Tuesday 7 February 2023

व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर जन्मगत जाति -व्यवस्था निर्मित की थी ------विजय राजबली माथुर

 


  प्रतिवर्ष विभिन्न कायस्थ समाजों की ओर से देश भर मे भाई-दोज के अवसर पर कायस्थों के उत्पत्तिकारक के रूप मे 'चित्रगुप्त जयंती'मनाई जाती है ।  'कायस्थ बंधु' बड़े गर्व से पुरोहितवादी/ब्राह्मणवादी कहानी को कह व सुना तथा लिख -दोहरा कर प्रसन्न होते रहे हैं। परंतु सच्चाई को न कोई समझना चाह रहा है न कोई बताना चाह रहा है।

 आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा मे दीपावली पर्व के प्रवचनों मे स्वामी स्वरूपानन्द जी ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था और उनसे पूर्व प्राचार्य उमेश चंद्र कुलश्रेष्ठ जी ने पूर्ण सहमति व्यक्त की थी। यथा : 


"प्रत्येक प्राणी के शरीर मे 'आत्मा' के साथ 'कारण शरीर' व 'सूक्ष्म शरीर' भी रहते हैं। यह भौतिक शरीर तो मृत्यु होने पर नष्ट हो जाता है किन्तु 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म शरीर' आत्मा के साथ-साथ तब तक चलते हैं जब तक कि,'आत्मा' को मोक्ष न मिल जाये। इस सूक्ष्म शरीर मे -'चित्त'(मन)पर 'गुप्त'रूप से समस्त कर्मों-सदकर्म,दुष्कर्म और अकर्म अंकित होते रहते हैं। इसी प्रणाली को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है। इन कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद पुनः दूसरा शरीर और लिंग इस 'चित्रगुप्त' मे अंकन के आधार पर ही मिलता है। अतः  'मन'अर्थात 'चित्त' को शुद्ध व सतर्क रखने के उद्देश्य से  चित्रगुप्त पूजा का पर्व दीपावली के बाद दोज पर मनाया जाता था। इस हेतु विशेष आहुतियाँ हवन मे दी जाती थीं।" 

आज कोई ऐसा नहीं करता है। बाजारवाद के जमाने मे भव्यता-प्रदर्शन दूसरों को हेय समझना आदि ही ध्येय रह गया है। यह विकृति और अप-संस्कृति है। काश लोग अपने अतीत को पहचान सकें और समस्त मानवता के कल्याण -मार्ग को पुनः अपना सकें। 

अब इस पर्व को एक जाति-वर्ग विशेष तक सीमित कर दिया गया है।

  पौराणिक-पोंगापंथी -ब्राह्मणवादी व्यवस्था मे जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।

 'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ

क=काया या ब्रह्मा ;

अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;

स्थ=स्थित। 

'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म से अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति।  

आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव जब अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। क्योंकि ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे  अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी  अस्पताल मे आज भी जेनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही लिखा मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-

1- जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 

2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 

3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको  'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 

4-जो लोग विभिन्न  सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने तथा इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य माना जाता था। 

ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ  ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था। ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे। 

 कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके  शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता  आधारित उपाधि-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया। खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है। 

यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुये भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण  व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।


लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि, अब पतन की पराकाष्ठा पर  पहुंचे कायस्थ क्या कह और कर रहे हैं। एक मुस्लिम का हुक्का गुड़गुड़ाने पर आक्षेप लगने से आहत हुये नरेन्द्र्नाथ दत्त  ने रामकृष्ण  परमहंस से जो ज्ञान प्राप्त किया उसी के आधार पर समाज में व्याप्त कुरीतियों, ढोंग और पाखंड पर करारा प्रहार किया था । स्वामी विवेकानंद के रूप में उनका कहना था जब तक भारत की एक भी झोंपड़ी में प्रकाश का आभाव रहता है और एक भी आदमी भूखा रहता है तब तक भारत का विकास नहीं हो सकता है। 

यह एक विडम्बना ही है कि, भारत के कम्युनिस्टों ने स्वामी विवेकानंद को नहीं अपनाया बल्कि, विभाजन, विग्रह और द्वेष पर आधारित संगठनों ने उनके नाम का भारी दुरुपयोग कर रखा है। 



Sunday 20 November 2022

हाथ देख कर यह कैसे पता चल सकता है ?

