मीर से शत्रु को फीरोजपुर से धकेल दिया
अड्डा हवाई सर्गोदा का तोड़,लाहोर भी ले लिया
अब स्यालकोट क्या?करांची,पिंडी को कदम बढ़ाया-
खिचड़ - पिचड़ अय्यूब ने महज़ बहाना दिखाया
''युद्ध बंद करो'' बस जल्दी करो यू -थांट चिल्लाया
चुप न रह भुट्टो भी सिक्योरिटी कौंसिल में गाली बक आया
उस में भी दया का भाव भरा हुआ था
आखिर भारत का ही तो वासी था
पाकिस्तानी के दांत खट्टे कर दिए थे
चीनी अजगर के भी कान खड़े कर दिए थे
ऐसा ही दयाशील भारतीय था जी
नाम भी तो सुनो लाल बहादुर शास्त्री जी
आज जब भी सोचता हूँ तो यह किसी भी प्रकार से कविता नज़र नहीं आती है पर तब युद्ध के माहोल में किसी भी शिक्षक ने इस में कोई गलती नहीं बताई.
जब जनरल चौधरी बाल बाल बचे-बरसात का मौसम तो था ही आसमान में काला,नीला,पीला धुंआ छाया हुआ था.गर्जन-तर्जन हो रहा था.हमारे मकान मालिक संतोष घोष साः (जिनकी हमारे स्कूल के पास चौरंगी स्वीट हाउस नामक दुकान थी)की पत्नी माँ को समझाने लगीं कि शिव खुश हो कर गरज रहे हैं.आश्रम पाड़ा में ही यह दूसरा मकान था.उस वक़्त बाबू जी बाग़डोगरा एअरपोर्ट पर A G E कार्यालय में तैनात थे.उन्होंने काफी रात में लौटने पर सारा वृत्तांत बताया कि कैसे ५ घंटे ग्राउंड में सीना उठाये उलटे लेटे लेटे गुज़ारा और हुआ क्या था?
दोपहर में जब हल्ला मचा था तब मैं और अजय राशन की दुकान पर थे,शोभा बाबू जी के एक S D O साः के घर थी,घर पर माँ अकेली थीं.जब हम लोग राशन ले कर लौटे तब शोभा को बुला कर लाये.पानी बरस नहीं रहा था,आसमान काला था,लगातार धमाके हो रहे थे.बाबू जी एयर फ़ोर्स के अड्डे पर थे इसलिए माँ को दहशत थी,मकान मालकिन उन्हें ढांढस बंधा रही थीं.माँ तक उन लोगों ने पाकिस्तानी हमले की सूचना नहीं पहुँचने दी थी.
बाबू जी ने बताया कि चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ जनरल जतिंद्र नाथ चौधरी बौर्डर का मुआयना करने दिल्ली से चले थे जिसकी सूचना जनरल अय्यूब तक लीक हो गयी थी.अय्यूब के निर्देश पर पूर्वी पाकिस्तान से I A F लिखे कई ज़हाज़ उन्हें निशाना बनाने के लिए उड़े.इधर बागडोगरा से बम वर्षक पूर्वी पाकिस्तान जाने के लिए तैयार खड़े थे. जनरल चौधरी के आने के समय यह घटना हुई.उधर जनरल चौधरी को हांसीमारा एअरपोर्ट पहुंचा दिया गया क्योंकि हमारी फौजों को पता चल गया था कि पाक को खबर लीक हो गयी है.बागडोगरा एअरपोर्ट का इंचार्ज I A F लिखे पाकिस्तानी ज़हाज़ों पर फायर का ऑर्डर नहीं कर रहा था और वे हमारे बम लदे ज़हाज़ों पर गोले दाग रहे थे लिहाज़ा सारे बम जो पाकिस्तान पर गिरने थे बागडोगरा एअरपोर्ट पर ही फट गये और आसमान में काला तथा रंग बिरंगा धुआं उन्हीं का था.डिप्टी इंचार्ज एक सरदार जी ने अवहेलना करके I A F लिखे पाक ज़हाज़ों पर फायर एंटी एयरक्राफ्ट गनों से करने का ऑर्डर दिया तब दो पाक ज़हाज़ बमों समेत नष्ट हो गये दो भागने में सफल रहे.जनरल चौधरी को सीधे दिल्ली लौटा दिया गया और उनकी ज़िन्दगी जो तब पूरे देश के लिए बहुत मूल्यवान हो रही थी बचा ली गयी.
मेले और प्रदर्शनी-युद्ध के बाद दुर्गा पूजा के पंडालों में अब्दुल हमीद आदि शहीदों की मूर्तियाँ भी सजाई गयीं टूटे पाकिस्तानी पैटन टैंकों की भी भी झलकियाँ दिखाई गयीं.काली पूजा के समय भी युद्ध की याद ताज़ा की गयी.


 दिसंबर में सरकारी प्रदर्शनी पर भी भारत -पाक युद्ध की छाप स्पष्ट थी.कानपुर के  गुलाब बाई के ग्रुप के एक गाने के बोल थे--

चाहे बरसें जितने गोले,चाहे गोलियां
अब न रुकेंगी,दीवानों की टोलियाँ

शास्त्री जी व जनरल चौधरी जनता में बेहद लोकप्रिय हो गए थे.पहली बार कोई युद्ध जीता गया था.युद्ध की समाप्ति पर कलकत्ता की जनसभा में शास्त्री जी ने जो कहा था उसमे से कुछ अब भी याद है.पडौसी भास्करानंद मित्रा साः ने अपना रेडियो बाहर रख लिया था ताकि सभी शास्त्री जी को सुन सकें.शास्त्री जी ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था.उन्होंने सप्ताह में एक दिन (उनका सुझाव सोमवार का था) एक समय अन्न त्यागने की जनता से अपील की थी.उन्होंने PL -४८० की अमरीकी सहायता को ठुकरा दिया था क्योंकि प्रेसीडेंट जानसन ने बेशर्मी से अय्यूब का नापाक साथ दिया था.चीनी आक्रमण के समय केनेडी से जो सहानुभूति थी वह पाक आक्रमण के समय जानसन के प्रति घृणा में बदल चुकी थी,हमारे घर शनिवार की शाम को रोटी चावल नहीं खाते थे.हल्का खाना खा कर शास्त्री जी के व्रत आदेश को माना जाने लगा था.शास्त्री जी ने अपने भाषण में यह भी बताया था की १९६२ युद्ध के बाद चीन से मुकाबले के लिए जो हथियार बने थे वे सब सुरक्षित हैं और चीन को भी मुहं तोड़ जवाब दे सकते हैं.जनता और सत्ता दोनों का मनोबल ऊंचा था.
मेरी कक्षा में बिप्रादास धर नामक एक साथी के पिता कलकत्ता में फ़ौज के J C O थे.एक बेंच पर हमारे पास ही वह भी बैठता था.उसके साथ सम्बन्ध मधुर थे.जिन किताबों की किल्लत सिलीगुड़ी में थी वह अपने पिता जी से कलकत्ता से मंगवा लेता था.हिन्दी निबंध की पुस्तक उससे लेकर तीन-चार दिनों में मैंने दो कापियों पर पूरी उतार ली,देर रात तक लालटेन की रोशनी में भी लिख कर.उसके घर सेना का ''सैनिक समाचार'' साप्ताहिक पत्र आता था.वह मुझे भी पढने को देता था.उसमे से कुछ कविताएँ मुझे बेहद पसंद आयीं मैंने अपने पास लिख कर रख ली थीं।
सीमा मांग रही कुर्बानी

सीमा मांग रही कुर्बानी
भू माता की रक्षा  करने बढो वीर सेनानी
महाराणा छत्रपति शिवाजी बूटी अभय की पिला गये
भगत सिंह और वीर बोस राग अनोखा पिला गए
शत्रु सामने शीश झुकाना हमें बड़ों की सीख नहीं,
जिन्दे लाल चुने दीवार में मांगी सुत  की भी भीख  नहीं,
गुरुगोविंद से सुत कब दोगी बोलो धरा भवानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.

विकट समय में वीरों ने यहाँ अपना रक्त बहाया था
जब देश की खातिर अबलाओं ने भी अस्त्र उठाया था.
कण-कण में मिला हुआ है यहाँ एक मास के लालों का
अभी भी द्योतक जलियाना है देश से मिटने वालों का
वीरगति को प्राप्त हुई लक्ष्मी झांसी  वाली रानी,
सीमा मांग रही कुर्बानी.

अपनी आन पे मिटने को यह देश देश हमारा है
मर जायेंगे पर हटें नहीं यह तेरे बड़ों का नारा है
होशियार जोगिन्दर कुछ काम हमारे लिए छोड़ गए
दौलत,विक्रम मुहं शत्रु का मुख मोड़ गए.
जगन विश्व देखेगा कल जो तुम लिख रहे कहानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.

विक्रम साराभाई आदि परमाणु वैज्ञानिकों,होशियार सिंह,जोगिन्दर सिंह,दौलत सिंह आदि वीर सैन्य अधिकारियों को भी पूर्वजों के साथ स्मरण किया गया है.आज तो बहुत से लोगों को आज के बलिदानियों के नामों का पता भी नहीं होगा.

