Sunday, 20 April 2025

बउआ : जननी , माँ और माता ------ 102 वें जन्मदिवस पर स्मरण --------- विजय राजबली माथुर

 

(  जन्म :20 अप्रैल 1924 - मृत्यु :25 जून 1995 )

हम लोगों के यहाँ माँ को बउआ कहने का रिवाज था वही हमें भी बताया गया था आजकल फैशन में कुछ लोग मम्मी उच्चारित करने लगे हैं किन्तु हम अब भी वही ज़िक्र करते हैं जो बचपन से सिखाया गया था। हाँ सहूलियत के लिए कभी-कभी माँ कह देते हैं। जो ममत्व दे वह माँ और जो निर्माण करे वह माता कहलाने के योग्य होता है। श्री कृष्ण के लिए देवकी जननी तो थीं किन्तु माँ और माता की भूमिका का निर्वहन यशोदा ने किया था। इस दृष्टि से मैं खुद को भाग्यशाली समझ सकता हूँ कि हमारी बउआ  सिर्फ जननी ही नहीं वास्तव में माँ और माता भी थीं।सिर्फ बाबूजी ही नहीं बउआ की बताई -सिखाई बातों का भी प्रभाव आज तक मुझ पर कायम है जबकि दोनों को यह संसार छोड़े हुये अब तीस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। वैसे हमारे नानाजी ने मौसी को 5 वीं तथा बउआ को 4थी कक्षा तक ही पढ़वाया था। लेकिन बउआ का व्यवहारिक अनुभव आजकल के Phd. पढे लोगों से कहीं अधिक और सटीक था । 
जहां तक मैं कर सका बउआ व बाबूजी की परम्पराओं व बातों को मानने का पूरा-पूरा प्रयास किया। लेकिन विद्रोहात्मक स्वभाव के कारण सड़ी-गली मान्यताओं को उनके जीवन काल में उनसे ही परिपालन न करने-कराने  की कोशिश करता रहा और अब पूरी तौर पर अव्यवहारिक व भेदभावमूलक मान्यताओं का पालन नहीं करता हूँ। व्यक्तिगत रूप से एकांतप्रिय स्वभाव अनायास ही नहीं बन गया है बल्कि बचपन से ही एकांत में मस्त रहने का अभ्यस्त रहा। इसका प्रमाण यह चित्र है :**********



मथुरानगर, दरियाबाद के पुश्तैनी घर में बड़े ताऊजी की बड़ी बेटी स्व.माधुरी जीजी अपनी चाची अर्थात हमारी बउआ से मुझे मांग कर ले जाती थीं और अपनी छोटी बहनों के साथ खेलने लगती थीं। मुझे एक तरफ बैठा देती थीं मुझे उन बड़ी बहनों के खेल में दिलचस्पी नहीं रही होगी तभी तो बेर के पत्तों से अकेले ही खेल लेता था। उन पत्तों में कांटे भी हो सकते हों परंतु मुझे कभी किसी कांटे से फर्क नहीं पड़ा होगा अन्यथा फिर जीजी मुझे कभी अपने साथ न ले जा पातीं। संघर्षों व अभावों से झूझते हुये बउआ ने बचपन से ही मेरी मानसिकता को जिस प्रकार ढाला था उसे मजबूती के साथ अपनाए हुये मैं आज भी अपने को सफल समझता हूँ। हाँ पत्नि व पुत्र के लिए ये स्थितियाँ अटपटी लगने वाली हैं। परंतु मेरे लिए नहीं जिसका उदाहरण पूर्व प्रकाशित लेख का यह अंश है :*****

"पत्रकार स्व .शारदा पाठक ने स्वंय अपने लिए जो पंक्तियाँ लिखी थीं ,मैं भी अपने ऊपर लागू समझता हूँ :-



लोग कहते हम हैं काठ क़े उल्लू ,हम कहते हम हैं सोने क़े .
इस दुनिया में बड़े मजे हैं  उल्लू   होने   क़े ..


ऐसा इसलिए समझता हूँ जैसा कि सरदार पटेल क़े बारदौली वाले किसान आन्दोलन क़े दौरान बिजौली में क्रांतिकारी स्व .विजय सिंह 'पथिक 'अपने लिए कहते थे मैं उसे ही अपने लिए दोहराता रहता हूँ :-
यश ,वैभव ,सुख की चाह नहीं ,परवाह नहीं जीवन न रहे .
इच्छा है ,यह है ,जग में स्वेच्छाचार  औ दमन न रहे .."

Saturday, 4 November 2023

बेपर्दा हो ही गया आखिरकार विषैला नाग

 Monday, October 23, 2023

बेपर्दा हो ही गया आखिरकार विषैला नाग




  सोमवार, 25 सितंबर 2023 को "घर, मकान और बदनीयतों की निगाहें" शीर्षक से जो आशंका व्यक्त की थी आखिरकार उसकी पुष्टि कल 22- 10 - 2023 को गोकागु की संलग्न टिप्पणी से स्पष्टता : हो जाती है। 



 दो वर्ष पूर्व  25 सितंबर 2021 को हम अपने वर्तमान मकान में रहने आए थे। यह मकान वृहत्तर लखनऊ की एक नव- विकसित कालोनी में है। यहाँ बहुत से लोग लखनऊ के बाहर से आकर बसे हैं जो लखनवी तहज़ीब से नावाकिफ हैं , पैसे वाले हैं और दूसरों की मेहनत की कमाई से अर्जित मकानों पर गिद्ध दृष्टि लगाए हुए हैं। ऐसे लोगों ने पहले तो ये अफवाहें उड़ाईं कि, कालोनी के कुछ मकान अवैध निर्मित हैं जिससे घबरा कर उनके मालिक हड़बड़ा कर सस्ते में बेच कर भाग जाएँ और ये भू - माफिया अपना धंधा करके अकूत कमाई कर सकें। हो सकता है इससे कुछ लाभ उनको मिला भी हो। 

इन लोगों का शिष्य गोकागू तमाम तांत्रिक प्रक्रियाओं का सहारा लेकर भी हमें परेशान करने के उपक्रम करता रहता  है। 26 अगस्त 2022 को एक वृद्ध पड़ोसी  ए  बी  प्रसाद साहब हमारे घर मिलने आए थे तो उनको ही गलत व्यक्ति साबित करने के लिए 27 अगस्त 2022 को अर्थात अगले ही दिन मुझे अपनी तांत्रिक प्रक्रिया से दुर्घटना - ग्रस्त कर दिया था जिसके कुछ जख्म मुंह पर अब भी बरकरार हैं । गोकागू को लगता है कि, चूंकि मेरी  पत्नी को ग्लूकोमा  और मोतियाबिंद की वजह से देखने और पहचानने में समस्या है  अतः मुझे मार कर वह आसानी से मेरे पुत्र को दबाव बना कर हमारे मकान पर बलात कब्जा कर लेगा और उन दोनों  को खदेड़ देगा। संलग्न फ़ोटो प्रति से उन लोगों की गिद्ध - दृष्टि की पुष्टि भी होती है। 

 स्पष्ट करना चाहता हूँ कि, हमारे परिवार के किसी भी सदस्य को किसी भी प्रकार की अनहोनी का सामना करना पड़ता है तो गोकागू , उसके बुलडोजर आका और उसके पीछे लामबंद होकर हमारे परिवार का बहिष्कार करने वाले सभी जनों  को ही उत्तरदाई समझा जाए।  


इस गोकागु की हमारे यहाँ आने के तुरंत बाद से हमारे यहाँ क्या हो रहा है, कौन  आया क्यों आया जानने और अनावश्यक दखलंदाज़ी करने की प्रवृत्ति पाए जाने पर हमने उसके परिवार से बोलचाल बंद कर दी  थी। इस कारण इस गोकागु ने आमने - सामने रहने वाले इस रो के सभी लोगों को हमारे प्रति घृणित दुष्प्रचार करके हमारा बहिष्कार करवा रखा है। लेकिन इसके समर्थक कभी किसी कागज पर हस्ताक्षर कराने की कोशिश करते हैं कभी किसी पाखंड कार्यक्रम के लिए चन्दा मांगने आते रहते हैं। पहले ये लोग सब्जी वाले चौराहे को रावण चौक कहते थे , अभी भी कुछ लोग ऐसा ही करते हैं। कुछ लोगों ने इसका नामकरण ' माँ  दुर्गा चौक ' कर दिया है और इस नाम के ग्रुप में हमें भी शामिल कर लिया है। 


मेकेनिकल इंजीनियर और ज्योतिष के विशेषज्ञ आचार्य राजीव नारायण शर्मा के विश्लेषण का वीडियो जिसमें नवरात्र और दशहरा के संबंध में धार्मिक विचार सम्मिलित हैं का लिंक इस ग्रुप में लगाने पर यह गोकागु जो खुद को शायद ग्रुप का डिक्टेटर समझता है मुझे आदेश देने की टिप्पणी जिसकी फ़ोटो प्रति ऊपर संलग्न है लगा गया था। वह समझता होगा जो मैं उससे बोलना पसंद नहीं करता उसको जवाब दूंगा तो यह उस बुद्धि के रासभ और अक्ल के खोते का खयाली पुलाव ही है। 


जो गोकागु दो वर्ष पूर्व कहता था कि उसने 10 वर्ष से अब तक 12 वर्ष हो गए लेखनी - पेन को हाथ नहीं लगाया है और वह अखबार भी नहीं पढ़ता। ऐसे कुपढ़ एजुकेटेड इललिट्रेट से हम लोग तो संपर्क रख ही नहीं सकते भले ही सारे कुपढ़ एजुकेटेड इलिट्रेट उसके पीछे लामबंद रहें तो रहें फिर उनको न तो हमसे कोई चन्दा मांगना चाहिए और न ही किसी सहयोग की अपेक्षा करनी चाहिए।। 


इस गोकागु ने कुपढ़ एजुकेटेड इललिट्रेट  को यह पट्टी पढ़ा रखी है कि मेरे मरने पर मेरे बेटे को मेरे लाश ठिकाने लगाने के लिए उस कमबख्त के आगे झुकना ही पड़ेगा परंतु  यह भी उसका दिवा स्वप्न ही होने वाला है। 


बहरहाल इस बार नवरात्र के दौरान गोकागु का बेनकाब होना हमारे लिए एक बड़ी उपलब्धि है। जो विषैला नाग छुप छुप कर फुफकारता था वह अब फन फैलाए खुद - ब - खुद नग्न हो ही गया। 


Thursday, 2 November 2023

क्रन्तिकारी राम---विजय राजबली माथुर


_( जालंधर के संत श्यामजी पाराशर की पुस्तक ' रामायण का ऐतिहासिक महत्व ' के निष्कर्षों के आधार पर   पूर्व विश्लेषण  का पुनर्प्रकाशन )




 








महात्मा गांधी ने भारत में राम राज्य का स्वप्न देखा था.राम कोटि-कोटि जनता के आराध्य हैं.प्रतिवर्ष दशहरा और दीपावली पर्व राम कथा से जोड़ कर ही मनाये जाते हैं.परन्तु क्या भारत में राम राज्य आ सका या आ सकेगा राम के चरित्र को सही अर्थों में समझे बगैर?जिस समय राम का जन्म हुआ भारत भूमि छोटे छोटे राज तंत्रों में बंटी हुई थी और ये राजा परस्पर प्रभुत्व के लिए आपस में लड़ते थे.उदहारण के लिए कैकेय (वर्तमान अफगानिस्तान) प्रदेश के राजा और जनक (वर्तमान बिहार के शासक) के राज्य मिथिला से अयोध्या के राजा दशरथ का टकराव था.इसी प्रकार कामरूप (आसाम),ऋक्ष प्रदेश (महाराष्ट्र),वानर प्रदेश (आंध्र)के शासक परस्पर कबीलाई आधार पर बंटे हुए थे.वानरों के शासक बाली ने तो विशेष तौर पर रावण जो दूसरे देश का शासक था,से संधि कर रखी  थी कि वे परस्पर एक दूसरे की रक्षा करेंगे.ऎसी स्थिति में आवश्यकता थी सम्पूर्ण भारत को एकता के सूत्र में पिरोकर साम्राज्यवादी ताकतों जो रावण के नेतृत्व में दुनिया भर  का शोषण कर रही थीं का सफाया करने की.लंका का शासक रावण,पाताल लोक (वर्तमान U S A ) का शासक ऐरावन और साईबेरिया (जहाँ छः माह की रात होती थी)का शासक कुम्भकरण सारी दुनिया को घेर कर उसका शोषण कर रहे थे उनमे आपस में भाई चारा था. 