 20-11-2015 को प्रकाशित ------ 

हमारे रिश्ते में एक और भतीजे थे राय राजेश्वर बली जो  आज़ादी से पहले यू पी गवर्नर के एजुकेशन सेक्रेटरी भी रहे और रेलवे बोर्ड के सदस्य भी। उन्होने ही 'भातखण्डे यूनिवर्सिटी आफ हिन्दुस्तानी म्यूज़िक' की स्थापना करवाई थी जो अब डीम्ड यूनिवर्सिटी के रूप में सरकार द्वारा संचालित है। उसके पीछे ही उनके ही एक उत्तराधिकारी की यादगार में 'राय उमानाथ बली' प्रेक्षागृह है , वह भी सरकार द्वारा संचालित है। 

अपने से 15 वर्ष बड़े जिन भतीजे का ज़िक्र किया है वह भी उनके ही परिवार से हैं। राय राजेश्वर बली साहब की एक बहन के पौत्र डॉ पी डी पी माथुर साहब से मेरठ में तब संपर्क था जब वह वहाँ एडीशनल CMO थे , जो बाद में उत्तर-प्रदेश के डी जी हेल्थ भी बने थे। उम्र में काफी बड़े होने किन्तु रिश्ते में छह पीढ़ी छोटे होने के कारण वह मुझे भाई साहब कह कर  ही संबोधित करते थे। 

राय राजेश्वर बली साहब की एक भुआ (जो हमारी बहन हुईं ) से मुलाक़ात आगरा में हुई थी , वह भी मुझसे काफी बड़ी थीं बल्कि उनके पुत्र डॉ अजित ही (जो माथुर सभा, आगरा के अध्यक्ष भी रहे )  मुझसे उम्र में बड़े होने के कारण मुझे भाई साहब ही संबोधित करते रहे। डॉ अजित के घर एक बार उनके बहन-बहनोई भी मिले थे और उन लोगों ने अपने बारे में हस्तरेखा के आधार पर जानकारी भी हासिल की थी। डॉ साहब के बहनोई साहब ज्योतिष पर विश्वास नहीं करते थे और उनसे यह पहली ही मुलाक़ात थी वह हाथ दिखाने के इच्छुक भी नहीं थे; किन्तु डॉ साहब की पत्नी जी के कहने पर  अन्यमन्सकता  पूर्वक राज़ी हुये थे। जब मैंने पहले उल्टे दोनों हाथ और उसके बाद हथेलियों का अवलोकन करने के बाद उनसे कहा कि, आप को या तो मिलेटरी में होना चाहिए या फिर डॉ होना चाहिए। तब उनको कुछ विश्वास हुआ और उन्होने प्रश्न किया कि हाथ देख कर यह कैसे पता चल सकता है ? उनको उनके हाथ की स्थिति से समझा दिया। उन्होने स्वीकार किया कि दोनों बातें सही हैं वह ए एम सी (ARMY MEDICAL COR ) में डॉ है। फिर जो भी बातें उनको बताईं सभी को उन्होने स्वीकार किया और आश्चर्य भी व्यक्त किया कि मैंने सही बता दिया जबकि पंडित लोग नहीं बताते हैं। मैंने उनको स्पष्ट किया कि पंडित  जो मंदिर का पुजारी होगा या कर्मकांडी ज़रूरी नहीं कि ज्योतिष जानता भी हो लेकिन जनता को ठगता ज़रूर है वह सही बता ही नहीं सकता है। परंतु दुर्भाग्य से लोग बाग  पहले तो ऐसे धोखेबाज़ों को ही ज्योतिषी मानते व लुटते हैं फिर ज्योतिष की निंदा करने लगते हैं। मैं खुद भी ऐसे पंडितों का पर्दाफाश करने के लिए ही ज्योतिष के क्षेत्र में उतरा जबकि पहले ज्योतिष पर उन लोगों के कारण ही विश्वास नहीं करता था ।

Sunday 25 September 2022

नहीं कटवाए गए थे ताज बनाने वालों के ह‍ाथ ------ Mahendra Neh



Mahendra Neh

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नहीं कटवाए गए थे ताज बनाने वालों के ह‍ाथ 

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- ऐसी अफवाह है कि शाहजहां ने ताज बनाने वाले 20 हजार मजदूरों के हाथ कटवा दिए थे।

- इसके पीछे वजह बताई जाती है कि शाहजहां चाहता था कि दोबरा कोई ताज जैसी स्माारक न बनवा सके।

- लेकिन इतिहासकार राजकिशोर के अनुसार, शाहजहां ने ताज के निर्माण के बाद कारीगरोंं से आजीवन काम न करने का वादा लिया था।