रूस नेहरु जी के समय से भारत का हितैषी रहा है लेकिन उसके प्रधान मंत्री M.Alexi kosigan भी नहीं चाहते थे कि शास्त्री जी लाहौर  को जीत लें उनका भी जानसन के साथ ही दबाव था कि युद्ध विराम किया जाए.अंतर्राष्ट्रीय दबाव पर शास्त्री जी ने युद्ध विराम की  बात मान ली और कोशिगन के बुलावे पर ताशकंद अय्यूब खान से समझौता करने गए.रेलवे के  एक उच्च अधिकारी ने जो ज्योतिष के अच्छे जानकार थे और बाद में जिन्होंने कमला नगर  आगरा में विवेकानंद स्कूल की स्थापना की शास्त्री जी को ताशकंद न जाने के लिए आगाह किया था.संत श्याम जी पराशर ने भी शास्त्री जी को न जाने को कहा था.परन्तु शास्त्री जी ने जो वचन दे दिया था उसे पूरा किया,समझौते में जीते गए इलाके पाकिस्तान को लौटाने का उन्हें काफी धक्का लगा या  जैसी अफवाह थी कुछ षड्यंत्र हुआ 10 जनवरी 1966 को ताशकंद में उनका निधन हो गया.11 जनवरी को उनके पार्थिव शरीर को लाया गया,अय्यूब खान दिल्ली हवाई अड्डे तक पहुंचाने आये थे.एक बार फिर  गुलजारी लाल नंदा ही कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे.वह बेहद सख्त और ईमानदार थे इसलिए उन्हें पूर्ण प्रधानमंत्री बनाने लायक नहीं समझा गया.  

नेहरु जी और शास्त्री जी के निधन के बाद 15 -15 दिन के लिए प्रधानमंत्री बनने वाले नंदा जी जहाँ सख्त थे वहीँ इतने सरल भी थे कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व दिल्ली के जिस फ़्लैट में वह रहते थे वहां कोई पहचानने वाला भी न था.एक बार फ़्लैट में धुआं भर गया और नंदा जी सीढ़ीयों पर बेहोश होकर गिर गए क्योंकि वह लिफ्ट से नहीं चलते थे.बड़ी मुश्किल से किसी ने पहचाना कि पूर्व प्रधानमंत्री लावारिस बेहोश पड़ा है तब उन्हें अस्पताल पहुंचाया और गुजरात में उनके पुत्र को सूचना दी जो अपने पिता को ले गए.सरकार की अपने पूर्व मुखिया के प्रति यह संवेदना उनकी ईमानदारी के कारण थी.

कामराज नाडार ने इंदिरा गांधी को चाहा और समय की नजाकत को देखते हुए वह प्रधानमंत्री बन गयीं.किन्तु गूंगी गुडिया मान कर उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने वाले कामराज आदि सिंडिकेट के सामने झुकीं नहीं.1967 के आम चुनाव आ गए,तब सारे देश में एक साथ चुनाव होते थे.उडीसा में किसी युवक के फेके पत्थर से इंदिरा जी की नाक चुटैल हो गयी.सिलीगुड़ी वह नाक पर बैंडेज कराये ही आयीं थीं.मैं और अजय नज़दीक से सुनने के लिए निकटतम दूरी वाली रो में खड़े हो गए.मंच14 फुट ऊंचा था.सभा की अध्यक्षता पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चन्द्र सेन ने की थी.  

इंदिरा जी के पूरे भाषण में से एक बात अभी भी याद है कि" जापानी लोग जरा सी भी चीज़ बर्बाद नहीं करते" हमें बखूबी सीखना चाहिए.आज जब कालोनी में एक रो से दूसरी रो तक स्कूटर,मोटरसाइकिल से लोगों को जाते देख कर या सड़क पर धुलती कारों में पानी की बर्बादी देख कर तो नहीं लगता की इंदिरा जी के भक्त भी उनकी बातों का पालन करते हैं जबकि शास्त्री जी की अपील का देशव्यापी प्रभाव पड़ा था.  
उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया था.संविद सरकारें बन गयीं थी.केंद्र में सिंडिकेट के प्रतिनिधि मोरार जी देसाई ने इंदिरा जी के विरूद्ध अपना दावा पेश कर दिया था.यदि चुनाव होता तो मोरारजी जीत जाते लेकिन इंदिरा जी ने उन्हें फुसला कर उप-प्रधानमंत्री बनने पर राजी कर लिया.

जाकिर हुसैन साःराष्ट्रपति और वी.वी.गिरी साः उप-राष्ट्रपति निर्वाचित हुए.''सैनिक समाचार''में कैकुबाद नामक कवि ने लिखा--

ख़त्म हो गए चुनाव सारे
अब व्यर्थ ये पोस्टर और नारे हैं
कोई चंदू..............................हैं,
तो कोई हजारे हैं.........

http://vidrohiswar.blogspot.in/2010/09/blog-post_24.html
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साभार गूगल


 ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
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Facebook Comments :
22 -08-2016 
22-08-2016 

Wednesday 4 May 2016

मेरठ कालेज में पढ़ाई क़े दौरान हुये अनुभव ------ विजय राजबली माथुर

*मेरठ /कानपुर डायगनल में प्रारम्भ सारे आन्दोलन विफल हुए चाहे वह १८५७ ई .की प्रथम क्रांति हो,सरदार पटेल का किसान आन्दोलन या फिर,भा .क .पा .की स्थापना क़े साथ चला आन्दोलन  हो.
**गोष्ठी क़े सभापति कामर्स क़े H .O .D .डा.एल .ए.खान ने अपने  भाषण मेरी सराहना करते हुये कहा था  :
"हम उस छात्र से सहमत हों या असहमत लेकिन मैं उसके साहस की सराहना करता हूँ कि,यह जानते हुये भी सारा माहौल बंगलादेश क़े पक्ष में है ,उसने विपक्ष में बोलने का फैसला किया ."
***राजशास्त्र परिषद् की एक गोष्ठी में एक बार एम.एस.सी.(फिजिक्स)की एक छात्रा ने बहुत तार्किक ढंग से भाग लिया था.प्रो.क़े.सी.गुप्ता का मत था कि,यदि यह गोष्ठी प्रतियोगी होती तो वह निश्चित ही प्रथम पुरस्कार प्राप्त करती.राजनीती क़े विषय पर नाक-भौं सिकोड़ने वालों क़े लिये यह दृष्टांत आँखें खोलने वाला है.
****पहले ही दिन प्रो. तारा चन्द्र माथुर ने प्रश्न उठा दिया -व्हाट इज साईंस?जब कोई नहीं बोला तो मैंने उनसे हिन्दी में जवाब देने की अनुमति लेकर बताया-"किसी भी विषय क़े नियमबद्ध एवं क्रमबद्ध अध्ययन को विज्ञान कहते हैं."वह बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि हिन्दी में उन्हें भी इतना नहीं पता था वैसे बिलकुल ठीक जवाब है. आज जब लोग मेरे ज्योतिष -विज्ञान कहने पर बिदकते हैं,तब प्रो. तारा चन्द्र माथुर का वह वक्तव्य बहुत याद आता है.
*****प्रो. इंदु ने कहा कि, वे सब साथी प्रो. झेंप गये और बोले भाभी जी इतना अच्छा माड़ बनाती हैं तभी बच्चे झगड़ रहे थे. उनका यह सब बताने का आशय था किसी भी घर की इज्जत उस घर की महिला क़े हाथों में है.


१९६९ में मैंने इन्टर की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी.बहुत तडके अखबार वाला .५० पै.लेकर रिज़ल्ट दिखा गया था.परन्तु हाई स्कूल की परीक्षा छोटा भाई उत्तीर्ण न कर सका उसे फिर उसी कक्षा व कालेज में दाखिला लेना पड़ा जबकि,बाबूजी ने मुझे मेरठ कालेज में बी .ए .में दाखिला करा लेने को कहा और मैंने वैसा ही किया.उस समय वहां क़े प्रधानाचार्य वी.पुरी सा :थे जो बाद में अपनी यूनियन का पदाधिकारी चुने जाने क़े बाद त्याग-पत्र दे गये.फिलासफी क़े एच .ओ .डी .डा .बी.भट्टाचार्य कार्यवाहक प्रधानाचार्य बने जिनके विरुद्ध उन्हीं क़े कुछ साथियों ने छात्र नेताओं को उकसा कर आन्दोलन करवा दिया.डी.एम्.ऋषिकेश कौल सा :कालेज कमेटी क़े पदेन अध्यक्ष थे और उनका वरद हस्त डा.भट्टाचार्य को प्राप्त था.नतीजतन एक माह हमारा कालेज पी.ए.सी.का कैम्प बना रहा और शिक्षण कार्य ठप्प रहा.रोज़ यू .पी.पुलिस मुर्दाबाद क़े नारे लगते रहे और पुलिस वाले सुनते रहे.
एक छात्र ने स्याही की दवात  डा .भट्टाचार्य पर उड़ेल  दी और उनका धोती-कुर्ता रंग गया ,उन्हें घर जाकर कपडे बदलने पड़े.समाजशास्त्र की कक्षा में हमारा एक साथी सुभाष चन्द्र शर्मा प्रधानाचार्य कार्यालय का ताला तोड़ कर जबरिया प्रधानाचार्य बन गया था और उसने डा.भट्टाचार्य समेत कई कर्मचारियों -शिक्षकों की बर्खास्तगी का आदेश जारी कर दिया था.उसे गिरफ्तार कर लिया गया और बहुत दिन तक उसकी मुकदमें में पेशी होती रही;वैसे कालेज क़े सामने कचहरी प्रांगण में ही उसका ढाबा भी चलता था.सुनते थे कि,वह पंद्रह दिन संसोपा में और पंद्रह दिन जनसंघ में रह कर नेतागिरी करता था.पढ़ाई से उसे ख़ास मतलब नहीं था डिग्री लेने और नेतागिरी करने क़े लिए वह कालेज में छात्र बना था.हमारे साथ एन.सी.सी.की परेड में भी वह कभी -कभी भाग ले लेता था,सब कुछ उसकी अपनी मर्जी पर था.पिछले वर्षों तक कालेज यूनियन क़े प्रेसीडेंट रहे सतपाल मलिक (जो भारतीय क्रांति दल,इंदिरा कांग्रेस ,जन-मोर्चा,जनता दल होते हुए अब भाजपा में हैं और वी.पी.सिंह सरकार में उप-मंत्री भी रह चुके) को डा.भट्टाचार्य ने कालेज से निष्कासित कर दिया और उनके विरुद्ध डी.एम.से इजेक्शन नोटिस जारी करा दिया.