भारतीय राजनीति के तत्कालीन विचारकों ने बड़ी चतुराई के साथ कैकेय प्रदेश की राजकुमारी कैकयी के साथ अयोध्या के राजा दशरथ का विवाह करवाकर दुश्मनी को समाप्त करवाया.समय बीतने के साथ साथ अयोध्या और मिथिला के राज्यों में भी विवाह सम्बन्ध करवाकर सम्पूर्ण उत्तरी भारत की आपसी फूट को दूर कर लिया गया.चूँकि जनक और दशरथ के राज्यों की सीमा नज़दीक होने के कारण दोनों की दुश्मनी भी उतनी ही ज्यादा थी अतः इस बार निराली चतुराई का प्रयोग किया गया.अवकाश प्राप्त राजा विश्वामित्र जो ब्रह्मांड (खगोल) शास्त्र के ज्ञाता और जीव वैज्ञानिक थे और जिनकी  प्रयोगशाला में गौरय्या चिड़िया तथा नारियल वृक्ष का कृत्रिम रूप से उत्पादन करके इस धरती  पर सफल परीक्षण किया जा चुका था,जो त्रिशंकु नामक कृत्रिम उपग्रह (सेटेलाइट) को अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित कर चुके थे जो कि आज भी आकाश में ज्यों का त्यों परिक्रमा कर रहा है,ने विद्वानों का वीर्य एवं रज (ऋषियों का रक्त)ले कर परखनली के माध्यम से एक कन्या को अपनी प्रयोगशाला में उत्पन्न किया जोकि,सीता नाम से जनक की दत्तक पुत्री बनवा दी गयी. वयस्क होने पर इन्हीं सीता को मैग्नेटिक मिसाइल (शिव धनुष) की मैग्नेटिक चाभी एक अंगूठी में मढवा कर दे दी गयी जिसे उन्होंने पुष्पवाटिका में विश्वामित्र के शिष्य के रूप में आये दशरथ पुत्र राम को सप्रेम भेंट कर दिया और जिसके प्रयोग से राम ने उस मैग्नेटिक मिसाइल उर्फ़ शिव धनुष को उठाकर नष्ट कर दिया जिससे  कि इस भारत की धरती पर उसके प्रयोग से होने वाले विनाश से बचा जा सका.इस प्रकार सीता और राम का विवाह उत्तरी भारत के दो दुश्मनों को सगे दोस्तों में बदल कर जनता के लिए वरदान के रूप में आया क्योंकि अब संघर्ष प्रेम में बदल दिया गया था.


कैकेयी के माध्यम से राम को चौदह  वर्ष का वनवास दिलाना राजनीतिक विद्वानों का वह करिश्मा था जिससे साम्राज्यवाद के शत्रु   को साम्राज्यवादी धरती पर सुगमता से पहुंचा कर धीरे धीरे सारे देश में युद्ध की चुपचाप तय्यारी की जा सके और इसकी गोपनीयता भी बनी रह सके.इस दृष्टि से कैकेयी का साहसी कार्य राष्ट्रभक्ति में राम के संघर्ष से भी श्रेष्ठ है क्योंकि कैकेयी ने स्वयं विधवा बन कर जनता की प्रकट नज़रों में गिरकर अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की बलि चढ़ा कर राष्ट्रहित में कठोर निर्णय लिया.निश्चय ही जब राम के क्रांतिकारी क़दमों की वास्तविक गाथा लिखी जायेगी कैकेयी का नाम साम्राज्यवाद के संहारक और राष्ट्रवाद की सजग प्रहरी के रूप में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा.


साम्राज्यवादी -विस्तारवादी रावण के परम मित्र  बाली को उसके विद्रोही भाई  सुग्रीव की मदद से समाप्त  कर के राम ने अप्रत्यक्ष रूप से साम्राज्यवादियों की शक्ति को कमजोर कर दिया.इसी प्रकार रावण के विद्रोही भाई विभीषण से भी मित्रता स्थापित कर के और एयर मार्शल (वायुनर उर्फ़ वानर) हनुमान के माध्यम से साम्राज्यवादी रावण की सेना व खजाना अग्निबमों से नष्ट करा दिया.अंत में जब राम के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों और रावण की साम्राज्यवाद समर्थक शक्तियों में खुला युद्ध हुआ तो साम्राज्यवादियों की करारी हार हुई क्योंकि,कूटनीतिक चतुराई से साम्राज्यवादियों को पहले ही खोखला किया जा चुका था.जहाँ तक नैतिक दृष्टिकोण का सवाल है सूपर्णखा का अंग भंग कराना,बाली की विधवा का अपने देवर सुग्रीव से और रावण की विधवा का विभीषण से विवाह कराना* तर्कसंगत नहीं दीखता.परन्तु चूँकि ऐसा करना साम्राज्यवाद का सफाया कराने के लिए वांछित था अतः राम के इन कृत्यों पर उंगली नहीं उठायी जा सकती है.


अयोध्या लौटकर राम द्वारा  भारी प्रशासनिक फेरबदल करते हुए पुराने प्रधानमंत्री वशिष्ठ ,विदेश मंत्री सुमंत आदि जो काफी कुशल और योग्य थे और जिनका जनता में काफी सम्मान था अपने अपने पदों से हटा दिया गया.इनके स्थान पर भरत को प्रधान मंत्री,शत्रुहन को विदेश मंत्री,लक्ष्मण को रक्षा मंत्री और हनुमान को प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया.ये सभी योग्य होते हुए भी राम के प्रति व्यक्तिगत रूप से वफादार थे इसलिए राम शासन में निरंतर निरंकुश होते चले गए.अब एक बार फिर अपदस्थ वशिष्ठ आदि गणमान्य नेताओं ने वाल्मीकि के नेतृत्व में योजनाबद्ध तरीके से सीता को निष्कासित करा दिया जो कि उस समय   गर्भिणी थीं और जिन्होंने बाद में वाल्मीकि के आश्रम में आश्रय ले कर लव और कुश नामक दो जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया.राम के ही दोनों बालक राजसी वैभव से दूर उन्मुक्त वातावरण में पले,बढे और प्रशिक्षित हुए.वाल्मीकि ने लव एवं कुश को लोकतांत्रिक शासन की दीक्षा प्रदान की और उनकी भावनाओं को जनवादी धारा  में मोड़ दिया.राम के असंतुष्ट विदेश मंत्री शत्रुहन लव और कुश से सहानुभूति रखते थे और वह यदा कदा वाल्मीकि के आश्रम में उन से बिना किसी परिचय को बताये मिलते रहते थे.वाल्मीकि,वशिष्ठ आदि के परामर्श पर शत्रुहन ने पद त्याग करने की इच्छा को दबा दिया और राम को अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति से अनभिज्ञ रखा.इसी लिए राम ने जब अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया तो उन्हें लव-कुश के नेतृत्व में भारी जन आक्रोश का सामना करना पडा और युद्ध में भीषण पराजय के बाद जब राम,भरत,लक्ष्मण और शत्रुहन बंदी बनाये जा कर सीता के सम्मुख पेश किये गए तो सीता को जहाँ साम्राज्यवादी -विस्तारवादी राम की पराजय की तथा लव-कुश द्वारा नीत लोकतांत्रिक शक्तियों की जीत पर खुशी हुई वहीं मानसिक विषाद भी कि,जब राम को स्वयं विस्तारवादी के रूप में देखा.वाल्मीकि,वशिष्ठ आदि के हस्तक्षेप से लव-कुश ने राम आदि को मुक्त कर दिया.यद्यपि शासन के पदों पर राम आदि बने रहे तथापि देश का का आंतरिक प्रशासन लव और कुश के नेतृत्व में पुनः लोकतांत्रिक पद्धति पर चल निकला और इस प्रकार राम की छाप जन-नायक के रूप में बनी रही और आज भी उन्हें इसी रूप में जाना जाता है.

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Tuesday, 7 February 2023

व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर जन्मगत जाति -व्यवस्था निर्मित की थी ------विजय राजबली माथुर

 


  प्रतिवर्ष विभिन्न कायस्थ समाजों की ओर से देश भर मे भाई-दोज के अवसर पर कायस्थों के उत्पत्तिकारक के रूप मे 'चित्रगुप्त जयंती'मनाई जाती है ।  'कायस्थ बंधु' बड़े गर्व से पुरोहितवादी/ब्राह्मणवादी कहानी को कह व सुना तथा लिख -दोहरा कर प्रसन्न होते रहे हैं। परंतु सच्चाई को न कोई समझना चाह रहा है न कोई बताना चाह रहा है।

 आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा मे दीपावली पर्व के प्रवचनों मे स्वामी स्वरूपानन्द जी ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था और उनसे पूर्व प्राचार्य उमेश चंद्र कुलश्रेष्ठ जी ने पूर्ण सहमति व्यक्त की थी। यथा : 


"प्रत्येक प्राणी के शरीर मे 'आत्मा' के साथ 'कारण शरीर' व 'सूक्ष्म शरीर' भी रहते हैं। यह भौतिक शरीर तो मृत्यु होने पर नष्ट हो जाता है किन्तु 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म शरीर' आत्मा के साथ-साथ तब तक चलते हैं जब तक कि,'आत्मा' को मोक्ष न मिल जाये। इस सूक्ष्म शरीर मे -'चित्त'(मन)पर 'गुप्त'रूप से समस्त कर्मों-सदकर्म,दुष्कर्म और अकर्म अंकित होते रहते हैं। इसी प्रणाली को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है। इन कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद पुनः दूसरा शरीर और लिंग इस 'चित्रगुप्त' मे अंकन के आधार पर ही मिलता है। अतः  'मन'अर्थात 'चित्त' को शुद्ध व सतर्क रखने के उद्देश्य से  चित्रगुप्त पूजा का पर्व दीपावली के बाद दोज पर मनाया जाता था। इस हेतु विशेष आहुतियाँ हवन मे दी जाती थीं।" 

आज कोई ऐसा नहीं करता है। बाजारवाद के जमाने मे भव्यता-प्रदर्शन दूसरों को हेय समझना आदि ही ध्येय रह गया है। यह विकृति और अप-संस्कृति है। काश लोग अपने अतीत को पहचान सकें और समस्त मानवता के कल्याण -मार्ग को पुनः अपना सकें। 

अब इस पर्व को एक जाति-वर्ग विशेष तक सीमित कर दिया गया है।

  पौराणिक-पोंगापंथी -ब्राह्मणवादी व्यवस्था मे जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।

 'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ

क=काया या ब्रह्मा ;

अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;

स्थ=स्थित। 

'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म से अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति।  

आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव जब अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। क्योंकि ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे  अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी  अस्पताल मे आज भी जेनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही लिखा मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-

1- जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 

2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 

3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको  'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 

4-जो लोग विभिन्न  सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने तथा इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य माना जाता था। 

ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ  ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था। ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे। 

 कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके  शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता  आधारित उपाधि-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया। खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है। 

यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुये भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण  व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।


लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि, अब पतन की पराकाष्ठा पर  पहुंचे कायस्थ क्या कह और कर रहे हैं। एक मुस्लिम का हुक्का गुड़गुड़ाने पर आक्षेप लगने से आहत हुये नरेन्द्र्नाथ दत्त  ने रामकृष्ण  परमहंस से जो ज्ञान प्राप्त किया उसी के आधार पर समाज में व्याप्त कुरीतियों, ढोंग और पाखंड पर करारा प्रहार किया था । स्वामी विवेकानंद के रूप में उनका कहना था जब तक भारत की एक भी झोंपड़ी में प्रकाश का आभाव रहता है और एक भी आदमी भूखा रहता है तब तक भारत का विकास नहीं हो सकता है। 

यह एक विडम्बना ही है कि, भारत के कम्युनिस्टों ने स्वामी विवेकानंद को नहीं अपनाया बल्कि, विभाजन, विग्रह और द्वेष पर आधारित संगठनों ने उनके नाम का भारी दुरुपयोग कर रखा है। 



Sunday, 20 November 2022

हाथ देख कर यह कैसे पता चल सकता है ?

