Wednesday 31 March 2021

राष्ट्र संघ एक बंधुआ विश्व संस्था ------ बी डी एस गौतम

 राष्ट्र संघ एक बंधुआ विश्व संस्था


संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव पेरेज द कुइयार कह रहे हैं कि इराक के विरुद्ध अमेरिका और उसके मित्र देशों की कार्यवाही संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यवाही नहीं है, पर जॉन मेजर से लेकर जॉर्ज बुश तक अमेरिकी नेतृत्व में इराक के विरुद्ध लड़े जा रहे युद्ध को इराक से संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव को मनवाने के लिए की जा रही कार्यवाही बनाते हैं। यह कैसा विरोधाभास है कि मित्र देश संयुक्त राष्ट्र संघ की हैसियत बनाए रखने के लिए इराक पर हमला बोल देते हैं और महासचिव को तब तक कोई सूचना ही नहीं रहती। कुइयार ने पिछले दिनों एक पश्चिमी अखबार को दिए गए अपने इंटरव्यू में बताया था कि युद्ध शुरू होने के 1 घंटे बाद मुझे इसकी सूचना मिली। कुइयार ने यह भी बताया अमेरिका ने जिस समय इराक पर हमला बोला उससे कुछ ही घंटे बाद वे खाड़ी संकट के शांति पूर्वक हल के लिए एक और राजनैतिक प्रयास कर रहे थे। मगर अमेरिका ने उनसे यह मौका छीन लिया। पेरेज द कुइयार के इस कथन से साफ-साफ जाहिर होता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ नामक जिस संस्था को पिछले 45 सालों से विश्व की शांति और स्वतंत्रता की रक्षक माना जाता है वह निरा एक ढोंग है। हालांकि इतिहास में यह ढोंग पहले भी कई बार प्रकट हो चुका है, मगर वर्तमान खाड़ी युद्ध ने पूरी तरह साबित कर दिया है की यह संस्था अमेरिका की बंधुआ है।


राष्ट्र संघ की कोख से जन्मी संयुक्त राष्ट्र संघ का 45 वर्षीय इतिहास गवाह है कि विश्व संस्था के नाम पर यह अपनी ताकत का इस्तेमाल अमेरिका की दादागिरी को नैतिक सर्टिफिकेट प्रदान करने में करती रही है और यह आज से नहीं बल्कि तब से जारी है जब हैरी एस ट्रूमैन के नेतृत्व में अमेरिका दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया में अपनी आर्थिक और सैनिक दादागिरी जमाने का इरादा बना चुका था। अमेरिका के इस इरादे की पुष्टि और  संयुक्त राष्ट्र संघ के निष्पक्षता की पोल तो वास्तव में 27 जून 1950 को ही खुल गई थी जब राष्ट्रपति ट्रूमैन ने अपनी हवाई सेना और समुद्री बेड़े को उत्तर कोरिया के खिलाफ तुरंत कार्यवाही का आदेश दिया था।


संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में  कहा गया था  कि दो देशों के आपसी झगड़े में तीसरा देश संयुक्त राष्ट्र संघ की अनुमति के बाद ही कूदेगा, मगर अमेरिका ने इस तरह के किसी कानून के पालन को जरूरी नहीं समझा। 25 जून 1950 को उत्तरी और दक्षिणी कोरिया दोनों के बीच लड़ाई छिड़ गई। अमेरिका दूसरे ही दिन इस लड़ाई में हस्तक्षेप हेतु उतर आया जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस हस्तक्षेप को कानूनी जामा 5 महीने बाद यानी नवंबर 1950 में जाकर पहनाया। यही नहीं नवंबर 1950 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने जब उत्तरी कोरिया के खिलाफ बल प्रयोग का प्रस्ताव पास किया तो उसी अमेरिकी सैनिक कमांडर मैकाथेर को संयुक्त सेनाओं का कमांडर जनरल नियुक्त कर दिया जो 5 महीने पहले से ही अमेरिकी कार्यवाही का नेतृत्व कर रहा था।