नतीजतन सतपाल मलिक यूनियन क़े चुनावों से बाहर हो गयेऔर उनके साथ उपाद्यक्ष रहे राजेन्द्र सिंह यादव (जो बाद में वहीं अध्यापक भी बने) और महामंत्री रहे तेजपाल सिंह क्रमशः समाजवादी युवजन सभा तथा भा.क्र.द .क़े समर्थन से एक -दूसरे क़े विरुद्ध अध्यक्ष पद क़े उम्मीदवार बन बैठे.बाज़ी कांग्रेस समर्थित महावीर प्रसाद जैन क़े हाथ लग गई और वह प्रेसिडेंट बन गये.महामंत्री पद पर विनोद गौड (श्री स.ध.इ.कालेज क़े अध्यापक लक्ष्मीकांत गौड क़े पुत्र थे और जिन्हें ए.बी.वी.पी.का समर्थन था)चुने गये.यह एम्.पी.जैन क़े लिए विकट स्थिति थी और मजबूरी भी लेकिन प्राचार्य महोदय बहुत खुश हुए कि,दो प्रमुख पदाधिकारी दो विपरीत धाराओं क़े होने क़े कारण एकमत नहीं हो सकेंगे.लेकिन मुख्यमंत्री चौ.चरण सिंह ने छात्र संघों की सदस्यता को ऐच्छिक बना कर सारे छात्र नेताओं को आन्दोलन क़े एक मंच पर खड़ा कर दिया.

ताला पड़े यूनियन आफिस क़े सामने कालेज क़े अन्दर १९७० में जो सभा हुई उसमें पूर्व महामंत्री विनोद गौड ने दीवार पर चढ़ काला झंडा फहराया और पूर्व प्रेसीडेंट महावीर प्रसाद जैन ने उन्हें उतरने पर गले लगाया तो सतपाल मलिक जी ने पीठ थपथपाई और राजेन्द्र सिंह यादव ने हाथ मिलाया.इस सभा में सतपाल मलिक जी ने जो भाषण दिया उसकी ख़ास -ख़ास बातें ज्यों की त्यों याद हैं (कहीं किसी रणनीति क़े तहत वही कोई खण्डन न कर दें ).सतपाल मलिक जी ने आगरा और बलिया क़े छात्रों को ललकारते हुए,रघुवीर सहाय फिराक गोरखपुरी क़े हवाले से कहा था कि,उ .प्र .में आगरा /बलिया डायगनल में जितने आन्दोलन हुए सारे प्रदेश में सफल होकर पूरे देश में छा  गये और उनका व्यापक प्रभाव पड़ा.(श्री मलिक द्वारा दी  यह सूचना ही मुझे आगरा में बसने क़े लिए प्रेरित कर गई थी ).मेरठ /कानपुर डायगनल में प्रारम्भ सारे आन्दोलन विफल हुए चाहे वह १८५७ ई .की प्रथम क्रांति हो,सरदार पटेल का किसान आन्दोलन या फिर,भा .क .पा .की स्थापना क़े साथ चला आन्दोलन  हो.श्री मलिक चाहते थे कि आगरा क़े छात्र मेरठ क़े छात्रों का पूरा समर्थन करें.श्री मलिक ने यह भी कहा था कि,वह चौ.चरण सिंह का सम्मान  करते हैं,उनके कारखानों से चौ.सा :को पर्याप्त चन्दा दिया जाता है लेकिन अगर चौ.सा : छात्र संघों की अनिवार्य सदस्यता बहाल किये बगैर मेरठ आयेंगे तो उन्हें चप्पलों की माला पहनने वाले श्री मलिक पहले सदस्य होंगें.चौ.सा :वास्तव में अपना फैसला सही करने क़े बाद ही मेरठ पधारे भी थे और बाद में श्री सतपाल मलिक चौ. सा : की पार्टी से बागपत क्षेत्र क़े विधायक भी बने और इमरजेंसी में चौ. सा :क़े जेल जाने पर चार अन्य भा.क्र.द.विधायक लेकर इंका.में शामिल हुए.

जब भारत का एक हवाई जहाज लाहौर अपहरण कर ले जाकर फूंक दिया गया था तो हमारे कालेज में छात्रों व शिक्षकों की एक सभा हुई जिसमें प्रधानाचार्य -भट्टाचार्य सा :व सतपाल मलिक सा :अगल -बगल खड़े थे.मलिक जी ने प्रारंभिक भाषण में कहा कि,वह भट्टाचार्य जी का बहुत आदर करते हैं पर उन्होंने उन्हें अपने शिष्य लायक नहीं समझा.जुलूस में भी दोनों साथ चले थे जो पाकिस्तान सरकार क़े विरोध में था.राष्ट्रीय मुद्दों पर हमारे यहाँ ऐसी ही एकता हमेशा रहती है,वरना अपने निष्कासन पर मलिक जी ने कहा था -इस नालायक प्रधानाचार्य ने मुझे नाजायज तरीके से निकाल  दिया है अब हम भी उन्हें हटा कर ही दम लेंगें.बहुत बाद में भट्टाचार्य जी ने तब त्याग -पत्र दिया जब उनकी पुत्री वंदना भट्टाचार्य को फिलासफी में लेक्चरार नियुक्त कर लिया गया.

समाज-शास्त्र परिषद् की तरफ से बंगलादेश आन्दोलन पर एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था.उसमें समस्त छात्रों व शिक्षकों ने बंगलादेश की निर्वासित सरकार को मान्यता देने की मांग का समर्थन किया.सिर्फ एकमात्र वक्ता मैं ही था जिसने बंगलादेश की उस सरकार को मान्यता देने का विरोध किया था और उद्धरण डा.लोहिया की पुस्तक "इतिहास-चक्र "से लिए थे (यह पुस्तक एक गोष्ठी में द्वितीय पुरूस्कार क़े रूप में प्राप्त हुई थी ).मैंने कहा था कि,बंगलादेश हमारे लिए बफर स्टेट नहीं हो सकता और बाद में जिस प्रकार कुछ समय को छोड़ कर बंगलादेश की सरकारों ने हमारे देश क़े साथ व्यवहार किया मैं समझता हूँ कि,मैं गलत नहीं था.परन्तु मेरे बाद क़े सभी वक्ताओं चाहे छात्र थे या शिक्षक मेरे भाषण को उद्धृत करके मेरे विरुद्ध आलोचनात्मक बोले.विभागाध्यक्ष डा.आर .एस.यादव (मेरे भाषण क़े बीच में हाल में प्रविष्ट हुए थे) ने आधा भाषण मेरे वक्तव्य क़े विरुद्ध ही दिया.तत्कालीन छात्र नेता आर.एस.यादव भी दोबारा भाषण देकर मेरे विरुद्ध बोलना चाहते थे पर उन्हें दोबारा अनुमति नहीं मिली थी.गोष्ठी क़े सभापति कामर्स क़े H .O .D .डा.एल .ए.खान ने अपने  भाषण मेरी सराहना करते हुये कहा था  :
"हम उस छात्र से सहमत हों या असहमत लेकिन मैं उसके साहस की सराहना करता हूँ कि,यह जानते हुये भी सारा माहौल बंगलादेश क़े पक्ष में है ,उसने विपक्ष में बोलने का फैसला किया ."और उन्होंने मुझसे इस साहस को बनाये रखने की उम्मीद भी ज़ाहिर की थी.

मेरे लिए फख्र की बात थी की सिर्फ मुझे ही अध्यक्षीय भाषण में स्थान मिला था किसी अन्य वक्ता को नहीं.इस गोष्ठी क़े बाद राजेन्द्र सिंह जी ने एक बार जब सतपाल मलिक जी कालेज आये थे मेरी बात उनसे कही तो मलिक जी ने मुझसे कहा कि,वैसे तो तुमने जो कहा था -वह सही नहीं है,लेकिन अपनी बात ज़ोरदार ढंग से रखी ,उसकी उन्हें खुशी है.