 20-11-2015 को प्रकाशित ------ 

हमारे रिश्ते में एक और भतीजे थे राय राजेश्वर बली जो  आज़ादी से पहले यू पी गवर्नर के एजुकेशन सेक्रेटरी भी रहे और रेलवे बोर्ड के सदस्य भी। उन्होने ही 'भातखण्डे यूनिवर्सिटी आफ हिन्दुस्तानी म्यूज़िक' की स्थापना करवाई थी जो अब डीम्ड यूनिवर्सिटी के रूप में सरकार द्वारा संचालित है। उसके पीछे ही उनके ही एक उत्तराधिकारी की यादगार में 'राय उमानाथ बली' प्रेक्षागृह है , वह भी सरकार द्वारा संचालित है। 

अपने से 15 वर्ष बड़े जिन भतीजे का ज़िक्र किया है वह भी उनके ही परिवार से हैं। राय राजेश्वर बली साहब की एक बहन के पौत्र डॉ पी डी पी माथुर साहब से मेरठ में तब संपर्क था जब वह वहाँ एडीशनल CMO थे , जो बाद में उत्तर-प्रदेश के डी जी हेल्थ भी बने थे। उम्र में काफी बड़े होने किन्तु रिश्ते में छह पीढ़ी छोटे होने के कारण वह मुझे भाई साहब कह कर  ही संबोधित करते थे। 

राय राजेश्वर बली साहब की एक भुआ (जो हमारी बहन हुईं ) से मुलाक़ात आगरा में हुई थी , वह भी मुझसे काफी बड़ी थीं बल्कि उनके पुत्र डॉ अजित ही (जो माथुर सभा, आगरा के अध्यक्ष भी रहे )  मुझसे उम्र में बड़े होने के कारण मुझे भाई साहब ही संबोधित करते रहे। डॉ अजित के घर एक बार उनके बहन-बहनोई भी मिले थे और उन लोगों ने अपने बारे में हस्तरेखा के आधार पर जानकारी भी हासिल की थी। डॉ साहब के बहनोई साहब ज्योतिष पर विश्वास नहीं करते थे और उनसे यह पहली ही मुलाक़ात थी वह हाथ दिखाने के इच्छुक भी नहीं थे; किन्तु डॉ साहब की पत्नी जी के कहने पर  अन्यमन्सकता  पूर्वक राज़ी हुये थे। जब मैंने पहले उल्टे दोनों हाथ और उसके बाद हथेलियों का अवलोकन करने के बाद उनसे कहा कि, आप को या तो मिलेटरी में होना चाहिए या फिर डॉ होना चाहिए। तब उनको कुछ विश्वास हुआ और उन्होने प्रश्न किया कि हाथ देख कर यह कैसे पता चल सकता है ? उनको उनके हाथ की स्थिति से समझा दिया। उन्होने स्वीकार किया कि दोनों बातें सही हैं वह ए एम सी (ARMY MEDICAL COR ) में डॉ है। फिर जो भी बातें उनको बताईं सभी को उन्होने स्वीकार किया और आश्चर्य भी व्यक्त किया कि मैंने सही बता दिया जबकि पंडित लोग नहीं बताते हैं। मैंने उनको स्पष्ट किया कि पंडित  जो मंदिर का पुजारी होगा या कर्मकांडी ज़रूरी नहीं कि ज्योतिष जानता भी हो लेकिन जनता को ठगता ज़रूर है वह सही बता ही नहीं सकता है। परंतु दुर्भाग्य से लोग बाग  पहले तो ऐसे धोखेबाज़ों को ही ज्योतिषी मानते व लुटते हैं फिर ज्योतिष की निंदा करने लगते हैं। मैं खुद भी ऐसे पंडितों का पर्दाफाश करने के लिए ही ज्योतिष के क्षेत्र में उतरा जबकि पहले ज्योतिष पर उन लोगों के कारण ही विश्वास नहीं करता था ।

Sunday, 25 September 2022

नहीं कटवाए गए थे ताज बनाने वालों के ह‍ाथ ------ Mahendra Neh



Mahendra Neh

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नहीं कटवाए गए थे ताज बनाने वालों के ह‍ाथ 

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- ऐसी अफवाह है कि शाहजहां ने ताज बनाने वाले 20 हजार मजदूरों के हाथ कटवा दिए थे।

- इसके पीछे वजह बताई जाती है कि शाहजहां चाहता था कि दोबरा कोई ताज जैसी स्माारक न बनवा सके।

- लेकिन इतिहासकार राजकिशोर के अनुसार, शाहजहां ने ताज के निर्माण के बाद कारीगरोंं से आजीवन काम न करने का वादा लिया था।

- इसके बदले कारीगरों को जिंदगी भर वेतन देने का वादा किया गया था।

- कारीगरों के हाथों के हुनर का काम करने से रोक देने को दूसरे शब्दों  में हाथ काटना कहा गया।

- शाहजहां ने ताज के पास 400 साले पहले मजदूरों के लिए ताजगंज नाम से बस्तीा बसा दी थी।

- ताज निर्माण के समय मजदूर और आर्किटेक्टस यहीं रहा करते थे।

- इनमें से कुछ मजदूरों और आर्के टिक्टर को ताज के साथ-साथ दिल्ली  के लाल किला निर्माण में भी लगाया गया था।

- अब भी यहां उन मजदूरों के वंशज यहां रह रहे हैं। यहां के निवासी ताहिर उद्दीन ताहिर का कहना है कि उन्हेंम गर्व है कि उनके पूर्वजों ने ताजमहल बनाने में हिस्सा  लिया।

- हाथ काटने की अफवाह में जरा भी सच्चांई नहीं है।

ताज का नक्शाक बनाने वाले को मिलती थी 1 हजार रु सैलरी

- शाहजहां को इमारतें बनवाने का शौक था। ताज पहली इमारत थी, जिसका निर्माण उन्हों ने कराया।

- दूरदराज से तमाम बेहतरीन कारीगर पैसों के लालच में आगरा में आकर बस गए थे।

- भारत ही नहीं अरब पर्सिया और तुर्की से वास्तु विदों, मिर्ताणकर्ताओं और पच्चीहकारी के कलाकारों को बुलाया गया था।

- ताज का नक्शा  बहुतों ने बनाया, लेकिन शाहजहां को उस्तारद ईसा आफदी का डिजाइन पसंद आया।

- जबकि पत्थ्रों पर शब्दं उकेरने का काम अमानत खान शिरजी को सौंपा गया।

- शाहजहां इन दोनों को काम के बदले 1 हजार रुपए प्रतिमाह सैलरी देता था, जोकि उस समय बहुत ज्याादा थी।

- आफदी के साथ चार अन्यक लोगों को नक्शेह के काम के लिए समान वेतन पर रखा गया था।

तुर्की के कारीगर ने बनाया था ताज का गुंबद

- तुर्की के कारीगर इस्माइल खान को ताज का गुंबद बनाने की जिम्मेमदारी मिली थी।

- इसके लिए उन्हें 500 रुपए प्रति महीने सैलरी मिलती थी।

- वहीं, 200 रुपए महीने पर लाहौर के कासिम खान ने कलश बनाने की जिम्मेदारी संभाली।

- मनोहर लाल मन्नू को 500 रुपए प्रति महीने में पच्चीकारी का काम सौंपा गया था।

- गुम्बद तैयार करने की जिम्मेदारी तुर्की के कारीगर इस्माइल खान को मिली और इसके लिए उन्हें 500 रुपये महीना पर रखा गया।

- 200 रुपए महीने पर लाहौर अब पकिस्तान के कासिम खान ने कलश बनाने की जिम्मेदारी संभाली।

- मनोहर लाल मन्नू लाल मोहन लाल को 500 रुपये माह में पच्ची कारी का काम सौपा गया।

 शाहजहां ने कारीगरों के लिए बसाई थी ताजगंज बस्ती

Friday, 23 September 2022

बेरोजगारी के आज के दौर में ------ विजय राजबली माथुर

 बेरोजगारी के आज के दौर में 47 वर्ष पूर्व आज ही के दिन अर्थात 22 सितंबर 1975 को लगभग 90 दिन  की बेरोजगारी के बाद रोजगार की पुनर्प्राप्ति की घटना स्मृति पटल पर घूम गई।

25 जून 1975 को इमरजेंसी घोषित हुई थी और उसी की आड़ लेकर 29 जून को सारू स्मेल्टिंग,मेरठ से मेरी सेवाएं समाप्त कर दी गई थीं और भी बहुतेरे लोगों के साथ ही।लिहाजा माता पिता के पास आगरा आ गया था और नौकरी की तलाश में जुट गया था।

निर्माणाधीन आईटीसी मोघुल ओबेरॉय में डाक से अर्जी भेज दी थी।

16 सितंबर को 18 तारीख को लिखित परीक्षा देने का काल लेटर डाक से प्राप्त हुआ , 20 सितंबर को साक्षात्कार हुआ और ज्वाइन करने को कहा गया।मैंने सोमवार 22 सितंबर 1975 को ज्वाइन कर लिया।

लिखित परीक्षा में 20 उम्मीदवार थे जिनमें से 4 को साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था एक मैं,दूसरे विनोद श्रीवास्तव,तीसरे सुदीप्तो मित्र,चौथे एक सक्सेना साहब थे।पोस्ट दो ही थीं।

मैंने 22 सितंबर को जबकि सुदीप्तो मित्र ने 01 अक्तूबर को ज्वाइन कर लिया था। सक्सेना साहब फिर नहीं मिले जबकि विनोद श्रीवास्तव थोड़े थोड़े अंतराल पर हम से मिलते और उनको भी एडजस्ट करवाने को कहते रहे।

चूंकि मित्र साहब स्टोर में थे और मैं अकाउंट्स में लिहाजा दोनों से ठेकेदार ,सप्लायर्स का संपर्क था।मित्र ज्यादा बोलने और मजाक पसंद थे और मैं चुपचाप गंभीरता से काम करने वाला।अतः मैन कांट्रेक्टर  जी एस लूथरा साहब के बेटे जगमोहन लूथरा साहब ने मुझ से अपने जैसा काम करने वाला एक लड़का रेफर करने को कहा मैंने विनोद श्रीवास्तव को बुलवा कर उनसे भेंट करवा दी।उन्होंने उनको तत्काल ज्वाइन करवा दिया।

इमरजेंसी में 29 जून से 21 सितंबर तक की बेरोजगारी में सिर के बाल तक झड़ गए थे ऐसा होता है बेरोजगारी का आघात इसलिए मैंने विनोद श्रीवास्तव को नियुक्त करवा कर उनका भी आघात कम करवा दिया।अब तो आफिशियली वह दिन में कई कई बार मुलाकात करते थे।राजनीतिक चर्चा भी हो जाती थी मैं इंदिरा गांधी का विरोध करता था वह तब कांग्रेस का समर्थन करते थे।