- इसके बदले कारीगरों को जिंदगी भर वेतन देने का वादा किया गया था।

- कारीगरों के हाथों के हुनर का काम करने से रोक देने को दूसरे शब्दों  में हाथ काटना कहा गया।

- शाहजहां ने ताज के पास 400 साले पहले मजदूरों के लिए ताजगंज नाम से बस्तीा बसा दी थी।

- ताज निर्माण के समय मजदूर और आर्किटेक्टस यहीं रहा करते थे।

- इनमें से कुछ मजदूरों और आर्के टिक्टर को ताज के साथ-साथ दिल्ली  के लाल किला निर्माण में भी लगाया गया था।

- अब भी यहां उन मजदूरों के वंशज यहां रह रहे हैं। यहां के निवासी ताहिर उद्दीन ताहिर का कहना है कि उन्हेंम गर्व है कि उनके पूर्वजों ने ताजमहल बनाने में हिस्सा  लिया।

- हाथ काटने की अफवाह में जरा भी सच्चांई नहीं है।

ताज का नक्शाक बनाने वाले को मिलती थी 1 हजार रु सैलरी

- शाहजहां को इमारतें बनवाने का शौक था। ताज पहली इमारत थी, जिसका निर्माण उन्हों ने कराया।

- दूरदराज से तमाम बेहतरीन कारीगर पैसों के लालच में आगरा में आकर बस गए थे।

- भारत ही नहीं अरब पर्सिया और तुर्की से वास्तु विदों, मिर्ताणकर्ताओं और पच्चीहकारी के कलाकारों को बुलाया गया था।

- ताज का नक्शा  बहुतों ने बनाया, लेकिन शाहजहां को उस्तारद ईसा आफदी का डिजाइन पसंद आया।

- जबकि पत्थ्रों पर शब्दं उकेरने का काम अमानत खान शिरजी को सौंपा गया।

- शाहजहां इन दोनों को काम के बदले 1 हजार रुपए प्रतिमाह सैलरी देता था, जोकि उस समय बहुत ज्याादा थी।

- आफदी के साथ चार अन्यक लोगों को नक्शेह के काम के लिए समान वेतन पर रखा गया था।

तुर्की के कारीगर ने बनाया था ताज का गुंबद

- तुर्की के कारीगर इस्माइल खान को ताज का गुंबद बनाने की जिम्मेमदारी मिली थी।

- इसके लिए उन्हें 500 रुपए प्रति महीने सैलरी मिलती थी।

- वहीं, 200 रुपए महीने पर लाहौर के कासिम खान ने कलश बनाने की जिम्मेदारी संभाली।

- मनोहर लाल मन्नू को 500 रुपए प्रति महीने में पच्चीकारी का काम सौंपा गया था।

- गुम्बद तैयार करने की जिम्मेदारी तुर्की के कारीगर इस्माइल खान को मिली और इसके लिए उन्हें 500 रुपये महीना पर रखा गया।

- 200 रुपए महीने पर लाहौर अब पकिस्तान के कासिम खान ने कलश बनाने की जिम्मेदारी संभाली।

- मनोहर लाल मन्नू लाल मोहन लाल को 500 रुपये माह में पच्ची कारी का काम सौपा गया।

 शाहजहां ने कारीगरों के लिए बसाई थी ताजगंज बस्ती

Friday 23 September 2022

बेरोजगारी के आज के दौर में ------ विजय राजबली माथुर

 बेरोजगारी के आज के दौर में 47 वर्ष पूर्व आज ही के दिन अर्थात 22 सितंबर 1975 को लगभग 90 दिन  की बेरोजगारी के बाद रोजगार की पुनर्प्राप्ति की घटना स्मृति पटल पर घूम गई।

25 जून 1975 को इमरजेंसी घोषित हुई थी और उसी की आड़ लेकर 29 जून को सारू स्मेल्टिंग,मेरठ से मेरी सेवाएं समाप्त कर दी गई थीं और भी बहुतेरे लोगों के साथ ही।लिहाजा माता पिता के पास आगरा आ गया था और नौकरी की तलाश में जुट गया था।

निर्माणाधीन आईटीसी मोघुल ओबेरॉय में डाक से अर्जी भेज दी थी।

16 सितंबर को 18 तारीख को लिखित परीक्षा देने का काल लेटर डाक से प्राप्त हुआ , 20 सितंबर को साक्षात्कार हुआ और ज्वाइन करने को कहा गया।मैंने सोमवार 22 सितंबर 1975 को ज्वाइन कर लिया।