चूंकि राजनीति में मेरी शुरू से ही दिलचस्पी रही है,इसलिए राज-शास्त्र परिषद् की ज्यादातर गोष्ठियों में मैंने भाग लिया.समाज-शास्त्र परिषद् की जिस गोष्ठी का ज़िक्र पहले किया है -वह भी राजनीतिक विषय पर ही थी.राजशास्त्र परिषद् की एक गोष्ठी में एक बार एम.एस.सी.(फिजिक्स)की एक छात्रा ने बहुत तार्किक ढंग से भाग लिया था.प्रो.क़े.सी.गुप्ता का मत था कि,यदि यह गोष्ठी प्रतियोगी होती तो वह निश्चित ही प्रथम पुरस्कार प्राप्त करती.राजनीती क़े विषय पर नाक-भौं सिकोड़ने वालों क़े लिये यह दृष्टांत आँखें खोलने वाला है.प्रो.मित्तल कम्युनिस्ट  थे,उन्होंने" गांधीवाद और साम्यवाद " विषय पर अपने विचार व्यक्त किये थे.उनके भाषण क़े बाद मैंने भी बोलने की इच्छा व्यक्त की ,मुझे ५ मि.बोलने की अनुमति मिल गई थी किन्तु राजेन्द्र सिंह यादव छात्र -नेता ने भी अपना नाम पेश कर दिया तो प्रो.गुप्ता ने कहा कि फिर सभी छात्रों  हेतु अलग से एक गोष्ठी रखेंगे.१० अप्रैल १९७१ से हमारे फोर्थ सेमेस्टर की परीक्षाएं थीं,इसलिए मैंने नाम नहीं दिया था.प्रो.आर.क़े.भाटिया ने अपनी ओर से मेरा नाम गोष्ठी क़े लिये शामिल कर लिया था,वह मुझे ४ ता.को मिल पाये एवं गोष्ठी ६ को थी.अतः मैंने उनसे भाग लेने में असमर्थता व्यक्त की.वह बोले कि,वह कालेज छोड़ रहे हैं इसलिए मैं उनके सामने इस गोष्ठी में ज़रूर भाग लूं.वस्तुतः उनका आई.ए.एस.में सिलेक्शन हो गया था.वह काफी कुशाग्र थे.लखनऊ विश्विद्यालय में प्रथम आने पर उन्हें मेरठ-कालेज में प्रवक्ता पद स्वतः प्राप्त हो गया था.उनकी इज्ज़त की खातिर मैंने लस्टम-पस्टम तैयारी की.विषय था "भारत में साम्यवाद की संभावनाएं"और यह प्रो. गुप्ता क़े वायदे अनुसार हो रही गोष्ठी थी. अध्यक्षता प्राचार्य डा. परमात्मा शरण सा :को करनी थी. वह कांग्रेस (ओ )में सक्रिय थे उस दिन उसी समय उसकी भी बैठक लग गई.अतः वह वहां चले गये,अध्यक्षता की-प्रो. मित्तल ने.मैंने विपक्ष में तैयारी की थीऔर उसी अनुसार बोला भी.मेरा पहला वाक्य था-आज साम्यवाद की काली- काली घटायें छाई हुई हैं.मेरा मुंह तो आडियेंस की तरफ था लेकिन साथियों ने बताया कि,प्रो. मित्तल काफी गुस्से में भर गये थे.नीचे जो चार पुस्तकें आप देख रहे हैं ,वे मुझे इसी गोष्ठी में द्वितीय  पुरूस्कार क़े रूप में प्राप्त हुई थीं.प्रथम पुरस्कार प्रमोद सिंह चौहान को "दास कैपिटल"मिली थी.वह मेरे ही सेक्शन में था और मैंने भी यूनियन में एम.पी. हेतु अपना वोट उसे ही दिया था.बाद में प्रो. भाटिया ने बताया था कि,उन्होंने तथा प्रो. गुप्ता ने मुझे ९-९ अंक दिये थे,प्रो. मित्तल ने शून्य दिया अन्यथा प्रथम पुरुस्कार मुझे मिल जाता क्योंकि प्रमोद को प्रो. भाटिया तथा प्रो. गुप्ता ने ५-५ अंक व प्रो. मित्तल ने पूरे क़े पूरे १० अंक दिये थे.
7वीं कक्षा में शाहजहाँपुर में प्राप्त 







कालांतर में (१९८६)मुझे कम्युनिस्ट आन्दोलन में सक्रिय रूप से शामिल होना पड़ा. १५ वर्षों में कितना अन्तर हो गया था.मैन इज दी प्रोडक्ट आफ हिज एन्वायरन्मेंट तो मैं कैसे बच सकता था.बहरहाल मेरठ विश्वविद्यालय में हम लोगों को एक एडीशनल आप्शनल सब्जेक्ट पढना होता था जो अपनी फैकल्टी का न हो.प्रथम सेमेस्टर में "धर्म और संस्कृति"सब क़े लिये अनिवार्य था. सेकिंड सेमेस्टर में मैंने "एवरी डे केमिस्ट्री"ले ली थी. आर्ट्स व कामर्स क़े ज्यादातर विद्यार्थी हाजिरी लगा कर भाग जाते थे,इसलिए पीछे बैठते थे. मेरे जैसे ४ -५ क्षात्र नियमित रूप से पहली रो में बैठते थे. पहले ही दिन प्रो. तारा चन्द्र माथुर ने प्रश्न उठा दिया -व्हाट इज साईंस?जब कोई नहीं बोला तो मैंने उनसे हिन्दी में जवाब देने की अनुमति लेकर बताया-"किसी भी विषय क़े नियमबद्ध एवं क्रमबद्ध अध्ययन को विज्ञान कहते हैं."वह बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि हिन्दी में उन्हें भी इतना नहीं पता था वैसे बिलकुल ठीक जवाब है. आज जब लोग मेरे ज्योतिष -विज्ञान कहने पर बिदकते हैं,तब प्रो. तारा चन्द्र माथुर का वह वक्तव्य बहुत याद आता है.
तीसरे और चौथे सेमेस्टर में "कार्यालय पद्धति" ले लिया ताकि हिन्दी पढ़ कर छुट्टी मिल जाये.इसके एक प्रो. विष्णु शरण इंदु का आज भी ध्यान है क्योंकि वह बहुत अच्छा पढ़ाते थे.प्रो.रघुवीर शरण मित्र लिखित "भूमिजा" वह काफी तन्मयता से पढ़ाते थे.मेरा लेख" सीता का विदोह " उसी पढ़ाई पर आधारित है.(रावण वध एक पूर्व निर्धारित योजना जिसकी किश्तें  तथा बाद में पूर्ण  लेख भी क्रान्ति स्वर पर  प्रकाशित हैं सर्व प्रथम सूक्ष्म रूप में मेरठ कॉलेज की मैगजीन में ही छपा था.)प्रो. इंदु एक रोज परिवार में महिलाओं की भूमिका पर बताने लगे उन्होंने अपने एक साथी प्रो. सा :क़े घर का  वाक्या बगैर उनका नाम बताये सुनाया.जब वह तथा ४-५ प्रो. लोग उनके घर बिन बुलाये पहुँच गये क्योंकि,वह किसी को बुलाते ही नहीं थे न कहीं जाते थे. उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए.प्रो. इंदु ने बताया कि, वे सब यह सुन कर हैरान रह गये कि उन प्रो. सा :क़े बच्चे चावल क़े माड़ क़े लिये झगड़ रहे थे. प्रो. सा :ने उस कमरे में जाकर अपनी पत्नी को कहा -मेरे साथियों क़े बीच आज बहुत बड़ी जलालत हो गई. उनकी पत्नी ने कहा कुछ नहीं हुआ आप जाईये मैं आकर सँभाल लेती हूँ. आधे घंटे बाद वह ६ कप माड़ लेकर आईं उनमे काजू-बादाम जैसे मेवे पड़े हुये थे. प्रो. इंदु ने कहा कि, वे सब साथी प्रो. झेंप गये और बोले भाभी जी इतना अच्छा माड़ बनाती हैं तभी बच्चे झगड़ रहे थे. उनका यह सब बताने का आशय था किसी भी घर की इज्जत उस घर की महिला क़े हाथों में है.

हमारे मेरठ कालेज क़े कन्वोकेशन में राज्यपाल डा. बी. गोपाला रेड्डी आये थे. राजेन्द्र कुमार अटल क़े नेतृत्व में छात्रों  ने गाउन का विरोध किया. मैं भी गाउन क़े पछ में नहीं था. बाद में उसे आप्शनल बना दिया गया. बिना गाउन क़े मैंने भी डिग्री हासिल की.मेरे सामने ही पोलिटिकल साईंस एसोसियेशन की नेशनल कान्फरेन्स भी हमारे कालेज में हुई थी. प्रो.हालू दस्तूर आदि तमाम विद्वान् तो आये ही थे,संगठन कांग्रेस क़े( पूर्व उप-प्रधान मंत्री )मोरारजी देसाई तथा कांग्रेस (आर.)क़े केशव देव मालवीय भी आये थे. दोनों में नोक-झोंक भी चली थी. मालवीय क़े भाषण क़े दौरान मोरारजी ने "हाँ पीपुल्स डेमोक्रेसी" शब्द से टोका-टाकी भी की थी.

कुल मिला कर मेरठ कालेज में पढ़ाई क़े दौरान काफी अनुभव भी हुए.चौ.चरण सिंह जो इसी कालेज से पढ़े थे देश क़े प्रधान मंत्री भी बने.उ.प्र.क़े मुख्य मंत्री भी वह हुए.यहीं क़े सत पाल मलिक भी केन्द्रीय मंत्री रह चुके हैं.मैं फख्र कर सकता हूँ कि, मैं भी इसी कालेज का  छात्र  रहा हूँ. मैंने आगे न पढने का निर्णय किया था. नौकरी मिलना भी आसान न था. 