लूथरा साहब के एक विश्वस्त सुपरवाइजर थे अमर सिंह राठौर जो बीएसएफ के रिटायर्ड सब इंस्पेक्टर थे उनको ज्योतिष की गहन जानकारी थी विनोद की उनसे खूब पटती थिएं तब मैं ज्योतिष  विरोधी था विनोद ने उनसे मेरा हाथ देख कर बताने को कहा मैं हाथ दिखाने को अनिच्छुक था।विनोद जबरदस्ती लगभग खींचते हुए ही उनके पास ले गए थे।उनसे बोले इनको नहीं उनको अर्थात विनोद को बताएं कि इनका क्या भविष्य है

अमर सिंह ने  विनोद को मेरे बारे में जो बताया उसकी मैने उपेक्षा  कर दी जिस पर अमर सिंह का कहना था आज यह मेरी खिल्ली उड़ा रहे हैं एक दिन यही हमारी तरह सबको उनके भविष्य के प्रति आगाह करते हुए तुमको मिलेंगे।

अमर सिंह के अनुसार 26 वर्ष की उम्र में मेरा अपना मकान होना था तब उम्र 23 वर्ष और वेतन रु 275 मासिक था अतः मुझे उपहास करना ही था कि कैसे संभव होगा?उनका कहना कैसे होगा वह नहीं जानते लेकिन ऐसा ही होगा और यह भी कि 42 वर्ष की उम्र में वास्तविक रूप से अपना होगा जबकि उसमे रहोगे 26 की उम्र से ही।

एक और सहकर्मी ने 1977  में हाउसिंग बोर्ड के कुछ मकान बुकिंग होने की सूचना दी उन्होंने खुद और एक नेवी के रिटायर्ड साहब ने भी फार्म भरा था उनके पास पैसे थे जबकि मेरे और उन  सहकर्मी के पास आभाव था।

लेकिन सारू स्मेल्टिंग,मेरठ में मेरे डिपोजिट के 3000रु थे जिनको वे रिलीज नहीं कर रहे थे उनको लीगल नोटिस दिया तो फटाफट भेज दिए। उन रुपयों का डीडी 27 मार्च 1977 को जब मोरार जी देसाई पी एम की शपथ ग्रहण कर रहे थे सेंट्रल बैंक,आगरा कैंट से बनवा रहा था।

03 अप्रैल 1978 को लखनऊ से जारी एलाटमेंट लेटर मिला और 10 अप्रैल 1978 को रु 290 की पहली किश्त जमा कर दी तब तक वेतन बढ़ कर रु 500 मासिक हो चुका था।तब उम्र 26 वर्ष ही थी अक्टूबर तक  कमला नगर ,आगरा में हायर परचेज के अपने मकान में आ भी गए थे तब तक लूथरा साहब ने दिल्ली में अमर सिंह को अमर ज्योतिष कार्यालय  अपने कार्यालय के साथ खुलवा दिया था।वहां पत्र भेज कर अमर सिंह जी को साभार सूचना दी जिस पर वह बेहद खुश भी हुए और आगरा आकर हमसे होटल मुगल में मिले भी।15 वर्ष की किश्त जमा होने पर भी रिश्वतखोर अडंगा लगा रहे थे ,में cpi आगरा का जिला कोषाध्यक्ष था गवर्नर मोती लाल बोरा को पत्र भेजा उनके हस्तक्षेप से रजिस्ट्री हुई तब उम्र 42 वर्ष ही हो गई थी।

विनोद श्रीवास्तव को हमने होटल मुगल में ही जाब  दिला दिया और लूथरा साहब से रिलीव करवा दिया।बाद में विनोद केनरा बैंक में तथा सुदीप्तो मित्र बैंक आफ बड़ौदा में चले गए।

अमर सिंह जी ने 1975 में कुल 13 वर्ष की ही नौकरी बताई थी और बाद में दिमाग से खाने की बात कही थी। उस वक्त हास्यास्पद लगा था।जनवरी 1985 में होटल मुगल से सेवाएं समाप्त हो गईं इस प्रकार 1972 से 1985 तक 13 वर्ष की ही नौकरी करने की बात भी सही  ही रही।

हालांकि 1985 से 2000 तक 15 वर्ष हींग की मंडी आगरा के जूता बाजार में विभिन्न दुकानों में ट्यूशन बेसिस पर अकाउंट्स जाब किया लेकिन अन रिकार्ड  सर्विस थी दिमाग का ही काम था।

2000 में बाबू जी साहब अर्थात श्वसुर साहबया स्व बिलासपती सहाय ) के परामर्श पर ज्योतिष का कार्य अपना लिया और उनकी ही पुत्री के नाम पर सरला बाग,आगरा में पूनम ज्योतिष कार्यालय भी खोला था।

चंद्र मोहन शेरी,राकेश त्विकले,विराज माथुर और उनके मौसेरे भाई मनोज माथुर आदि ने मुझसे परामर्श भी लिया और हवन भी करवाया।अन्य बिरादरी के लोगों में ब्राह्मण प्रोफेसर,अधिकारी भी शामिल रहे।डाक्टर अजीत माथुर उनकी माता जी,बहन और बहनोई भी मुझसे परामर्श लेने वालों में रहे हैं।

अब लखनऊ में सक्रिय नहीं हूं केवल परिचितों और रिश्तेदारों को परामर्श दे रहा हूं।

Wednesday, 21 September 2022

चांदी के वर्क से व्यंजनों की खूबसूरत सजावट ------ डाक्टर कृपा शंकर माथुर

22 सितंबर 1977 के नवजीवन,लखनऊ के पृष्ठ 04 पर प्रकाशित लेख।मामाजी की पुण्यतिथि पर उनकी स्मृति में  ===================== 



चांदी के वर्क से व्यंजनों की खूबसूरत सजावट

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'नवजीवन’ के विशेष अनुरोध पर डाक्टर कृपा शंकर माथुर ने लखनऊ की दस्तकारियों के संबंध में ये लेख लिखना स्वीकार किया था। यह लेख माला अभी अधूरी है, डाक्टर माथुर की मृत्यु के कारणवश अधूरी ही रह जाएगी, यह लेख इस शृंखला में अंतिम है। 

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अगर आपसे पूछा जाए कि आप सोना या चांदी खाना पसंद करेंगे, तो शायद आप इसे मजाक समझें लेकिन लखनऊ में और उत्तर भारत के अधिकांश बड़े शहरों में कम से कम चांदी वर्क के रूप में काफी खाई जाती है। हमारे मुअज़्जिज मेहमान युरोपियन और अमरीकन अक्सर मिठाई या पलाव पर लगे वर्क को हटाकर ही खाना पसंद करते हैं, लेकिन हम हिन्दुस्तानी चांदी के वर्क को बड़े शौक से खाते हैं। 

चांदी के वर्क का इस्तेमाल दो वजहों से किया जाता है। एक तो खाने की सजावट के लिये और दूसरे ताकत के लिये। मरीजों को फल के मुरब्बे के साथ चांदी का वर्क अक्सर हकीम लोग खाने को बताते हैं। 

कहा जाता है कि चांदी के वर्क को हिकमत में इस्तेमाल करने का ख्याल हकीम लुकमान के दिमाग में आया, सोने-चांदी मोती के कुशते तो दवाओं में दिये ही जाते हैं और दिये जाते रहे हैं, लेकिन चांदी के वर्क का इस्तेमाल लगता है कि यूनान और मुसलमानों की भारत को देन  है। चांदी के चौकोर टुकड़े को हथौड़ी से कूट-कूट कर कागज़ से भी पतला वर्क बनाना, इतना पतला कि वह खाने की चीज के साथ बगैर हलक में अटके खाया जा सके। कहते हैं कि यह विख्यात हकीम लुकमान की ही ईजाद थी। जिनकी वह ख्याति है कि मौत और बहम के अलावा हर चीज का इलाज उनके पास मौजूद था। 

लखनऊ के बाजारों में मिठाई अगर बगैर चांदी के वर्क के बने  तो बेचने वाला और खरीदने वाला दोनों देहाती कहे जाएंगे। त्योहार और खासकर ईद के मुबारक मौके पर शीरीनी और सिवई की सजावट चांदी के वर्क से कि जाती है। शादी ब्याह के मौके पर नारियल, सुपारी और बताशे को  भी चांदी के वर्क से मढ़ा जाता है। यह देखने में भी अच्छा लगता है और शुभ भी माना जाता है। क्योंकि चांदी हिंदुस्तान के सभी बाशिंदों में पवित्र और शुभ मानी जाती है। 

लखनऊ के पुराने शहर में चांदी के वर्क बनाने के काम में चार सौ के करीब कारीगर लगे हैं। यह ज्यादातर मुसलमान हैं, जो चौक और उसके आस-पास की गलियों में छोटी-छोटी सीलन भरी अंधेरी दुकानों में दिन भर बैठे हुए वर्क कूटते रहते हैं।ठक-ठक की आवाज से जो पत्थर की निहाई पर लोहे की हथौड़ी से कूटने पर पैदा होती है, गलियाँ गूँजती रहती हैं। 

इन्हीं में से एक कारीगर मोहम्मद आरिफ़ से हमने बातचीत की। इनके घर से पाँच-छह पुश्तों से वर्क बनाने का काम होता है। चांदी के आधा इंच वर्गाकार टुकड़ों को एक झिल्ली के खोल में रखकर पत्थर की निहाई पर और लोहे की हथौड़ी से कूटकर वर्क तैयार करते हैं। डेढ़ घंटे में कोई डेढ़ सौ वर्कों की गड्डी तैयार हो जाती है, लेकिन यह काम हर किसी के बस का नहीं है। हथौड़ी चलाना भी एक कला है और इसके सीखने में एक साल से कुछ अधिक समय लग जाता है। इसकी विशेषता यह है कि वर्क हर तरफ बराबर से पतला हो,चौकोर हो,और बीच से फटे नहीं। 

वर्क बनाने वाले कारीगर को रोजी तो कोई खास नहीं मिलती, पर यह जरूर है कि न तो कारीगर और न ही उसका बनाया हुआ सामान बेकार रहता  है। मार्केट सर्वे से पता चलता है कि चांदी के वर्क की खपत बढ़ गई है और अब यह माल देहातों में भी इस्तेमाल में आने लगा है। 

ठक…. ठक…. ठक। घड़ी की सुई जैसी नियमितता से हथौड़ी गिरती है और करीब डेढ़ घंटे में 150 वर्क तैयार।


Sunday, 13 June 2021

27 वीं पुण्यतिथि पर बाबूजी का स्मरण

 



बाबूजी को यह संसार छोड़े हुए आज 26 वर्ष पूर्ण हो गए हैं।सीमाब अकबराबादी  की  उपरोक्त नज़्म बाबूजी को पसंद आई होगी और उन्होंने इसे उर्दू  एवं देवनागरी दोनों लिपियों में लिपिबद्ध करके रखा था। उनका हस्तलिखित पर्चा कल ही पुरानी फ़ाइलों से प्राप्त हुआ है। अतः इसे उनके स्मृति दिवस पर उनको श्रद्धावत नमन सहित प्रकाशित किया जा रहा है। 