लिखित परीक्षा में 20 उम्मीदवार थे जिनमें से 4 को साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था एक मैं,दूसरे विनोद श्रीवास्तव,तीसरे सुदीप्तो मित्र,चौथे एक सक्सेना साहब थे।पोस्ट दो ही थीं।

मैंने 22 सितंबर को जबकि सुदीप्तो मित्र ने 01 अक्तूबर को ज्वाइन कर लिया था। सक्सेना साहब फिर नहीं मिले जबकि विनोद श्रीवास्तव थोड़े थोड़े अंतराल पर हम से मिलते और उनको भी एडजस्ट करवाने को कहते रहे।

चूंकि मित्र साहब स्टोर में थे और मैं अकाउंट्स में लिहाजा दोनों से ठेकेदार ,सप्लायर्स का संपर्क था।मित्र ज्यादा बोलने और मजाक पसंद थे और मैं चुपचाप गंभीरता से काम करने वाला।अतः मैन कांट्रेक्टर  जी एस लूथरा साहब के बेटे जगमोहन लूथरा साहब ने मुझ से अपने जैसा काम करने वाला एक लड़का रेफर करने को कहा मैंने विनोद श्रीवास्तव को बुलवा कर उनसे भेंट करवा दी।उन्होंने उनको तत्काल ज्वाइन करवा दिया।

इमरजेंसी में 29 जून से 21 सितंबर तक की बेरोजगारी में सिर के बाल तक झड़ गए थे ऐसा होता है बेरोजगारी का आघात इसलिए मैंने विनोद श्रीवास्तव को नियुक्त करवा कर उनका भी आघात कम करवा दिया।अब तो आफिशियली वह दिन में कई कई बार मुलाकात करते थे।राजनीतिक चर्चा भी हो जाती थी मैं इंदिरा गांधी का विरोध करता था वह तब कांग्रेस का समर्थन करते थे।

लूथरा साहब के एक विश्वस्त सुपरवाइजर थे अमर सिंह राठौर जो बीएसएफ के रिटायर्ड सब इंस्पेक्टर थे उनको ज्योतिष की गहन जानकारी थी विनोद की उनसे खूब पटती थिएं तब मैं ज्योतिष  विरोधी था विनोद ने उनसे मेरा हाथ देख कर बताने को कहा मैं हाथ दिखाने को अनिच्छुक था।विनोद जबरदस्ती लगभग खींचते हुए ही उनके पास ले गए थे।उनसे बोले इनको नहीं उनको अर्थात विनोद को बताएं कि इनका क्या भविष्य है

अमर सिंह ने  विनोद को मेरे बारे में जो बताया उसकी मैने उपेक्षा  कर दी जिस पर अमर सिंह का कहना था आज यह मेरी खिल्ली उड़ा रहे हैं एक दिन यही हमारी तरह सबको उनके भविष्य के प्रति आगाह करते हुए तुमको मिलेंगे।

अमर सिंह के अनुसार 26 वर्ष की उम्र में मेरा अपना मकान होना था तब उम्र 23 वर्ष और वेतन रु 275 मासिक था अतः मुझे उपहास करना ही था कि कैसे संभव होगा?उनका कहना कैसे होगा वह नहीं जानते लेकिन ऐसा ही होगा और यह भी कि 42 वर्ष की उम्र में वास्तविक रूप से अपना होगा जबकि उसमे रहोगे 26 की उम्र से ही।

एक और सहकर्मी ने 1977  में हाउसिंग बोर्ड के कुछ मकान बुकिंग होने की सूचना दी उन्होंने खुद और एक नेवी के रिटायर्ड साहब ने भी फार्म भरा था उनके पास पैसे थे जबकि मेरे और उन  सहकर्मी के पास आभाव था।

लेकिन सारू स्मेल्टिंग,मेरठ में मेरे डिपोजिट के 3000रु थे जिनको वे रिलीज नहीं कर रहे थे उनको लीगल नोटिस दिया तो फटाफट भेज दिए। उन रुपयों का डीडी 27 मार्च 1977 को जब मोरार जी देसाई पी एम की शपथ ग्रहण कर रहे थे सेंट्रल बैंक,आगरा कैंट से बनवा रहा था।