Friday 29 April 2016

न्याय-प्रणाली को बदलने वाला दिमाग ? ------ विजय राजबली माथुर

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010
शाहजहांपुर द्वितीय चरण (प्रथम भाग )
शाम तक हम लोग शाहजहांपुर पहुंच गए थे .लखनऊ छोटी लाईन के उस देवदूत समान कुली ने समान इस प्रकार रखवा दिया था कि ,शाहजहापुर में कुली को कोई दिक्कत नहीं हुई .स्टेशन के पास ही नानाजी का घर था ,आधे घंटे के भीतर हम लोग वहां पहुँच गए .सितम्बर का महीना था और बाबूजी का वहां का ट्रान्सफर आर्डर नहीं था लिहाजा हम तीनो बहन भाइयों के दाखिले में एक बार फिर दिक्कत थी.सिलीगुड़ी जाने से पहले जिस स्कूल में पढ़े थे वह आठवीं तक ही था .नानाजी ने अपने परिचित माथुर साहब जो सरदार पटेल हिन्दू इंटर कालेज के वाईस प्रिंसिपल थे ,से बात की थी .लेकिन अगले दिन वह प्रिंसिपल टंडन जी के पास पहुंचा कर अपने कर्त्तव्य की इति श्री कर लिए .टंडन जी ने बिना ट्रान्सफर आर्डर के दाखिले से इनकार कर दिया ;वही  समस्या आर्डिनेंस फेक्टरी के कालेज में थी .किसी की सलाह पर नानाजी गांधी फेजाम कालेज के प्रिंसिपल चौधरी मोहम्मद वसी साहब  से मिले .वसी साहब ने मधुर शब्दों में नानाजी का अभिवादन करके कहा कालेज आप ही का है आप शौक से दाखिला करा दीजिये .इस प्रकार मेरा इंटर फर्स्ट इयर में दाखिला हो गया .अजय का मिशन हाई स्कूल (जिसमे कभी क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल भी पढ़े थे )और शोभा का दाखिला आर्य कन्या पाठशाला में हो गया .

 हमारे जी .ऍफ़ .कालेज में बी .ए .के साथ इंटर की पढ़ाई उस समय होती थी (अब वह केवल डिग्री कालेज है और इंटर सेक्शन इस्लामिया कालेज में चला गया है ).उ .प्र .में चौ .चरण सिंह की संविद सरकार ने अंगरेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया था .लखनऊ से भुआ ने मुझे पत्र लिखा था कि ,"यह सरकार बच्चों को कुबड़डा बनाने पर तुली है ,तुम अंगरेजी जरूर लेना ".मै अंगरेजी में कमजोर था और नहीं लेना चाहता था .तब तक कालेज में सर्कुलर का इन्तजार था ,मैंने किताब नहीं खरीदी थी .किताब की शाहजहांपुर में किल्लत भी थी .प्रो .मोहिनी मोहन सक्सेना ने बरेली से मगाने  का प्रबंध किया था  ;समय बीतने के बाद उन्होंने सब की किताबें चेक करने को कहा था .मैंने उन्ही के रिश्तेदार जो वहां टी .ओ .थे के पुत्र जो मेरे क्लास में था से पुस्तक लेकर सारी रात टेबल लैम्प जला कर कापी में नक़ल उतार ली और अगले दिन कालेज ले गया .जब प्रो .सक्सेना ने मुझ से किताब दिखाने को कहा तो मैंने वही नक़ल दिखा दी .बोले ऐसा क्यों ?मैंने  जवाब दिया चूंकि मुझे अंग्रेजी छोड़ना है ,इसलिए किताब नहीं खरीदी -आपको दिखाना था इसलिए गिरिधर गोपाल की किताब से नक़ल बना ली है .प्रो .साहब इस बात से बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि जब तुमने अग्रेजी के लिए इतनी मेहनत की है तो मेरी ख़ुशी के लिए तुम अंगरेजी को एडिशनल आप्शनल के रूप में जरूर लेना ,जिस से मेरा -तुम्हारा संपर्क बना रहे .इस प्रकार मैंने अंगरेजी को एडिशनल आप्शनल ले लिया .प्रो . सक्सेना बहुत अच्छी तरह पढ़ाते थे ,उनसे क्लास में संपर्क बनाये रखने में ख़ुशी ही हुई .


अंगरेजी के एक चैप्टर में पढ़ाते हुए प्रो . सक्सेना ने बड़े मार्मिक ढंग से कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी के लेख को समझाया जिसमे उन्होंने (तब वह भारत के शिक्षा मंत्री थे )ब्रिटिश कौसिल इन इंडिया का उद्घाटन करते हुए कहा था ---यहाँ मै एक साहित्यकार की हैसियत से आया हूँ ,एक राजनीतिग्य की हैसियत से नहीं क्योंकि यदि एक 

राजनीतिग्य कहता है ---हाँ तो समझो शायद ,और यदि वह कहे शायद तो समझो नहीं और नहीं तो वह कहता ही नहीं .

हमारे इतिहास के प्रो .माशूक अली साहब नगर पालिका के चेयरमैन रहे छोटे खां सा .के परिवार से थे .उनका लकड़ी का व्यवसाय था वह तब केवल -रिक्शा और कालेज में खाए पान का खर्च मात्र १५० रु .आन्रेरियम लेते थे .हमारे नानाजी के एक भाई स्व .हरीश चन्द्र माथुर के वह सहपाठी रहे थे .जब उन्हें यह बताया तो बहुत खुश हुए और यदा -कदा मुझसे कहते थे अपने नानाजी को मेरा सलाम कह देना .इसी प्रकार बम्बई वाले नानाजी (नानाजी के वह भाई बम्बई में सर्विस काल में रहे थे)भी प्रो .सा .को अपना आदाब कहलाते थे .
नागरिक -शास्त्र के प्रो .आर .के .इस्लाम सा .तथा अर्थ शास्त्र के प्रो .सा .(नाम अब याद नहीं है )भी अच्छा पढ़ाते थे ,इन दोनों का चयन अलीगढ मुस्लिम यूंनिवर्सिटी  में हो गया था .

इस्लाम सा .ने सर सैय्यद अहमद खां के बारे में बताते हुए उनके पुत्र सैय्यद महमूद जो बड़े वकील थे ,कभी केस हारे नहीं थे का उल्लेख किया था जो बहुत दिलचस्प है .:: पंजाब के किसी राज -परिवार के सदस्य को फांसी की सजा हो गयी थी उसे बचाने के लिए उन्हें महमूद सा . का नाम सुझाया गया था .जब वे लोग उनके पास पहुंचे तब उनके पीने का दौर चल रहा था और ऐसे में वह किसी से मिलते नहीं थे .बड़ी अनुनय -विनय करने पर उन्होंने सिख राज-परिवार के लोगों को बुलाया तथा काफी फटकार लगाई कि अब उनके पास क्यों आये ,अपने वकील से जाकर लड़ें जो अपील भी हार गया ,अब तो फांसी लगने दो .बड़ी खुशामद किये जाने पर उन्होंने कहा उनका कहा सब मानना होगा ,किसी के बहकावे में नहीं आना होगा .जब उनकी सभी शर्तें मान ली गयीं तब उन्होंने जिन्दगी बचाने की गारंटी दी और कोई अपील या केस नहीं किया .

फांसी का दिन आ गया ,घबराए परिवारीजनो से उन्होंने जेल पहुचने को कहा .खुद एन वक्त पर पहुंचे .फांसी का फंदा भी पड़ गया ,रोते लोगों को उन्होंने कहा उसे कुछ नहीं होगा ,इतने में  फंदा खींचने का हुक्म हो गया .फंदा खींच दिया गया उसी क्षण महमूद सा .ने तेज गुप्ती से फांसी का रस्सा काट दिया ,रस्सा गले में पड़ा -२ वह मुलजिम गढ़े में जिन्दा गिर गया .उसे उठाया गया लेकिन महमूद सा . ने कहा एक बार "हैंग "हो चुका दोबारा हैंग नहीं किया जा सकता .महमूद सा . के खिलाफ सरकारी काम में बाधा डालने का मुकदमा चला जिसे वह जीत गए उन्होंने सिद्ध किया कि वकील के नाते उनका काम मुवक्किल को बचाना था उन्होंने बचा लिया .सरकारी काम में बाधा नहीं डाली क्योकि फांसी का फदा बाकायदा खींचा गया था .उन्होंने जजमेंट में खामी बताई कि टिळ डेथ नहीं लिखा था इसलिए दोबारा फांसी पर नहीं चढ़ाया जा सकता .वह यह मुकदमा भी जीते.लेकिन उसके बाद से फैसलों में लिखा जाने लगा -"हेंग टिळ डेथ ".इस वाकये ने न्याय  प्रणाली को बदल दिया था जो कि महमूद सा . के दिमाग का खेल था .


प्रांतीय शिक्षा दल के इंस्ट्रक्टर गफूर सा .भी अच्छे व्यवहार के धनी थे .हमारी एक मौसी (बऊआ की चचेरी बहन ,अब दिवंगत ) जो मुझ से ४ वर्ष बड़ी थीं और बी .ए .फाइनल में थीं को फीस में १० रु .कम पड़ गए थे ,एक्जाम चल रहे थे .गफूर सा .ने अपनी जेब से १० रु . देकर मदद की .मौसी की अगले दिन परीक्षा नहीं थी ,मुझे रु .देकर गफूर सा .को वापिस करने को कहा और निर्देश दिया कि लता दीदी बताना ,मौसी नहीं ,उनके हुक्म का वैसे ही पालन किया परन्तु मा की बहन को अपनी बहन बताना अजीब लगा .