Wednesday, 31 March 2021

राष्ट्र संघ एक बंधुआ विश्व संस्था ------ बी डी एस गौतम

 राष्ट्र संघ एक बंधुआ विश्व संस्था


संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव पेरेज द कुइयार कह रहे हैं कि इराक के विरुद्ध अमेरिका और उसके मित्र देशों की कार्यवाही संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यवाही नहीं है, पर जॉन मेजर से लेकर जॉर्ज बुश तक अमेरिकी नेतृत्व में इराक के विरुद्ध लड़े जा रहे युद्ध को इराक से संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव को मनवाने के लिए की जा रही कार्यवाही बनाते हैं। यह कैसा विरोधाभास है कि मित्र देश संयुक्त राष्ट्र संघ की हैसियत बनाए रखने के लिए इराक पर हमला बोल देते हैं और महासचिव को तब तक कोई सूचना ही नहीं रहती। कुइयार ने पिछले दिनों एक पश्चिमी अखबार को दिए गए अपने इंटरव्यू में बताया था कि युद्ध शुरू होने के 1 घंटे बाद मुझे इसकी सूचना मिली। कुइयार ने यह भी बताया अमेरिका ने जिस समय इराक पर हमला बोला उससे कुछ ही घंटे बाद वे खाड़ी संकट के शांति पूर्वक हल के लिए एक और राजनैतिक प्रयास कर रहे थे। मगर अमेरिका ने उनसे यह मौका छीन लिया। पेरेज द कुइयार के इस कथन से साफ-साफ जाहिर होता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ नामक जिस संस्था को पिछले 45 सालों से विश्व की शांति और स्वतंत्रता की रक्षक माना जाता है वह निरा एक ढोंग है। हालांकि इतिहास में यह ढोंग पहले भी कई बार प्रकट हो चुका है, मगर वर्तमान खाड़ी युद्ध ने पूरी तरह साबित कर दिया है की यह संस्था अमेरिका की बंधुआ है।


राष्ट्र संघ की कोख से जन्मी संयुक्त राष्ट्र संघ का 45 वर्षीय इतिहास गवाह है कि विश्व संस्था के नाम पर यह अपनी ताकत का इस्तेमाल अमेरिका की दादागिरी को नैतिक सर्टिफिकेट प्रदान करने में करती रही है और यह आज से नहीं बल्कि तब से जारी है जब हैरी एस ट्रूमैन के नेतृत्व में अमेरिका दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया में अपनी आर्थिक और सैनिक दादागिरी जमाने का इरादा बना चुका था। अमेरिका के इस इरादे की पुष्टि और  संयुक्त राष्ट्र संघ के निष्पक्षता की पोल तो वास्तव में 27 जून 1950 को ही खुल गई थी जब राष्ट्रपति ट्रूमैन ने अपनी हवाई सेना और समुद्री बेड़े को उत्तर कोरिया के खिलाफ तुरंत कार्यवाही का आदेश दिया था।


संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में  कहा गया था  कि दो देशों के आपसी झगड़े में तीसरा देश संयुक्त राष्ट्र संघ की अनुमति के बाद ही कूदेगा, मगर अमेरिका ने इस तरह के किसी कानून के पालन को जरूरी नहीं समझा। 25 जून 1950 को उत्तरी और दक्षिणी कोरिया दोनों के बीच लड़ाई छिड़ गई। अमेरिका दूसरे ही दिन इस लड़ाई में हस्तक्षेप हेतु उतर आया जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस हस्तक्षेप को कानूनी जामा 5 महीने बाद यानी नवंबर 1950 में जाकर पहनाया। यही नहीं नवंबर 1950 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने जब उत्तरी कोरिया के खिलाफ बल प्रयोग का प्रस्ताव पास किया तो उसी अमेरिकी सैनिक कमांडर मैकाथेर को संयुक्त सेनाओं का कमांडर जनरल नियुक्त कर दिया जो 5 महीने पहले से ही अमेरिकी कार्यवाही का नेतृत्व कर रहा था।


वर्तमान उदाहरण को ही देख लीजिए अपने आप पता चल जाएगा कि अमेरिका संयुक्त राष्ट्र का आदेश मान रहा है या संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का। 5 अगस्त 1990 को अमेरिकी कांग्रेस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध लगाता है, 16 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र इराक के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध पास कर देता है, 16 अगस्त को अमेरिकी नौसेना आर्थिक प्रतिबंध के बहाने खाड़ी में अपना मोर्चा जमाती है और नवंबर के आखिरी सप्ताह में यू एन ओ इराक के खिलाफ बल प्रयोग का प्रस्ताव पास कर देता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि नवंबर तक अमेरिका इराक के खिलाफ लगातार अपने मोर्चे सजाने में लगा रहा। 10हजार  से शुरुआत करके 3लाख  सैनिक तक इस बीच उसने खाड़ी में जमा कर दिए। स्पष्ट है यू एन ओ इराक के खिलाफ सितंबर में भी बल प्रयोग का प्रस्ताव पास कर सकता था यदि अमेरिका तुरंत लड़ाई के लिए तैयार होता।


कुवैत पर इराक के आक्रमण के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका जिस तरह से सक्रिय हुए वह विश्व की शांति और स्वतंत्रता के लिए मिसाल बन सकता था बशर्ते दोनों के इरादे नेक होते। मगर अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ दोनों की तत्परता तब संदिग्ध हो जाती है जब इनके इतिहास की पड़ताल की जाए। उदाहरणार्थ 14 मई 1948 को जब पैलेस्टाइन से ब्रिटिश कमिश्नर राष्ट्र संघ के मजिस्ट्रेट द्वारा दी गई जिम्मेदारियों को छोड़कर भाग आया तब संयुक्त राष्ट्र संघ या अमेरिका ने पैलेस्टाइन में शांति बनाए रखने के लिए सेना क्यों नहीं भेजी? तब तक तो अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध जैसी भी कोई बात नहीं थी। यही नहीं जब ब्रिटिश कमिश्नर के भागने के बाद यहूदियों ने हिंसा के बल पर जिस 'इस्त्राइल' नामक स्वतंत्र राष्ट्र की घोषणा की उसे मान्यता देने वाला भी अमेरिका दुनिया का पहला राष्ट्र था। यह सब कोई अकस्मात नहीं हुआ था बल्कि हैरी एस ट्रूमैन द्वारा चुनाव पूर्व यहूदियों को दिए गए उनके स्वतंत्र राष्ट्र की वायदे के मुताबिक हुआ था।


संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका की पोल 1965-66 में भी एक बार खुली थी जब यू एन ओ की निष्ठा के प्रति दुहाई देने वाला अमेरिका उसके प्रस्ताव नंबर 2232 को खुल्लम खुल्ला चुनौती देते हुए दियागा गार्सिया द्वीप को इंग्लैंड के साथ हड़प उसे दोनों ने अपना सामरिक अड्डा बना लिया। संयुक्त राष्ट्र संघ शाब्दिक निंदा के अलावा कुछ नहीं कर पाया।


संयुक्त राष्ट्र संघ के 20-21वें अधिवेशन में प्रस्ताव नंबर 2232 पास किया गया था। इस प्रस्ताव में कहां गया था कि औपनिवेशिक इलाकों की क्षेत्रीय अखंडता का आंशिक या पूर्ण उल्लंघन संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा पत्र तथा उसकी नियमावली के प्रस्ताव 1514(पराधीन देशों और जनगण को स्वतंत्रता प्रदान किया जाना) का उल्लंघन होगा। मगर ब्रिटेन और अमेरिका इस प्रस्ताव को ठेंगा दिखाते हुए 30 किलोमीटर वर्ग वाले मॉरीशस के द्वीप डियागो गार्सिया को हिंद महासागर में अपने संयुक्त हितों का सामरिक अड्डा बना लिया। बाद में ब्रिटेन ने इसे सन 2016 तक के लिए अमेरिका को ही किराए पर दे दिया। 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान अमेरिकी जंगी जहाज ‘इंटरप्राइज’ यहीं से चलकर बंगाल की खाड़ी पहुंचा था। वर्तमान खाड़ी युद्ध में कहर ढा रहे अमेरिका के बमवर्षक बी 52 यहीं से गए हैं।


ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि संयुक्त राष्ट्र संघ कभी विश्व कल्याण की संस्था ही नहीं रही। इसके उद्देश्य के मूल में सदैव अमेरिका तथा उसके साथ ही देशों का हित ही रहा है। वैसे यह स्वाभाविक भी है क्योंकि यह संस्था जिस लीग ऑफ नेशन नामक विश्व संस्था की कोख से निकली थी वह अमेरिकी राष्ट्र विल्सन की शांति थ्योरी पर आधारित है। यह बात अलग है कि तत्कालीन अमेरिकी संसद इतनी भी लिबरल नहीं थी कि वह लीग ऑफ नेशन को स्वीकार कर सकती। लीग ऑफ नेशन के बावजूद दूसरा विश्व युद्ध हो गया तो विजेता देश पुनः 1944 में वाशिंगटन के डंबरटन ओक्स नामक स्थान पर इकट्ठा हुए। जिस तरह पहले विश्व युद्ध के बाद शांति का ठेका विजयी राष्ट्रों(और उनमें भी सिर्फ अमेरिका) को मिला था उसी तरह इस बार भी शांति का ठेका विजयी देशों  ने अपने पास रखा। अगर समझा जाए तो इस विश्व संस्था का उदय ही मित्र देशों खासकर अमेरिका की मर्जी को संविधान बनाने के लिए हुआ। इसलिए इस संस्था से विश्व शांति और समानता की आशा करना ही बेमानी है। अगर विजेता देश सचमुच द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ईमानदारी से विश्व शांति के पक्षधर होते तो इस शांति योजना की रचना में शेष देशों को भी( खासकर पराजित) शामिल करते और तब इसका स्वरूप ही कुछ और होता। सच तो यह है कि अगर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व अमेरिका और सोवियत संघ नामक दो खेमों में न बंट जाता या अमेरिका के समानांतर सोवियत संघ न खड़ा होता तो अमेरिका और उसके साथी देश इस तथाकथित विश्व संस्था के जरिए भूषण का ऐसा खेल खेलते 18वीं -19वीं शताब्दी के ब्रिटिश सैन्य साम्राज्यवाद को भी मात कर देते। संभवत इसी वास्तविकता को ध्यान में रखकर सोवियत संघ ने अमेरिका के कोरिया हस्तक्षेप के बाद सुरक्षा परिषद को मान्यता प्रदान कर उसका बकायदा स्थाई सदस्य बन गया।


सोवियत संघ और चीन की सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य बनते ही यह विश्व संस्था इस कदर नाकारा हो गई थी कि इसमें कोई मसला ही नहीं हल हुआ यह सिर्फ राजनेताओं के लिए पिकनिक स्पॉट बन कर रह गई।


अगर लॉर्ड निस्टर के शब्दों में कहा जाए तो यू एन ओ उन प्रिफेक्टरों की तरह है जो छोटे बच्चों को अनुशासन में रखना चाहते हैं परंतु स्वयं उन नियमों से जिनसे वे शासन करना चाहते हैं, बरी रहना चाहते हैं। इसलिए समय आ गया है इस कठपुतली विश्व संस्था को या तो खत्म कर देना चाहिए या फिर इसे सही अर्थों में विश्व संस्था बनाने के लिए इसकी पूरे ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन करने चाहिए।


बी डी एस गौतम 



Friday, 26 March 2021

चांदी के वर्क से व्यंजनों की खूबसूरत सजावट ------ डाक्टर कृपा शंकर माथुर

 

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के भूतपूर्व सदस्य एवं लखनऊ विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉक्टर कृपा शंकर माथुर साहब मेरे पिता जी (विजय राजबली माथुर ) के मामा जी थे और उनका विशेष स्नेह सदा ही पिता जी पर रहा। 48 वर्ष की आयु में 21 सितंबर 1977 को उनके निधन का समाचार एवं चांदी के वर्क पर आधारित उनकी लेखमाला ( जो अपूर्ण रह गई ) का क्रमिक भाग 22 सितंबर 1977 के नवजीवन में पृष्ठ -5 पर प्रकाशित हुआ था जो संग्रह की दृष्टि से यहाँ प्रस्तुत है------ यशवंत राजबली माथुर
चांदी के वर्क से व्यंजनों की खूबसूरत सजावट
नवजीवन’ के विशेष अनुरोध पर डाक्टर कृपा शंकर माथुर ने लखनऊ की दस्तकारियों के संबंध में ये लेख लिखना स्वीकार किया था। यह लेख माला अभी अधूरी है, डाक्टर माथुर की मृत्यु के कारणवश अधूरी ही रह जाएगी, यह लेख इस शृंखला में अंतिम है। 