03 अप्रैल 1978 को लखनऊ से जारी एलाटमेंट लेटर मिला और 10 अप्रैल 1978 को रु 290 की पहली किश्त जमा कर दी तब तक वेतन बढ़ कर रु 500 मासिक हो चुका था।तब उम्र 26 वर्ष ही थी अक्टूबर तक  कमला नगर ,आगरा में हायर परचेज के अपने मकान में आ भी गए थे तब तक लूथरा साहब ने दिल्ली में अमर सिंह को अमर ज्योतिष कार्यालय  अपने कार्यालय के साथ खुलवा दिया था।वहां पत्र भेज कर अमर सिंह जी को साभार सूचना दी जिस पर वह बेहद खुश भी हुए और आगरा आकर हमसे होटल मुगल में मिले भी।15 वर्ष की किश्त जमा होने पर भी रिश्वतखोर अडंगा लगा रहे थे ,में cpi आगरा का जिला कोषाध्यक्ष था गवर्नर मोती लाल बोरा को पत्र भेजा उनके हस्तक्षेप से रजिस्ट्री हुई तब उम्र 42 वर्ष ही हो गई थी।

विनोद श्रीवास्तव को हमने होटल मुगल में ही जाब  दिला दिया और लूथरा साहब से रिलीव करवा दिया।बाद में विनोद केनरा बैंक में तथा सुदीप्तो मित्र बैंक आफ बड़ौदा में चले गए।

अमर सिंह जी ने 1975 में कुल 13 वर्ष की ही नौकरी बताई थी और बाद में दिमाग से खाने की बात कही थी। उस वक्त हास्यास्पद लगा था।जनवरी 1985 में होटल मुगल से सेवाएं समाप्त हो गईं इस प्रकार 1972 से 1985 तक 13 वर्ष की ही नौकरी करने की बात भी सही  ही रही।

हालांकि 1985 से 2000 तक 15 वर्ष हींग की मंडी आगरा के जूता बाजार में विभिन्न दुकानों में ट्यूशन बेसिस पर अकाउंट्स जाब किया लेकिन अन रिकार्ड  सर्विस थी दिमाग का ही काम था।

2000 में बाबू जी साहब अर्थात श्वसुर साहबया स्व बिलासपती सहाय ) के परामर्श पर ज्योतिष का कार्य अपना लिया और उनकी ही पुत्री के नाम पर सरला बाग,आगरा में पूनम ज्योतिष कार्यालय भी खोला था।

चंद्र मोहन शेरी,राकेश त्विकले,विराज माथुर और उनके मौसेरे भाई मनोज माथुर आदि ने मुझसे परामर्श भी लिया और हवन भी करवाया।अन्य बिरादरी के लोगों में ब्राह्मण प्रोफेसर,अधिकारी भी शामिल रहे।डाक्टर अजीत माथुर उनकी माता जी,बहन और बहनोई भी मुझसे परामर्श लेने वालों में रहे हैं।

अब लखनऊ में सक्रिय नहीं हूं केवल परिचितों और रिश्तेदारों को परामर्श दे रहा हूं।

Wednesday 21 September 2022

चांदी के वर्क से व्यंजनों की खूबसूरत सजावट ------ डाक्टर कृपा शंकर माथुर

22 सितंबर 1977 के नवजीवन,लखनऊ के पृष्ठ 04 पर प्रकाशित लेख।मामाजी की पुण्यतिथि पर उनकी स्मृति में  ===================== 



चांदी के वर्क से व्यंजनों की खूबसूरत सजावट

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'नवजीवन’ के विशेष अनुरोध पर डाक्टर कृपा शंकर माथुर ने लखनऊ की दस्तकारियों के संबंध में ये लेख लिखना स्वीकार किया था। यह लेख माला अभी अधूरी है, डाक्टर माथुर की मृत्यु के कारणवश अधूरी ही रह जाएगी, यह लेख इस शृंखला में अंतिम है। 

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अगर आपसे पूछा जाए कि आप सोना या चांदी खाना पसंद करेंगे, तो शायद आप इसे मजाक समझें लेकिन लखनऊ में और उत्तर भारत के अधिकांश बड़े शहरों में कम से कम चांदी वर्क के रूप में काफी खाई जाती है। हमारे मुअज़्जिज मेहमान युरोपियन और अमरीकन अक्सर मिठाई या पलाव पर लगे वर्क को हटाकर ही खाना पसंद करते हैं, लेकिन हम हिन्दुस्तानी चांदी के वर्क को बड़े शौक से खाते हैं। 