एक बार नानाजी छोटे भाई को ३ - ४ रोज से साईकल चलाना सिखा रहे थे .कैंची पर उसे चलाना आ गया था .कालोनी के एक वयोवृद्ध सज्जन श्री श्रीराम जिन्हें नानाजी समेत सभी लोग आदर से बाबूजी कहते थे ,मुझसे बोले छोटा भाई तुम से पहले साईकल सीख जायेगा .उन्होंने कहा कि तुम्हारे नानाजी तो अजय को अभी और कई दिन कैंची चलवाएंगे तुम दूसरी साईकल लेकर आओ और मेरे तरीके से चलाओ आज और अभी सीख जाओगे .मैंने बउआ से पूंछ कर अपने बाबूजी वाली पुरानी साईकल उठाई और बाबू श्रीराम के फार्मूले से रेलवे ओवर ब्रिज तक साईकल पैदल ले गया और ढलान की ओर रुक कर गद्दी पर बैठ कर हैंडल साध लिए .३ -४ बार में संतुलन कायम हो गया .कई बार पुल के दोनों ओर ढलान पर ठीक से साईकल चला ले पाने पर मै गद्दी पर बैठ कर ही घर आया .नानाजी परेशान  थे कि कहीं मै हड्डी -पसली न तुडवा कर लौटूं श्रीराम उन्हें संतुष्ट कर रहे थे और मुझे देख कर नानाजी से बोले देखिये डा . सा .मेरी  शिक्षा सफल  रही .बहरहाल तगड़ा जोखिम लेकर मै एक -डेढ़ घंटे में ही साईकल चलाना तब सीख गया था आज कहीं भी किसी भी ब्रिज पर चढ़ते -उतरते साईकल क्या कोई भी वाहन चलाना काफी जोखिम भरा काम हो गया है .आज लोग काफी लापरवाह  और स्वार्थी हो गए हैं ---यह भी विकास की ही एक कड़ी है .l
http://vidrohiswar.blogspot.in/2010/10/blog-post_19.html

Saturday 24 October 2015

ईमान व स्वाभिमान का प्रतीक : ताजराज बली माथुर ------ विजय राजबली माथुर


**जन्मदिन 24 अक्तूबर पर एक स्मरण बाबूजी का :
(ताज राजबली माथुर : जन्म 24 -10-1919 मृत्यु 13-06-1995 )
हमारे बाबूजी का जन्म 24-10-1919 को दरियाबाद, बाराबंकी में हुआ था और मृत्यु 13-06-1995 को आगरा में । बाबूजी जब चार वर्ष के ही थे तभी दादी जी नहीं रहीं और उनकी देख-रेख तब उनकी भुआ ने की थी। इसीलिए जब बाबूजी को बाबाजी ने जब पढ़ने के लिए काली चरण हाई स्कूल, लखनऊ भेजा तो वह कुछ समय अपनी भुआ के यहाँ व कुछ समय स्कूल हास्टल में रहे। 

भीखा लाल जी उनके सहपाठी और  कमरे के साथी भी थे। जैसा बाबूजी बताया करते थे-टेनिस के खेल में स्व.अमृत लाल नागर जी ओल्ड ब्वायज असोसियेशन की तरफ से खेलते थे और बाबूजी उस समय की स्कूल टीम की तरफ से। स्व.ठाकुर राम पाल सिंह जी भी बाबूजी के खेल के साथी थे। बाद में जहाँ बाकी लोग अपने-अपने क्षेत्र के नामी लोगों में शुमार हुए ,हमारे बाबूजी 1939-45  के द्वितीय  विश्व-युद्ध में भारतीय फ़ौज की तरफ से शामिल हुए। 

अमृत लाल नागर जी हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हुए तो ठा.रामपाल सिंह जी नवभारत टाइम्स ,भोपाल के सम्पादक। भीखा  लाल जी पहले पी.सी एस. की मार्फ़त तहसीलदार हुए ,लेकिन स्तीफा देके भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए और प्रदेश सचिव भी रहे। बाबूजी को लगता था  जब ये सब बड़े लोग बन गए हैं तो उन्हें पहचानेंगे या नहीं ,इसलिए फिर उन सब से संपर्क नहीं किया। एक आन्दोलन में आगरा से मैं लखनऊ आया था तो का.भीखा  लाल जी से मिला था,उन्होंने बाबूजी का नाम सुनते ही कहा अब उनके बारे में हम बताएँगे तुम सुनो-उन्होंने वर्ष का उल्लेख करते हुए बताया कब तक दोनों साथ-साथ पढ़े और एक ही कमरे में भी रहे। उन्होंने कहा कि,वर्ल्ड वार में जाने तक की खबर उन्हें है उसके बाद बुलाने पर भी वह नहीं आये,खैर तुम्हें भेज दिया इसकी बड़ी खुशी है। बाद में बाबूजी ने स्वीकारोक्ति की कि, जब का.भीखा लाल जी विधायक थे तब भी उन्होंने बाबूजी को बुलवाया था परन्तु वह संकोच में नहीं मिले थे। 


बाबूजी के फुफेरे भाई साहब स्व.रामेश्वर दयाल माथुर जी के पुत्र कंचन ने (10  अप्रैल 2011  को मेरे घर आने पर) बताया कि ताउजी और बाबूजी  दोस्त भी थे तथा उनके निवाज गंज के और साथी थे-स्व.हरनाम सक्सेना जो दरोगा बने,स्व.देवकी प्रसाद सक्सेना,स्व.देवी शरण सक्सेना,स्व.देवी शंकर सक्सेना। इनमें से दरोगा जी को 1964  में रायपुर में बाबाजी से मिलने आने पर व्यक्तिगत रूप से देखा था बाकी की जानकारी पहली बार प्राप्त हुई थी । 



बाबू जी ने खेती कर पाने में विफल रहने पर पुनः नौकरी तलाशना शुरू कर दिया। उसी सिलसिले में इलाहाबाद जाकर लौट रहे थे तब उनकी कं.के पुराने यूनिट कमांडर जो तब लेफ्टिनेंट कर्नल बन चुके थे और लखनऊ में सी.डब्ल्यू.ई.की पोस्ट पर एम्.ई.एस.में थे उन्हें इलाहाबाद स्टेशन पर मिल गए। यह मालूम होने पर कि बाबूजी  पुनः नौकरी की तलाश में थे उन्हें अपने दफ्तर में बुलाया। बाद में बाबूजी जब उनसे मिले तो उन्होंने स्लिप देकर एम्प्लोयमेंट  एक्सचेंज भेजा जहाँ तत्काल बाबूजी का नाम रजिस्टर्ड करके फारवर्ड कर दिया गया और सी.डब्ल्यू ई. साहब ने अपने दफ्तर में उन्हें ज्वाइन करा दिया।  घरके लोगों ने ठुकराया तो बाहर के साहब ने रोजगार दिलाया। सात साल लखनऊ,डेढ़ साल बरेली,पांच साल सिलीगुड़ी,सात साल मेरठ,चार साल आगरा में कुल  चौबीस साल छः माह  दुबारा नौकरी करके 30  सितम्बर 1978  को बाबू जी रिटायर हुए.तब से मृत्यु पर्यंत (13  जून 1995 )तक मेरे पास बी-560  ,कमला नगर ,आगरा में रहे। बीच-बीच में अजय की बेटी होने के समय तथा एक बार और बउआ  के साथ फरीदाबाद कुछ माह रहे। 

कुल मिला कर बाबूजी का सम्पूर्ण जीवन संघर्ष और अभावों का रहा। लेकिन उन्होने कभी भी ईमान व स्वाभिमान को नहीं छोड़ा। मैं अपने  छोटे भाई-बहन की तो नहीं कह सकता परंतु मैंने तो उनके इन गुणों को आत्मसात कर रखा है जिनके परिणाम स्वरूप मेरा जीवन भी संघर्षों और अभावों में ही बीता है जिसका प्रभाव मेरी पत्नी व पुत्र  पर भी पड़ा है।चूंकि बाबूजी अपने सभी भाई-बहन में सबसे छोटे थे और बड़ों का आदर करते थे इसलिए अक्सर नुकसान भी उठाते थे। हमारी भुआ उनसे अनावश्यक दान-पुण्य करा देती थीं। अब उनकी जन्म-पत्री के विश्लेषण से ज्ञात हुआ है कि इससे भी उनको जीवन में भारी घाटा उठाना पड़ा है। उनकी जन्म-कुंडली में ब्रहस्पति 'कर्क' राशिस्थ है अर्थात 'उच्च' का है अतः उनको मंदिर या मंदिर के पुजारी को तो भूल कर भी 'दान' नहीं करना चाहिए था किन्तु कोई भी पोंगा-पंडित अधिक से अधिक दान करने को कहता है फिर उनको सही राह कौन दिखाता? वह बद्रीनाथ के दर्शन करने भी गए थे और जीवन भर उस मंदिर के लिए मनी आर्डर से रुपए भेजते रहे। इसी वजह से सदैव कष्ट में रहे। 1962 में वृन्दावन में बिहारी जी के दर्शन करके लौटने पर बरेली  के गोलाबाज़ार स्थित घर पहुँचने से पूर्व ही उनके एक साथी ने नान फेमिली स्टेशन 'सिलीगुड़ी' ट्रांसफर की सूचना दी। बीच सत्र में शाहजहांपुर में हम लोगों का दाखिला बड़ी मुश्किल से हुआ था।  