अगर आप से पूछा जाए कि आप सोना या चांदी खाना पसंद करेंगे, तो शायद आप इसे मजाक समझें लेकिन लखनऊ में और उत्तर भारत के अधिकांश बड़े शहरों में कम से कम चांदी वर्क के रूप में काफी खाई जाती है। हमारे मुअज़्जिज मेहमान युरोपियन और अमरीकन अक्सर मिठाई या पलाव पर लगे वर्क को हटाकर ही खाना पसंद करते हैं, लेकिन हम हिन्दुस्तानी चांदी के वर्क को बड़े शौक से खाते हैं। 

चांदी के वर्क का इस्तेमाल दो वजहों से किया जाता है। एक तो खाने की सजावट के लिये और दूसरे ताकत के लिये। मरीजों को फल के मुरब्बे के साथ चांदी का वर्क अक्सर हकीम लोग खाने को बताते हैं। 

कहा जाता है कि चांदी के वर्क को हिकमत में इस्तेमाल करने का ख्याल हकीम लुकमान के दिमाग में आया, सोने-चांदी मोती के कुशते तो दवाओं में दिये ही जाते हैं और दिये जाते रहे हैं, लेकिन चांदी के वर्क का इस्तेमाल लगता है कि यूनान और मुसलमानों की भारत को देन  है। चांदी के चौकोर टुकड़े को हथौड़ी से कूट-कूट कर कागज़ से भी पतला वर्क बनाना, इतना पतला कि वह खाने की चीज के साथ बगैर हलक में अटके खाया जा सके। कहते हैं कि यह विख्यात हकीम लुकमान की ही ईजाद थी। जिनकी वह ख्याति है कि मौत और बहम के अलावा हर चीज का इलाज उनके पास मौजूद था। 

लखनऊ के बाजारों में मिठाई अगर बगैर चांदी के वर्क के बने  तो बेचने वाला और खरीदने वाला दोनों देहाती कहे जाएंगे। त्योहार और खासकर ईद के मुबारक मौके पर शीरीनी और सिवई की सजावट चांदी के वर्क से कि जाती है। शादी ब्याह के मौके पर नारियल, सुपारी और बताशे को  भी चांदी के वर्क से मढ़ा जाता है। यह देखने में भी अच्छा लगता है और शुभ भी माना जाता है। क्योंकि चांदी हिंदुस्तान के सभी बाशिंदों में पवित्र और शुभ मानी जाती है। 

लखनऊ के पुराने शहर में चांदी के वर्क बनाने के काम में चार सौ के करीब कारीगर लगे हैं। यह ज्यादातर मुसलमान हैं, जो चौक और उसके आस-पास की गलियों में छोटी-छोटी सीलन भरी अंधेरी दुकानों में दिन भर बैठे हुए वर्क कूटते रहते हैं।ठक-ठक की आवाज से जो पत्थर की निहाई पर लोहे की हथौड़ी से कूटने पर पैदा होती है, गलियाँ गूँजती रहती हैं। 

इन्हीं में से एक कारीगर मोहम्मद आरिफ़ से हमने बातचीत की। इनके घर से पाँच-छह पुश्तों से वर्क बनाने का काम होता है। चांदी के आधा इंच वर्गाकार टुकड़ों को एक झिल्ली के खोल में रखकर पत्थर की निहाई पर और लोहे की हथौड़ी से कूटकर वर्क तैयार करते हैं। डेढ़ घंटे में कोई डेढ़ सौ वर्कों की गड्डी तैयार हो जाती है, लेकिन यह काम हर किसी के बस का नहीं है। हथौड़ी चलाना भी एक कला है और इसके सीखने में एक साल से कुछ अधिक समय लग जाता है। इसकी विशेषता यह है कि वर्क हर तरफ बराबर से पतला हो,चौकोर हो,और बीच से फटे नहीं। 

वर्क बनाने वाले कारीगर को रोजी तो कोई खास नहीं मिलती, पर यह जरूर है कि न तो कारीगर और न ही उसका बनाया हुआ सामान बेकार रहता  है। मार्केट सर्वे से पता चलता है कि चांदी के वर्क की खपत बढ़ गई है और अब यह माल देहातों में भी इस्तेमाल में आने लगा है। 
ठक…. ठक…. ठक। घड़ी की सुई जैसी नियमितता से हथौड़ी गिरती है और करीब डेढ़ घंटे में 150 वर्क तैयार।  





(यह नक्शा मामाजी ने अपने हाथ से बना कर 1973 में दिया था जब मैं मेरठ से लखनऊ एल आई सी 
की एक परीक्षा देने आया था और उनके पास यूनिवर्सिटी कैंपस स्थित 78 बादशाह बाग कालोनी आया था ------ विजय राजबली माथुर )




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Monday, 22 March 2021

भारतीय संस्कृति का मूल तत्व ----- - हरिदत्त शर्मा

 जिसकी विशिष्टता विदेशियों ने भी स्वीकार की
भारतीय संस्कृति का मूल तत्व
-श्री हरिदत्त शर्मा
(समाचार संपादक नवभारत टाईम्स)
आज के भारतीय बुद्धिजीवियों में यह शंका बार-बार पैदा होती है कि हम प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा से क्या ग्रहण करें? उनका आम ख्याल यह है कि जो अच्छा पुराना है, उसे ले लिया जाना चाहिए और जो सड़ -गल गया है उसे एकदम त्याग देना चाहिए। यह एकदम स्वस्थ दृष्टिकोण है।

बुद्धिजीवी वर्ग में एक ऐसा भी अंश है जो प्राचीन संस्कृति के किसी भी तत्व को आज के युग में उपयोगी नहीं मानता। उसका तर्क यह है आज का युग रॉकेट का युग है, इसलिए बैलगाड़ी के युग की पुरातन संस्कृति आज बिल्कुल निरर्थक है। उसका कहना यह भी है कि हम आज ही, आज के ही विज्ञान से परंपरा से हटकर अपनी नई संस्कृति का निर्माण करें और उसी संस्कृति के धरातल पर भव्य जीवन को प्रतिष्ठापित करें।
सतही तौर पर देखने से इन लोगों की यह बात ठीक सी लगती है और इसीलिए समाज का एक हिस्सा ऐसे बुद्धिजीवियों का अनुसरण कर ही रहा है।

जो लोग इस प्रश्न को सतही तौर पर नहीं लेते वे इस प्रवृत्ति को सामाजिक दृष्टि से भयावह मानते हैं, क्योंकि किसी भी देश की संस्कृति चाहे वह कितनी भी संकटापन्न रही है और चाहे उसमें कितने ही हीन भाव समाविष्ट क्यों न हो गए हों उसमें कहीं ना कहीं ऐसे सूत्र अवश्य होते हैं जो इंसानियत को किसी न किसी तरह से आगे बढ़ाते रहते हैं। इस तरह से वह संस्कृति विश्व संस्कृति का एक अंग बन जाती है। जहां तक भारत का संबंध है उसकी तो बड़ी-बड़ी उपलब्धियां रही हैं और उसने धर्म, कला और साहित्य के क्षेत्रों में विश्व मानवता की बड़ी सेवाएं की हैं। साथ ही यह भी समझ लेना आवश्यक है कि सांस्कृतिक धरातल पर मानव संबंध वैज्ञानिक प्रगति की प्रतिच्छाया मात्र नहीं होते। यह स्वयं मानव विज्ञान बताता है। भारत की पुरातन संस्कृति इस सत्य की साक्षी है।

विदेशी आक्रांत मिटाने में असफल रहे
 यह सही है कि हमारा भारत पिछले 13 - 14 सौ वर्ष से लगातार विदेशी आक्रमणों से आक्रांत रहा और उसका इस काल का इतिहास एक प्रकार से आक्रमणों और आंतरिक उथल-पुथल का इतिहास हो गया है। इससे इस दौर में हमारे यहां आत्मरक्षा की भावना बढ़ी और परिणामतः संस्कृति में संकोच भाव आया, जिसका प्रभाव हमारी राजनीति, अर्थनीति, समाज नीति और साहित्य पर भी बुरा पड़ा। किंतु इस कालावधि में भी ऐसे ऐसे नरपुंगव आए जिन्होंने  जड़ता को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े-बड़े सांस्कृतिक आंदोलन खड़े किए। इसीलिए यहां जड़ता में भी गतिशीलता की लहर चलती रही है और यही कारण है कि बड़े से बड़े संकट काल में भी भारतीय जनता की सिंहवृत्ति कायम रही। हमारी भारतीय जनता पर विदेशी आक्रांताओं ने जो जो अत्याचार किए वे संभवत: विश्व के किसी अन्य देश में नहीं किए गए होंगे। दारुण से दारुण पीड़ा भारतीय जनता ने झेली। उसमें कभी-कभी निराशा की अंधियारी भी छाई लेकिन अपनी संस्कृति की मूल भावना से बंधी होने के कारण वह पीड़ा से भी क्रीडा करती रही, अंधेरे में भी प्रकाश देखती रही हार में भी जीत की मानसिकता को कायम रखे रही।

संस्कृति की यह मूल भावना क्या है? कौन सी ऐसी वृत्ति है जो भारत की बहुसंनी संस्कृति में एकात्मकता स्थापित करके जीवित रखे रही? हमारी संस्कृति में ऐसी कौन सी शक्ति थी जिसने अरब, तुर्क, तातार, मुगल और अन्य आक्रमणकारियों को अपने रंग में रंग कर हिंदुस्तानी बना लिया था? यद्यपि अंग्रेज इस शक्ति के समक्ष नहीं झुका और उसने अपने बर्बर प्रहारों से पूरे तरीके से भारत को धराशाई करने की कोशिश की, तथापि भारत के सांस्कृतिक स्वरूप को नष्ट करने में वह समर्थ नहीं हो सका। इतना ही नहीं हार झ़ख मार कर हमारी संस्कृति के मूल स्रोतों के निकट जिज्ञासु की तरह बैठा और अपनी भाव धाराओं को उसके ज्ञान बल से सोखने लगा।

मार्क्स द्वारा प्रशंसा
फिर यही प्रश्न आता है कि इस महान संस्कृति का कौन सा तत्व भारतीय जनता को महान और वीर बनाए हुए था? एक शब्द में हम कह सकते हैं कि यह तत्व है; हमारी जनता का चैतन्य से विश्वास। इसी विश्वास में वह अमर है। इसी चैतन्य से उसे बुद्धि की तीक्ष्णता प्राप्त हुई है और इसी से नई से नई भावना ग्रहण करने की क्षमता। मार्क्स का कहना है स्वयं ब्रिटिश अधिकारियों की राय के अनुसार हिंदुओं में नहीं ढंग के काम सीखने और मशीनों का आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने की विशिष्ट योग्यता है। इस बात का प्रचुर प्रमाण कलकत्ते के सिक्के बनाने के कारखाने में काम करने वाले उन देशी इंजीनियरों की क्षमता तथा कौशल में मिलता है, जो  वर्षों  से भाप से चलने वाली मशीनों पर वहां काम कर रहे हैं। इसका प्रमाण हरिद्वार के कोयले वाले इलाकों में भाप से चलने वाले इंजनों से संबंधित भारतीयों में मिलता है और भी ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं।

मिस्टर कैंपबेल पर ईस्ट इंडिया कंपनी के पूर्वाग्रहों का बड़ा प्रभाव है पर वे  स्वयं भी इस बात को कहने के लिए मजबूर हैं कि: 'भारतीय जनता के बहुत संख्या समुदाय में जबरदस्त औद्योगिक क्षमता मौजूद है' पूंजी जमा करने की तुममें अच्छी योग्यता है गणित संबंधी उसके मस्तिष्क की योग्यताबद्ध भावना  है तथा हिसाब किताब के विषय और विज्ञान में वह बहुत सुगमता से दक्षता प्राप्त कर लेती है। वह कहते हैं, उनकी बुद्धि बहुत तीक्ष्ण होती है।