चांदी के वर्क का इस्तेमाल दो वजहों से किया जाता है। एक तो खाने की सजावट के लिये और दूसरे ताकत के लिये। मरीजों को फल के मुरब्बे के साथ चांदी का वर्क अक्सर हकीम लोग खाने को बताते हैं। 

कहा जाता है कि चांदी के वर्क को हिकमत में इस्तेमाल करने का ख्याल हकीम लुकमान के दिमाग में आया, सोने-चांदी मोती के कुशते तो दवाओं में दिये ही जाते हैं और दिये जाते रहे हैं, लेकिन चांदी के वर्क का इस्तेमाल लगता है कि यूनान और मुसलमानों की भारत को देन  है। चांदी के चौकोर टुकड़े को हथौड़ी से कूट-कूट कर कागज़ से भी पतला वर्क बनाना, इतना पतला कि वह खाने की चीज के साथ बगैर हलक में अटके खाया जा सके। कहते हैं कि यह विख्यात हकीम लुकमान की ही ईजाद थी। जिनकी वह ख्याति है कि मौत और बहम के अलावा हर चीज का इलाज उनके पास मौजूद था। 

लखनऊ के बाजारों में मिठाई अगर बगैर चांदी के वर्क के बने  तो बेचने वाला और खरीदने वाला दोनों देहाती कहे जाएंगे। त्योहार और खासकर ईद के मुबारक मौके पर शीरीनी और सिवई की सजावट चांदी के वर्क से कि जाती है। शादी ब्याह के मौके पर नारियल, सुपारी और बताशे को  भी चांदी के वर्क से मढ़ा जाता है। यह देखने में भी अच्छा लगता है और शुभ भी माना जाता है। क्योंकि चांदी हिंदुस्तान के सभी बाशिंदों में पवित्र और शुभ मानी जाती है। 

लखनऊ के पुराने शहर में चांदी के वर्क बनाने के काम में चार सौ के करीब कारीगर लगे हैं। यह ज्यादातर मुसलमान हैं, जो चौक और उसके आस-पास की गलियों में छोटी-छोटी सीलन भरी अंधेरी दुकानों में दिन भर बैठे हुए वर्क कूटते रहते हैं।ठक-ठक की आवाज से जो पत्थर की निहाई पर लोहे की हथौड़ी से कूटने पर पैदा होती है, गलियाँ गूँजती रहती हैं। 

इन्हीं में से एक कारीगर मोहम्मद आरिफ़ से हमने बातचीत की। इनके घर से पाँच-छह पुश्तों से वर्क बनाने का काम होता है। चांदी के आधा इंच वर्गाकार टुकड़ों को एक झिल्ली के खोल में रखकर पत्थर की निहाई पर और लोहे की हथौड़ी से कूटकर वर्क तैयार करते हैं। डेढ़ घंटे में कोई डेढ़ सौ वर्कों की गड्डी तैयार हो जाती है, लेकिन यह काम हर किसी के बस का नहीं है। हथौड़ी चलाना भी एक कला है और इसके सीखने में एक साल से कुछ अधिक समय लग जाता है। इसकी विशेषता यह है कि वर्क हर तरफ बराबर से पतला हो,चौकोर हो,और बीच से फटे नहीं। 

वर्क बनाने वाले कारीगर को रोजी तो कोई खास नहीं मिलती, पर यह जरूर है कि न तो कारीगर और न ही उसका बनाया हुआ सामान बेकार रहता  है। मार्केट सर्वे से पता चलता है कि चांदी के वर्क की खपत बढ़ गई है और अब यह माल देहातों में भी इस्तेमाल में आने लगा है। 

ठक…. ठक…. ठक। घड़ी की सुई जैसी नियमितता से हथौड़ी गिरती है और करीब डेढ़ घंटे में 150 वर्क तैयार।


Sunday 13 June 2021

27 वीं पुण्यतिथि पर बाबूजी का स्मरण

 



बाबूजी को यह संसार छोड़े हुए आज 26 वर्ष पूर्ण हो गए हैं।सीमाब अकबराबादी  की  उपरोक्त नज़्म बाबूजी को पसंद आई होगी और उन्होंने इसे उर्दू  एवं देवनागरी दोनों लिपियों में लिपिबद्ध करके रखा था। उनका हस्तलिखित पर्चा कल ही पुरानी फ़ाइलों से प्राप्त हुआ है। अतः इसे उनके स्मृति दिवस पर उनको श्रद्धावत नमन सहित प्रकाशित किया जा रहा है।