बाबूजी के निधन के बाद जो आर्यसमाजी पुरोहित शांति-हवन कराने आए थे उनके माध्यम से मैं आर्यसमाज, कमलानगर- बल्केश्वर, आगरा में शामिल हो गया था और कार्यकारिणी समिति में भी रहा। किन्तु ढोंग-पाखंड-आडंबर के विरुद्ध व्यापक संघर्ष चलाने वाले स्वामी दयानन्द जी के आर्यसमाज संगठन में आर एस एस वालों की घुसपैठ देखते हुये संगठन से बहुत शीघ्र ही अलग भी हो गया था परंतु  पूजा पद्धति के सिद्धान्त व नीतियाँ विज्ञान-सम्मत होने के कारण अपनाता हूँ।  

मेरे पाँच वर्ष की आयु से ही बाबूजी 'स्वतन्त्र भारत' प्रति रविवार को ले देते थे। बाद में बरेली व मेरठ में दफ्तर की क्लब से पुराने अखबार लाकर पढ़ने को देते थे जिनको उसी रोज़ रात तक पढ्ना  होता था क्योंकि अगले दिन वे वापिस करने होते थे,  पुराने मेगजीन्स जैसे धर्मयुग,हिंदुस्तान,सारिका,सरिता आदि पूरा पढ़ने तक रुक जाते थे फिर दूसरे सप्ताह के पुराने पढ़ने को ला देते थे। अखबार पढ़ते-पढ़ते अखबारों में लिखने की आदत पड़ गई थी। इस प्रकार कह सकता हूँ कि आज के मेरे लेखन की नींव तो बाबूजी द्वारा ही डाली हुई है। इसलिए जब कभी भूले-भटके कोई मेरे लेखन को सही बताता या सराहना करता है तो मुझे लगता है इसका श्रेय तो बाबूजी  को जाता है क्योंकि यह तो उनकी 'दूरदर्शिता' थी जो उन्होने मुझे पढ़ने-लिखने का शौकीन बना दिया था। आज उनको यह संसार छोड़े हुये बीस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं परंतु उनके विचार और सिद्धान्त आज भी मेरा 'संबल' बने हुये हैं।  
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Wednesday 23 September 2015

भारत पाक संघर्ष : १९६५ की लड़ाई ------ विजय राजबली माथुर

भारत पाक संघर्ष : पचास वर्ष  पूर्ण होने पर पुनः स्मरण ---

( अपनी आंतरिक राजनीतिक परिस्थितियों के कारण पाक राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अय्यूब खान ने अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जानसन के इशारों पर भारतीय सीमाओं पर संघर्ष अगस्त 1965 से ही शुरू कर दिया था किन्तु भारतीय वायु सेना ने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के निर्देश पर एक सितंबर से पाकिस्तान पर आक्रमण शुरू किया जो 23 सितंबर 1965 को युद्ध विराम होने तक चला था। इस संबंध में अपने ब्लाग 'विद्रोही स्व- स्वर में ' पूर्व में जो पोस्ट्स लिखे थे उनके कुछ युद्ध संबंधी अंशों को संयोजित कर पुनः प्रकाशित किया जा रहा है )


भारत पाक संघर्ष--जी हाँ १९६५ की लड़ाई को यही नाम दिया गया था.टैंक के एक गोले की कीमत उस समय ८० हज़ार सुनी थी.पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना साः की बहन फातिमा जिन्ना को जनरल अय्यूब खान ने चुनाव में हेरा फेरी करके हरा भी दिया और उनकी हत्या भी करा दी परन्तु जनता का आक्रोश न झेल पाने पर भारत पर हमला कर के अय्यूब साः हमारे नए प्रधान मंत्री शास्त्री जी को कमजोर आंकते थे.यह पहला मौका था जब शास्त्री जी की हुक्म अदायगी में भारतीय फ़ौज ने पाकिस्तान में घुस कर हमला किया था.हमारी लड़ाई रक्षात्मक नहीं आक्रामक थी.पाकिस्तानी फौजें अस्पतालों और मस्जिदों पर भी गोले बरसा रही थीं जो अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन था.लाहौर की और भारतीय फौजों के क़दमों को रोकने के लिए पाकिस्तानी विदेशमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो सिक्योरिटी काउन्सिल में हल्ला मचाने लगे.हवाई हमलों के सायरन पर कक्षाओं से बाहर निकल कर मैदान में सीना धरती से उठा कर उलटे लेटने की हिदायत थी.एक दिन एक period खाली था,तब तक की जानकारी को लेखनीबद्ध कर के (कक्षा ९ में बैठे बैठे ही) रख लिया था जिसे एक साथी छात्र ने बाद में शिक्षक महोदय को भी दिखाया था.यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ:--
''लाल बहादूर शास्त्री'' -
खाने को था नहीं पैसा
केवल धोती,कुरता और कंघा ,सीसा
खदरी पोशाक और दो पैसा की चश्मा ले ली
ग्राम में तार आया,कार्य संभालो चलो देहली
जब खिलवाड़ भारत के साथ,पाकिस्तान ने किया
तो सिंह का बहादुर लाल भी चुप न रह कदम उठाया-
खदेड़ काश्मीर से शत्रु को फीरोजपुर से धकेल दिया
अड्डा हवाई सर्गोदा का तोड़,लाहोर भी ले लिया
अब स्यालकोट क्या?करांची,पिंडी को कदम बढ़ाया-
खिचड़ - पिचड़ अय्यूब ने महज़ बहाना दिखाया
''युद्ध बंद करो'' बस जल्दी करो यू -थांट चिल्लाया
चुप न रह भुट्टो भी सिक्योरिटी कौंसिल में गाली बक आया
उस में भी दया का भाव भरा हुआ था
आखिर भारत का ही तो वासी था
पाकिस्तानी के दांत खट्टे कर दिए थे
चीनी अजगर के भी कान खड़े कर दिए थे
ऐसा ही दयाशील भारतीय था जी
नाम भी तो सुनो लाल बहादुर शास्त्री जी
आज जब भी सोचता हूँ तो यह किसी भी प्रकार से कविता नज़र नहीं आती है पर तब युद्ध के माहोल में किसी भी शिक्षक ने इस में कोई गलती नहीं बताई.
जब जनरल चौधरी बाल बाल बचे-बरसात का मौसम तो था ही आसमान में काला,नीला,पीला धुंआ छाया हुआ था.गर्जन-तर्जन हो रहा था.हमारे मकान मालिक संतोष घोष साः (जिनकी हमारे स्कूल के पास चौरंगी स्वीट हाउस नामक दुकान थी)की पत्नी माँ को समझाने लगीं कि शिव खुश हो कर गरज रहे हैं.आश्रम पाड़ा में ही यह दूसरा मकान था.उस वक़्त बाबू जी बाग़डोगरा एअरपोर्ट पर A G E कार्यालय में तैनात थे.उन्होंने काफी रात में लौटने पर सारा वृत्तांत बताया कि कैसे ५ घंटे ग्राउंड में सीना उठाये उलटे लेटे लेटे गुज़ारा और हुआ क्या था?
दोपहर में जब हल्ला मचा था तब मैं और अजय राशन की दुकान पर थे,शोभा बाबू जी के एक S D O साः के घर थी,घर पर माँ अकेली थीं.जब हम लोग राशन ले कर लौटे तब शोभा को बुला कर लाये.पानी बरस नहीं रहा था,आसमान काला था,लगातार धमाके हो रहे थे.बाबू जी एयर फ़ोर्स के अड्डे पर थे इसलिए माँ को दहशत थी,मकान मालकिन उन्हें ढांढस बंधा रही थीं.माँ तक उन लोगों ने पाकिस्तानी हमले की सूचना नहीं पहुँचने दी थी.
बाबू जी ने बताया कि चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ जनरल जतिंद्र नाथ चौधरी बौर्डर का मुआयना करने दिल्ली से चले थे जिसकी सूचना जनरल अय्यूब तक लीक हो गयी थी.अय्यूब के निर्देश पर पूर्वी पाकिस्तान से I A F लिखे कई ज़हाज़ उन्हें निशाना बनाने के लिए उड़े.इधर बागडोगरा से बम वर्षक पूर्वी पाकिस्तान जाने के लिए तैयार खड़े थे. जनरल चौधरी के आने के समय यह घटना हुई.उधर जनरल चौधरी को हांसीमारा एअरपोर्ट पहुंचा दिया गया क्योंकि हमारी फौजों को पता चल गया था कि पाक को खबर लीक हो गयी है.बागडोगरा एअरपोर्ट का इंचार्ज I A F लिखे पाकिस्तानी  ज़हाज़ों पर फायर का ऑर्डर नहीं कर रहा था और वे हमारे बम लदे ज़हाज़ों पर गोले दाग रहे थे लिहाज़ा सारे बम जो पाकिस्तान पर गिरने थे बागडोगरा एअरपोर्ट पर ही फट गये और आसमान में काला तथा रंग बिरंगा धुआं उन्हीं का था.डिप्टी इंचार्ज एक सरदार जी ने अवहेलना करके I A F लिखे पाक ज़हाज़ों पर फायर एंटी एयरक्राफ्ट गनों से करने का ऑर्डर दिया तब दो पाक ज़हाज़ बमों समेत नष्ट हो गये दो भागने में सफल रहे.जनरल चौधरी को सीधे दिल्ली लौटा दिया गया और उनकी ज़िन्दगी जो तब पूरे देश के लिए बहुत मूल्यवान हो रही थी बचा ली गयी.
मेले और प्रदर्शनी-युद्ध के बाद दुर्गा पूजा के पंडालों में अब्दुल हमीद आदि शहीदों की मूर्तियाँ भी सजाई गयीं टूटे पाकिस्तानी पैटन टैंकों की भी भी झलकियाँ दिखाई गयीं.काली पूजा के समय भी युद्ध की याद ताज़ा की गयी.