चैतन्य में (सद के प्रति आग्रह रखते हुए) विचार और कर्म की एकात्मकता आस्था होने से ही जनता ने अंग्रेजी शासनकाल में भी अंधकार में से प्रकाश प्राप्त कर लिया। इंग्लैंड का भारत पर शासन निकृष्टतम उद्देश्यों को लेकर हुआ था किंतु भारतीय जनता ने अपनी चैतन्य आस्था के कारण सामाजिक क्रांति करके अपने को नए वैज्ञानिक युग के अनुकूल ढाल लिया। अंग्रेजों ने उसकी यह कुशाग्रता देखकर उसे भ्रष्ट शिक्षा पद्धति दी, उसे कलंकमय मानसिकता की ओर प्रेरित किया, किंतु भारतीय जनता के सपूत विश्व जीवन के सभी क्षेत्रों में योगदान करने योग्य बन गए।

संघर्ष की प्रेरणा
26-01-1975, प्रभात, मेरठ 
अंग्रेजी शासन के जाने पर यद्यपि देश विभाजन की घोर विडंबना भारत धरा पर आई और उसके बाद उसे निरंतर दुख पर दुख उठाने पड़े, यहां तक कि  अपने उत्तरी सीमांतों पर विदेशी आक्रमण का झंझावात भी से सहना पड़ा, लेकिन उसका चैतन्य में इतना विश्वास है कि आज भी आगे बढ़ रही है। कुंठा और अवसाद के विष  को नीलकंठ के सामने अपने कंठ में रख लिया है और स्थिर चित्त से चित्तमय पथ की ओर चली ही जा रही है।

इसका तात्पर्य है कि हमारी संस्कृति की मूल धारा चैतन्यमय होकर प्रवाहित होती रही है। उसने जनमानस को अपनी प्रकाश किरणों से ज्वलंत रखा है। दोष उन लोगों का रहा जो धन और सजा की लोलुपता से पथभ्रष्ट हो गए, यानी कि दोष संस्कृति का न हो कर शोषक और शासक का रहा। आज भी यही दोष है। हमारी समृद्ध सांस्कृतिक परंपराएं दूषण के विरुद्ध संघर्षरत होने की प्रेरणा दे रही हैं। इस दूषण में पुराने और नए दोनों दोष सम्मिलित हैं। भारत की चैतन्यवृत्ति अर्थात संस्कृति की अग्नि इस दूषण की राख - राख कर देना चाहती है। वह हर क्षण तेज को उद्दीप्त कर रही है, उस तेज को जो पापपंक और रूढ़ियों के कूड़े करकट को जला डालता है और पुष्पमय भावनाओं को तपा-तपाकर कुंदन बना देता है। इसका प्रमाण है कि हमारे समाज में सांस्कृतिक आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष लगातार चलता रहता है।

यह सही है कि हमारे इन संघर्षों में दिशा हीनता भी आ जाती है, लेकिन यह भी तो सही है कि हमारे समाज के धनपति और सत्ताधिकारी  माया की तमिस्त्रा फैलाते रहते हैं। अंधेरे और उजाले की लड़ाई में अंधियारे की अधिकाई से अनेक बार रास्ता सूझना बंद हो जाता है, लेकिन प्रकाश सदा परास्त नहीं रहता। हमारा देश ज्योति, सद,अमृत अथवा चैतन्य से बंधा है, उसके पास वह श्रेष्ठ परंपरा है जिसके राम अविभक्त संपत्ति के सिद्धांत पुरस्कर्त हैं, यानी कि उनकी परंपरा मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण के विरुद्ध होने से आज के युग सत्य में समाहित हो जाती है।
                                                                                                           -युगवार्ता





Thursday, 24 October 2019

बाबूजी को जन्मशती पर ' विजय विचार ' श्रद्धासुमन के रूप में समर्पित ------ विजय राजबली माथुर

जन्म:24-10-1919,दरियाबाद (बाराबंकी );मृत्यु:13-06-1995;आगरा  


हमारे बाबूजी स्व ताजराज बली माथुर  की जन्मपत्री के अनुसार 24 अक्तूबर 2019 को वह शतायु को प्राप्त करते। उनकी स्मृति में यह पुस्तक  ' विजय विचार ' श्रद्धासुमन के रूप में प्रस्तुत है ।
आज कुछ लोगों को यह प्रयास हास्यास्पद इसलिए लग सकता है क्योंकि आम धारणा है कि हमारा देश जाहिलों का देश था और हमें विज्ञान से विदेशियों ने परिचित कराया है। जबकि यह कोरा भ्रम ही है। वस्तुतः हमारा प्राचीन विज्ञान जितना  आगे था उसके किसी भी कोने तक आधुनिक विज्ञान पहुंचा ही नहीं है। हमारे पोंगा-पंथियों की मेहरबानी से हमारा समस्त विज्ञान विदेशी अपहृत कर ले गये और हम उनके परमुखापेक्षी बन गये ,इसीलिये मेरा उद्देश्य "अपने सुप्त ज्ञान को जनता जाग्रत कर सके " ऐसे आलेख प्रस्तुत करना है। मैं प्रयास ही कर सकता हूँ ,किसी को भी मानने या स्वीकार करने क़े लिये बाध्य नहीं कर सकता न ही कोई विवाद खड़ा करना चाहता हूँ । हाँ देश-हित और जन-कल्याण की भावना में ऐसे प्रयास जारी ज़रूर रखूंगा।   मैं देश-भक्त जनता से यह भी निवेदन करना चाहता हूँ कि,हमारी परम्परा में देश-हित,राष्ट्र-हित सर्वोपरी रहे हैं।
मेरे निष्कर्षों एवं दृष्टिकोण का लोगों द्वारा मखौल बनाने पर मैंने अपने माता-पिता से कहा था--एक दिन लोग इन पर डाक्टरेट हासिल करेंगें.मेरी छोटी बहन श्रीमती शोभा माथुर(पत्नी स्व कमलेश बिहारी माथुर,अवकाश-प्राप्त फोरमैन,बी.एच.ई.एल.,झाँसी) ने अपनी संस्कृत क़े राम विषयक नाटक की थीसिस में मेरे 'रावण-वध एक पूर्व निर्धारित योजना 'को उधृत किया है.इस प्रकार माता-पिता क़े  जीवन काल में ही मेरे लेखों को आगरा विश्वविद्यालय से   डाक्टरेट हासिल करने में बहन ने प्रयोग कर लिया और मेरा अनुमान सही निकला।
सत्य,सत्य होता है और इसे अधिक समय तक दबाया नहीं जा सकता। एक न एक दिन लोगों को सत्य स्वीकार करना ही पड़ेगा तथा ढोंग एवं पाखण्ड का भांडा फूटेगा ही फूटेगा.राम और कृष्ण को पूजनीय बना कर उनके अनुकरणीय आचरण से बचने का जो स्वांग ढोंगियों तथा पाखंडियों ने रच रखा है उस पर प्रहार करने का यह मेरा छोटा सा प्रयास था इसके आधार संत श्यामजी पाराशर लिखित पुस्तक 'रामायण का ऐतिहासिक महत्व' व डॉ रघुवीर शरण 'मित्र' लिखित खंड काव्य ' भूमिजा ' का अध्ययन रहे थे।
      सिलीगुड़ी से  बाबू जी को ट्रांसफर ऑर्डर न मिल पाने के कारण   सितम्बर 1967 में A T मेल से RESERVATION कराकर बैठा दिया। माँ को पहली बार हम तीनों भाई-बहनों को लेकर अकेले सफ़र करना था वह भी एक दम इतनी लम्बी दूरी का परन्तु उन्होंने कहीं भी साहस नहीं छोड़ा। गाड़ी लखनऊ चारबाग की छोटी लाइन पर पहुंची और बड़ी लाइन की गाड़ी से शाहजहांपुर जाना था। छोटी लाइन के कुली काली पोशाक पहनते थे और बड़ी लाइन के कुली लाल पोशाक.एक दूसरे के स्टेशनों में नहीं जाते थे। परन्तु छोटी लाइन का एक कुली भला निकल आया उसने छोटी लाइन से ले जा कर बड़ी लाइन से शाहजहांपुर को छूटने वाली पैसेंजर गाड़ी में सामान कई फेरों में ले जा कर पहुंचा दिया। शायद कुछ ज्यादा रु.लिए होंगे। वह कुली मुझे और अजय को सामान के साथ लाकर इंजन के ठीक पीछे वाले डिब्बे में बैठा गया। सामान ज्यादा था क्योंकि बाद में बाबू जी को अकेले आना था कितना सामान ला पते?कुली बीच में अकेला ही सामान ढो कर लाया और हम भाइयों के पास रख गया। तीसरी या चौथी बार के फेरे में माँ और शोभा भी आये;गाड़ी सीटी देने लगी थी,गार्ड ने हरी झंडी दिखा दी थी। कुली ने दौड़ लगा कर पटरियां फांद कर इंजन के सामने से सामान ला दिया और भाप इंजन के ड्राइवर को रुकने का इशारा किया जब माँ और शोभा डिब्बे में चढ़ गए तब कुली ने मेहनताना लिया और धीमी चलती गाड़ी से उतर गया। आज का ज़माना होता तो लम्बी गाड़ी में इंजन का हार्न और गार्ड की सीटी की आवाज़ भी सुनाई नहीं देती और विद्युत् गति में गाड़ी दौड़ जाती। उस समय तक भलमनसाहत थी। वह अज्ञात कुली हम लोगों के लिए देवदूत समान था उसे  भी लाखों नमन।
वीरेंद्र चाचा ( न्यूयार्क प्रवासी बाबूजी के एक चचेरे भाई ) ने मुझसे 2016 में यहाँ मिलने पर मुझसे मेरे  कुछ विचारों को पुस्तक रूप में छ्पवा लेने का सुझाव दिया था। मेरी श्रीमतीजी पूनम को यह सुझाव काफी अच्छा  लगा , उनके सान्निध्य और पुत्र यशवंत के सक्रिय सहयोग से ये विचार पुस्तकाकार रूप ले सके हैं।यही हम सबकी ओर से बाबूजी को उनकी जन्मशती पर सादर श्रद्धांजली है।  

Tuesday, 25 June 2019

जननी,माँ,माता : निर्माता - पुण्यतिथि पर स्मरण

(स्व.कृष्णा माथुर : जन्म- 20 अप्रैल 1924,शाहजहाँपुर , मृत्यु - 25 जून 1995,आगरा  )


हम लोगों के यहाँ माँ को बउआ कहने का रिवाज था वही हमें भी बताया गया था आजकल फैशन में कुछ लोग मम्मी उच्चारित करने लगे हैं किन्तु हम अब भी वही ज़िक्र करते हैं जो बचपन से सिखाया गया था। हाँ सहूलियत के लिए कभी-कभी माँ कह देते हैं। जो ममत्व दे वह माँ और जो निर्माण करे वह माता कहलाने के योग्य होता है। श्री कृष्ण के लिए देवकी जननी तो थीं किन्तु माँ और माता की भूमिका का निर्वहन यशोदा ने किया था। इस दृष्टि से मैं खुद को भाग्यशाली समझ सकता हूँ कि हमारी बउआ  सिर्फ जननी ही नहीं वास्तव में माँ और माता भी थीं।सिर्फ बाबूजी ही नहीं बउआ की बताई -सिखाई बातों का भी प्रभाव आज तक मुझ पर कायम है जबकि दोनों को यह संसार छोड़े हुये अब चौबीस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। वैसे हमारे नानाजी ने मौसी को 5 वीं तथा बउआ को 4थी कक्षा तक ही पढ़वाया था। लेकिन बउआ का व्यवहारिक अनुभव आजकल के Phd. पढे लोगों से कहीं अधिक और सटीक था उनकी खुद की पुत्री भी डबल एम ए, Phd.होने के बावजूद अपनी माँ के बराबर ज्ञानार्जन न कर सकी हैं जिसका एक कारण अपनी माँ को ही अल्पज्ञ समझना भी है।