 दिसंबर में सरकारी प्रदर्शनी पर भी भारत -पाक युद्ध की छाप स्पष्ट थी.कानपुर के  गुलाब बाई के ग्रुप के एक गाने के बोल थे--

चाहे बरसें जितने गोले,चाहे गोलियां
अब न रुकेंगी,दीवानों की टोलियाँ

शास्त्री जी व जनरल चौधरी जनता में बेहद लोकप्रिय हो गए थे.पहली बार कोई युद्ध जीता गया था.युद्ध की समाप्ति पर कलकत्ता की जनसभा में शास्त्री जी ने जो कहा था उसमे से कुछ अब भी याद है.पडौसी भास्करानंद मित्रा साः ने अपना रेडियो बाहर रख लिया था ताकि सभी शास्त्री जी को सुन सकें.शास्त्री जी ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था.उन्होंने सप्ताह में एक दिन (उनका सुझाव सोमवार का था) एक समय अन्न त्यागने की जनता से अपील की थी.उन्होंने PL -४८० की अमरीकी सहायता को ठुकरा दिया था क्योंकि प्रेसीडेंट जानसन ने बेशर्मी से अय्यूब का नापाक साथ दिया था.चीनी आक्रमण के समय केनेडी से जो सहानुभूति थी वह पाक आक्रमण के समय जानसन के प्रति घृणा में बदल चुकी थी,हमारे घर शनिवार की शाम को रोटी चावल नहीं खाते थे.हल्का खाना खा कर शास्त्री जी के व्रत आदेश को माना जाने लगा था.शास्त्री जी ने अपने भाषण में यह भी बताया था की १९६२ युद्ध के बाद चीन से मुकाबले के लिए जो हथियार बने थे वे सब सुरक्षित हैं और चीन को भी मुहं तोड़ जवाब दे सकते हैं.जनता और सत्ता दोनों का मनोबल ऊंचा था.
मेरी कक्षा में बिप्रादास धर नामक एक साथी के पिता कलकत्ता में फ़ौज के J C O थे.एक बेंच पर हमारे पास ही वह भी बैठता था.उसके साथ सम्बन्ध मधुर थे.जिन किताबों की किल्लत सिलीगुड़ी में थी वह अपने पिता जी से कलकत्ता से मंगवा लेता था.हिन्दी निबंध की पुस्तक उससे लेकर तीन-चार दिनों में मैंने दो कापियों पर पूरी उतार ली,देर रात तक लालटेन की रोशनी में भी लिख कर.उसके घर सेना का ''सैनिक समाचार'' साप्ताहिक पत्र आता था.वह मुझे भी पढने को देता था.उसमे से कुछ कविताएँ मुझे बेहद पसंद आयीं मैंने अपने पास लिख कर रख ली थीं।
सीमा मांग रही कुर्बानी

सीमा मांग रही कुर्बानी
भू माता की रक्षा  करने बढो वीर सेनानी
महाराणा छत्रपति शिवाजी बूटी अभय की पिला गये
भगत सिंह और वीर बोस राग अनोखा पिला गए
शत्रु सामने शीश झुकाना हमें बड़ों की सीख नहीं,
जिन्दे लाल चुने दीवार में मांगी सुत  की भी भीख  नहीं,
गुरुगोविंद से सुत कब दोगी बोलो धरा भवानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.

विकट समय में वीरों ने यहाँ अपना रक्त बहाया था
जब देश की खातिर अबलाओं ने भी अस्त्र उठाया था.
कण-कण में मिला हुआ है यहाँ एक मास के लालों का
अभी भी द्योतक जलियाना है देश से मिटने वालों का
वीरगति को प्राप्त हुई लक्ष्मी झांसी  वाली रानी,
सीमा मांग रही कुर्बानी.

अपनी आन पे मिटने को यह देश देश हमारा है
मर जायेंगे पर हटें नहीं यह तेरे बड़ों का नारा है
होशियार जोगिन्दर कुछ काम हमारे लिए छोड़ गए
दौलत,विक्रम मुहं शत्रु का मुख मोड़ गए.
जगन विश्व देखेगा कल जो तुम लिख रहे कहानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.

विक्रम साराभाई आदि परमाणु वैज्ञानिकों,होशियार सिंह,जोगिन्दर सिंह,दौलत सिंह आदि वीर सैन्य अधिकारियों को भी पूर्वजों के साथ स्मरण किया गया है.आज तो बहुत से लोगों को आज के बलिदानियों के नामों का पता भी नहीं होगा.

रूस नेहरु जी के समय से भारत का हितैषी रहा है लेकिन उसके प्रधान मंत्री M.Alexi kosigan भी नहीं चाहते थे कि शास्त्री जी लाहोर को जीत लें उनका भी जानसन के साथ ही दबाव था कि युद्ध विराम किया जाए.अंतर्राष्ट्रीय दबाव पर शास्त्री जी ने युद्ध विराम की  बात मान ली और कोशिगन के बुलावे पर ताशकंद अय्यूब खान से समझौता करने गए.रेलवे के  एक उच्च अधिकारी ने जो ज्योतिष के अच्छे जानकार थे और बाद में जिन्होंने कमला नगर  आगरा में विवेकानंद स्कूल की स्थापना की शास्त्री जी को ताशकंद न जाने के लिए आगाह किया था.संत श्याम जी पराशर ने भी शास्त्री जी को न जाने को कहा था.परन्तु शास्त्री जी ने जो वचन दे दिया था उसे पूरा किया,समझौते में जीते गए इलाके पाकिस्तान को लौटाने का उन्हें काफी धक्का लगा या  जैसी अफवाह थी कुछ षड्यंत्र हुआ 10 जनवरी 1966 को ताशकंद में उनका निधन हो गया.11 जनवरी को उनके पार्थिव शरीर को लाया गया,अय्यूब खान दिल्ली हवाई अड्डे तक पहुंचाने आये थे.एक बार फिर  गुलजारी लाल नंदा ही कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे.वह बेहद सख्त और ईमानदार थे इसलिए उन्हें पूर्ण प्रधानमंत्री बनाने लायक नहीं समझा गया.  

नेहरु जी और शास्त्री जी के निधन के बाद 15 -15 दिन के लिए प्रधानमंत्री बनने वाले नंदा जी जहाँ सख्त थे वहीँ इतने सरल भी थे कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व दिल्ली के जिस फ़्लैट में वह रहते थे वहां कोई पहचानने वाला भी न था.एक बार फ़्लैट में धुआं भर गया और नंदा जी सीढ़ीयों पर बेहोश होकर गिर गए क्योंकि वह लिफ्ट से नहीं चलते थे.बड़ी मुश्किल से किसी ने पहचाना कि पूर्व प्रधानमंत्री लावारिस बेहोश पड़ा है तब उन्हें अस्पताल पहुंचाया और गुजरात में उनके पुत्र को सूचना दी जो अपने पिता को ले गए.सरकार की अपने पूर्व मुखिया के प्रति यह संवेदना उनकी ईमानदारी के कारण थी.

कामराज नाडार ने इंदिरा गांधी को चाहा और समय की नजाकत को देखते हुए वह प्रधानमंत्री बन गयीं.किन्तु गूंगी गुडिया मान कर उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने वाले कामराज आदि सिंडिकेट के सामने झुकीं नहीं.1967 के आम चुनाव आ गए,तब सारे देश में एक साथ चुनाव होते थे.उडीसा में किसी युवक के फेके पत्थर से इंदिरा जी की नाक चुटैल हो गयी.सिलीगुड़ी वह नाक पर बैंडेज कराये ही आयीं थीं.मैं और अजय नज़दीक से सुनने के लिए निकटतम दूरी वाली रो में खड़े हो गए.मंच14 फुट ऊंचा था.सभा की अध्यक्षता पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चन्द्र सेन ने की थी.  

इंदिरा जी के पूरे भाषण में से एक बात अभी भी याद है कि" जापानी लोग जरा सी भी चीज़ बर्बाद नहीं करते" हमें बखूबी सीखना चाहिए.आज जब कालोनी में एक रो से दूसरी रो तक स्कूटर,मोटरसाइकिल से लोगों को जाते देख कर या सड़क पर धुलती कारों में पानी की बर्बादी देख कर तो नहीं लगता की इंदिरा जी के भक्त भी उनकी बातों का पालन करते हैं जबकि शास्त्री जी की अपील का देशव्यापी प्रभाव पड़ा था.  
उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया था.संविद सरकारें बन गयीं थी.केंद्र में सिंडिकेट के प्रतिनिधि मोरार जी देसाई ने इंदिरा जी के विरूद्ध अपना दावा पेश कर दिया था.यदि चुनाव होता तो मोरारजी जीत जाते लेकिन इंदिरा जी ने उन्हें फुसला कर उप-प्रधानमंत्री बनने पर राजी कर लिया.

जाकिर हुसैन साःराष्ट्रपति और वी.वी.गिरी साः उप-राष्ट्रपति निर्वाचित हुए.''सैनिक समाचार''में कैकुबाद नामक कवि ने लिखा--

ख़त्म हो गए चुनाव सारे
अब व्यर्थ ये पोस्टर और नारे हैं
कोई चंदू..............................हैं,
तो कोई हजारे हैं.........

http://vidrohiswar.blogspot.in/2010/09/blog-post_24.html