जहां तक मैं कर सका बउआ व बाबूजी की परम्पराओं व बातों को मानने का पूरा-पूरा प्रयास किया। लेकिन विद्रोहात्मक स्वभाव के कारण सड़ी-गली मान्यताओं को उनके जीवन काल में उनसे ही परिपालन न करने-कराने  की कोशिश करता रहा और अब पूरी तौर पर अव्यवहारिक व भेदभावमूलक मान्यताओं का पालन नहीं करता हूँ। व्यक्तिगत रूप से एकांतप्रिय स्वभाव अनायास ही नहीं बन गया है बल्कि बचपन से ही एकांत में मस्त रहने का अभ्यस्त रहा। इसका प्रमाण यह चित्र है :


मथुरानगर, दरियाबाद के पुश्तैनी घर में बड़े ताऊजी की बड़ी बेटी स्व.माधुरी जीजी अपनी चाची अर्थात हमारी बउआ से मुझे मांग कर ले जाती थीं और अपनी छोटी बहनों के साथ खेलने लगती थीं। मुझे एक तरफ बैठा देती थीं मुझे उन बड़ी बहनों के खेल में दिलचस्पी नहीं रही होगी तभी तो बेर के पत्तों से अकेले ही खेल लेता था। उन पत्तों में कांटे भी हो सकते हों परंतु मुझे कभी किसी कांटे से फर्क नहीं पड़ा होगा अन्यथा फिर जीजी मुझे कभी अपने साथ न ले जा पातीं। संघर्षों व अभावों से झूझते हुये बउआ ने बचपन से ही मेरी मानसिकता को जिस प्रकार ढाला था उसे मजबूती के साथ अपनाए हुये मैं आज भी अपने को सफल समझता हूँ। हाँ पत्नि व पुत्र के लिए ये स्थितियाँ अटपटी लगने वाली हैं। परंतु मेरे लिए नहीं जिसका उदाहरण पूर्व प्रकाशित लेख का यह अंश है

"पत्रकार स्व .शारदा पाठक ने स्वंय अपने लिए जो पंक्तियाँ लिखी थीं ,मैं भी अपने ऊपर लागू समझता हूँ :-

" लोग कहते हम हैं काठ क़े उल्लू ,हम कहते हम हैं सोने क़े .
इस दुनिया में बड़े मजे हैं  उल्लू   होने   क़े .."

ऐसा इसलिए समझता हूँ जैसा कि सरदार पटेल क़े बारदौली वाले किसान आन्दोलन क़े दौरान बिजौली में क्रांतिकारी स्व .विजय सिंह 'पथिक 'अपने लिए कहते थे मैं उसे ही अपने लिए दोहराता रहता हूँ :-
यश ,वैभव ,सुख की चाह नहीं ,परवाह नहीं जीवन न रहे .
इच्छा है ,यह है ,जग में स्वेच्छाचार  औ दमन न रहे .."

Sunday, 23 June 2019

हँसता हुआ भागा रोता हुआ रोगी और एक ही फायर में मुर्दा जी उठा ---विजय राजबली माथुर

(स्व .हर मुरारी लाल ,स्व.के .एम् .लाल और स्व .सावित्री देवी माथुर )


56  वर्ष पूर्व बउआ के फूफाजी से  सुनी हुई  बातों का  स्मरण

अक्सर वह हमारे नानाजी से मिलने आते रहते थे और हम लोग बाबूजी की सिलीगुड़ी पोस्टिंग के दौरान नानाजी के पास कुछ वर्ष रहे थे अतः उनकी बातें सुनने का सौभाग्य मिल गया था। कुछ रहस्यपूर्ण राजनीतिक बातें तो उन्होने विशेष रूप से मुझसे ही की थीं जिस पर नाना जी और उनके दूसरे भाई भी आश्चर्य चकित हुये थे तथा उनसे प्रश्न किया था कि उन लोगों को अब तक ये बातें क्यों नहीं बताई थीं?जिसके उत्तर में उनका कहना था यह लड़का आगे इंनका लाभ उठा सकेगा आप लोग सुन कर भी कुछ नहीं करते। उनका आंकलन गलत नहीं था परंतु मैं उनके अनुमान का आधार नहीं जानता। इसी प्रकार चूंकि नानाजी होम्योपेथी चिकित्सा करते थे उनसे चिकित्सकों के बारे में वह चर्चाएं करते रहते थे। उन्हीं में से कुछ पर प्रकाश डाल रहा हूँ।

एक घटना के बारे में उन्होने बताया था कि एक डाक्टर साहब नियमों के पक्के और हर गरीब-अमीर से समान व्यवहार करने वाले थे। उनके पास मरीजों की काफी भीड़ लगी रहती थी क्योंकि वह नाम मात्र शुल्क पर इलाज करते थे। एक रोज़ उनके क्षेत्र का एक सफाई कर्मी रोता चिल्लाता उनके पास लाया गया और उनसे अनुरोध किया गया कि वह उसे पहले देख लें। किन्तु उन्होने उसे अपने नंबर आने तक इंतज़ार कराने को कहा। उसकी कराह और पीड़ा को देख कर दूसरे मरीजों ने भी आग्रह किया कि डॉ साहब उसको ही पहले देख लीजिये। लेकिन डॉ साहब ने नियम का हवाला देते हुये उसे अपनी बारी का इंतज़ार  करने को कहा। डॉ साहब ने तब तक के लिए उसके  तीमारदार से उसे भुने चने खिलाते रहने को कह दिया। दो -ढाई घंटे बाद जब उसको नंबर आने पर बुलाया गया तब वह नदारद था। इंतज़ार में बैठे बाकी मरीजों ने बताया कि डॉ साहब वह तो हँसता-हँसता चला गया यह कहता हुआ कि ,"कौन डॉ साहब का इन्तजार करे?मेरा तो दर्द उनको दिखाये बगैर ही ठीक हो गया।अब तो मैं शौच को जा रहा हूँ ।  "
डॉ साहब ने भी हँसते हुये कहा कि उसके दर्द की वही दवा थी जो मैंने उसको दिलवा दी थी तो फायदा तो होना ही था और इस बात को मैं जानता था। लोगों की उत्सुकता पर डॉ साहब ने बताया कि कल रात बस्ती में एक शादी थी जिसमें उसने खूब चर्बी वाले भोजन खाये होंगे और वह चर्बी आंतों पर दबाव बना रही होगी जिसको भुने चनों ने सोख लिया और  उसका पेट दर्द खत्म हो गया होगा ।

एक और घटना का ज़िक्र नानाजी से माँ के फूफा जी ने जो किया था उसका उल्लेख करना इसलिए ज़रूरी है कि आज के एलोपेथी चिकित्सक तो इस घटना को झुठला देंगे जबकि वह डॉ साहब भी एलोपेथी के ही थे। उनकी बताई घटना इस प्रकार थी :
एक गर्भिणी स्त्री को अक्सर मूर्च्छा आ जाया करती थी जिसका इलाज यह डॉ साहब करते थे। किन्तु किसी रिश्तेदार के कहने पर उस महिला के घर वालों ने किसी बड़े डॉ के फेर में इनको दिखाना बंद कर दिया था। एक सुबह जब डॉ साहब टहल कर लौट रहे थे तो उन्होने देखा कि उस महिला के घर वाले एक अर्थी ले जा रहे हैं जिससे खून की बूंदें भी टपकती जा रही थीं। किसी से उन्होने उत्सुकता वश पूछ लिया कि कौन है यह जब उनको बताया गया कि एक प्रिगनेंट औरत कल रात में मर गई है और यह उसी की अर्थी है। डॉ साहब बुदबुदाये कि ज़िंदा को फूंकने जा रहे हैं ,पुलिस को खबर हो जाये तो सबके सब बंद हो जाएँगे और तेज़-तेज़ कदमों से आगे बढ़ गए।

डॉ साहब की बात पर लोगों में फुसफुसाहट हुई कि डॉ साहब ने यह क्यों कहा कि ज़िंदा को फूंकने जा रहे हैं। कुछ जानकारों ने हिम्मत करके लपक कर डॉ साहब को रोका और पूछा कि डॉ साहब आप क्या कह रहे थे?डॉ साहब बोले कि कुछ नहीं कहा आप लोग अपना काम करें। एक साहब बोले कि डॉ साहब आपने कहा था कि ज़िंदा को फूंकने जा रहे हैं। डॉ साहब बोले तो जाओ फूँकों। लोगों की मिन्नत के बाद बोले कि इस मुर्दे को लेकर हमारे साथ हमारे घर चलो । लोगों ने वैसा ही किया।

अपने घर के चबूतरे पर डॉ साहब ने उस महिला की अर्थी को रखवा कर उसके बंधन खुलवा दिये और खुद घर के भीतर घुस गए। जब लौटे तो उनके हाथ में लोडेड बंदूक थी । लोगों ने कहा कि डॉ साहब यह क्या?तब तक डॉ साहब ने हवा में फायर कर दिया और वह महिला हिलने-डुलने लगी। थोड़ी देर में उसने पूछा यह क्या तमाशा है हमारे साथ यह भीड़ क्यों और हमें बांधा क्यों?अब तो सभी लोगों के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। डॉ साहब ने अपने घर से उस महिला को वस्त्र दिलवाए और लोगों को सख्त हिदायत दी कि अब से कभी भी मूर्छा आने पर वह किसी और डॉ के पास नहीं जाएँगे तथा उनको ही सूचित करेंगे। निर्धारित समय पर उस महिला ने संतान को जन्म दिया और स्वस्थ रही।

दरअसल उस महिला को मिर्गी  नहीं थी जैसा कि उसके घर वाले समझते थे और दूसरे डॉ साहब भी। उस महिला का गर्भस्थ शिशु कभी कभी स्थानच्युत होकर अपना हाथ उस महिला के हृदय पर रख देता था जिससे उतनी देर को वह महिला मूर्छावस्था में पहुँच जाती थी। जब तक इन डॉ साहब को बुलाया जाता था यह बिना कोई दवा दिये उसके पेट पर हाथ फेर कर शिशु को सही अवस्था में पहुंचा देते थे जिससे मूर्छा हट जाती थी। लेकिन घर के लोग मृगि  के शक में दूसरे डॉ से दिखाने लगे जिनको इस तथ्य का पता न था। विगत दिवस की घटना में वह गर्भस्थ शिशु अपनी माँ के हृदय पर हाथ रखने के बाद सो गया था और मूर्छा लंबी होने से घर वालों ने मृत मान कर दाह-संस्कार का निर्णय कर लिया था। इत्तिफ़ाक से यह डॉ साहब टहल कर लौट रहे थे तो अर्थी से गिरती खून की बूंदों को देख कर समझ गए थे कि उस महिला की मौत नहीं हुई है। उनके द्वारा बंदूक के फायर करने से गर्भस्थ शिशु जाग गया था और उसने अपना हाथ अपनी माँ के हृदय के ऊपर से हटा लिया था जिससे वह पूर्व वत गतिमान हो गई थी।

लोगों की ज़रा सी चूक और दूसरे डॉ द्वारा हकीकत न समझने से एक महिला और उसके अजन्मे शिशु की अकारण मौत हो सकती थी जिसे इन अनुभवी चिकित्सक की सूझ बूझ से बचा लिया गया था।

नानाजी और बउआ के फूफाजी के मध्य होने वाली तमाम राजनीतिक बातों को ध्यान में रख कर मैं व्यवहार की कसौटी पर कई बार कस चुका हूँ।