वर्तमान उदाहरण को ही देख लीजिए अपने आप पता चल जाएगा कि अमेरिका संयुक्त राष्ट्र का आदेश मान रहा है या संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का। 5 अगस्त 1990 को अमेरिकी कांग्रेस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध लगाता है, 16 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र इराक के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध पास कर देता है, 16 अगस्त को अमेरिकी नौसेना आर्थिक प्रतिबंध के बहाने खाड़ी में अपना मोर्चा जमाती है और नवंबर के आखिरी सप्ताह में यू एन ओ इराक के खिलाफ बल प्रयोग का प्रस्ताव पास कर देता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि नवंबर तक अमेरिका इराक के खिलाफ लगातार अपने मोर्चे सजाने में लगा रहा। 10हजार  से शुरुआत करके 3लाख  सैनिक तक इस बीच उसने खाड़ी में जमा कर दिए। स्पष्ट है यू एन ओ इराक के खिलाफ सितंबर में भी बल प्रयोग का प्रस्ताव पास कर सकता था यदि अमेरिका तुरंत लड़ाई के लिए तैयार होता।


कुवैत पर इराक के आक्रमण के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका जिस तरह से सक्रिय हुए वह विश्व की शांति और स्वतंत्रता के लिए मिसाल बन सकता था बशर्ते दोनों के इरादे नेक होते। मगर अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ दोनों की तत्परता तब संदिग्ध हो जाती है जब इनके इतिहास की पड़ताल की जाए। उदाहरणार्थ 14 मई 1948 को जब पैलेस्टाइन से ब्रिटिश कमिश्नर राष्ट्र संघ के मजिस्ट्रेट द्वारा दी गई जिम्मेदारियों को छोड़कर भाग आया तब संयुक्त राष्ट्र संघ या अमेरिका ने पैलेस्टाइन में शांति बनाए रखने के लिए सेना क्यों नहीं भेजी? तब तक तो अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध जैसी भी कोई बात नहीं थी। यही नहीं जब ब्रिटिश कमिश्नर के भागने के बाद यहूदियों ने हिंसा के बल पर जिस 'इस्त्राइल' नामक स्वतंत्र राष्ट्र की घोषणा की उसे मान्यता देने वाला भी अमेरिका दुनिया का पहला राष्ट्र था। यह सब कोई अकस्मात नहीं हुआ था बल्कि हैरी एस ट्रूमैन द्वारा चुनाव पूर्व यहूदियों को दिए गए उनके स्वतंत्र राष्ट्र की वायदे के मुताबिक हुआ था।


संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका की पोल 1965-66 में भी एक बार खुली थी जब यू एन ओ की निष्ठा के प्रति दुहाई देने वाला अमेरिका उसके प्रस्ताव नंबर 2232 को खुल्लम खुल्ला चुनौती देते हुए दियागा गार्सिया द्वीप को इंग्लैंड के साथ हड़प उसे दोनों ने अपना सामरिक अड्डा बना लिया। संयुक्त राष्ट्र संघ शाब्दिक निंदा के अलावा कुछ नहीं कर पाया।


संयुक्त राष्ट्र संघ के 20-21वें अधिवेशन में प्रस्ताव नंबर 2232 पास किया गया था। इस प्रस्ताव में कहां गया था कि औपनिवेशिक इलाकों की क्षेत्रीय अखंडता का आंशिक या पूर्ण उल्लंघन संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा पत्र तथा उसकी नियमावली के प्रस्ताव 1514(पराधीन देशों और जनगण को स्वतंत्रता प्रदान किया जाना) का उल्लंघन होगा। मगर ब्रिटेन और अमेरिका इस प्रस्ताव को ठेंगा दिखाते हुए 30 किलोमीटर वर्ग वाले मॉरीशस के द्वीप डियागो गार्सिया को हिंद महासागर में अपने संयुक्त हितों का सामरिक अड्डा बना लिया। बाद में ब्रिटेन ने इसे सन 2016 तक के लिए अमेरिका को ही किराए पर दे दिया। 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान अमेरिकी जंगी जहाज ‘इंटरप्राइज’ यहीं से चलकर बंगाल की खाड़ी पहुंचा था। वर्तमान खाड़ी युद्ध में कहर ढा रहे अमेरिका के बमवर्षक बी 52 यहीं से गए हैं।


ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि संयुक्त राष्ट्र संघ कभी विश्व कल्याण की संस्था ही नहीं रही। इसके उद्देश्य के मूल में सदैव अमेरिका तथा उसके साथ ही देशों का हित ही रहा है। वैसे यह स्वाभाविक भी है क्योंकि यह संस्था जिस लीग ऑफ नेशन नामक विश्व संस्था की कोख से निकली थी वह अमेरिकी राष्ट्र विल्सन की शांति थ्योरी पर आधारित है। यह बात अलग है कि तत्कालीन अमेरिकी संसद इतनी भी लिबरल नहीं थी कि वह लीग ऑफ नेशन को स्वीकार कर सकती। लीग ऑफ नेशन के बावजूद दूसरा विश्व युद्ध हो गया तो विजेता देश पुनः 1944 में वाशिंगटन के डंबरटन ओक्स नामक स्थान पर इकट्ठा हुए। जिस तरह पहले विश्व युद्ध के बाद शांति का ठेका विजयी राष्ट्रों(और उनमें भी सिर्फ अमेरिका) को मिला था उसी तरह इस बार भी शांति का ठेका विजयी देशों  ने अपने पास रखा। अगर समझा जाए तो इस विश्व संस्था का उदय ही मित्र देशों खासकर अमेरिका की मर्जी को संविधान बनाने के लिए हुआ। इसलिए इस संस्था से विश्व शांति और समानता की आशा करना ही बेमानी है। अगर विजेता देश सचमुच द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ईमानदारी से विश्व शांति के पक्षधर होते तो इस शांति योजना की रचना में शेष देशों को भी( खासकर पराजित) शामिल करते और तब इसका स्वरूप ही कुछ और होता। सच तो यह है कि अगर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व अमेरिका और सोवियत संघ नामक दो खेमों में न बंट जाता या अमेरिका के समानांतर सोवियत संघ न खड़ा होता तो अमेरिका और उसके साथी देश इस तथाकथित विश्व संस्था के जरिए भूषण का ऐसा खेल खेलते 18वीं -19वीं शताब्दी के ब्रिटिश सैन्य साम्राज्यवाद को भी मात कर देते। संभवत इसी वास्तविकता को ध्यान में रखकर सोवियत संघ ने अमेरिका के कोरिया हस्तक्षेप के बाद सुरक्षा परिषद को मान्यता प्रदान कर उसका बकायदा स्थाई सदस्य बन गया।


सोवियत संघ और चीन की सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य बनते ही यह विश्व संस्था इस कदर नाकारा हो गई थी कि इसमें कोई मसला ही नहीं हल हुआ यह सिर्फ राजनेताओं के लिए पिकनिक स्पॉट बन कर रह गई।


अगर लॉर्ड निस्टर के शब्दों में कहा जाए तो यू एन ओ उन प्रिफेक्टरों की तरह है जो छोटे बच्चों को अनुशासन में रखना चाहते हैं परंतु स्वयं उन नियमों से जिनसे वे शासन करना चाहते हैं, बरी रहना चाहते हैं। इसलिए समय आ गया है इस कठपुतली विश्व संस्था को या तो खत्म कर देना चाहिए या फिर इसे सही अर्थों में विश्व संस्था बनाने के लिए इसकी पूरे ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन करने चाहिए।


बी डी एस गौतम 



Friday 26 March 2021

चांदी के वर्क से व्यंजनों की खूबसूरत सजावट ------ डाक्टर कृपा शंकर माथुर

 

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के भूतपूर्व सदस्य एवं लखनऊ विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉक्टर कृपा शंकर माथुर साहब मेरे पिता जी (विजय राजबली माथुर ) के मामा जी थे और उनका विशेष स्नेह सदा ही पिता जी पर रहा। 48 वर्ष की आयु में 21 सितंबर 1977 को उनके निधन का समाचार एवं चांदी के वर्क पर आधारित उनकी लेखमाला ( जो अपूर्ण रह गई ) का क्रमिक भाग 22 सितंबर 1977 के नवजीवन में पृष्ठ -5 पर प्रकाशित हुआ था जो संग्रह की दृष्टि से यहाँ प्रस्तुत है------ यशवंत राजबली माथुर
चांदी के वर्क से व्यंजनों की खूबसूरत सजावट
नवजीवन’ के विशेष अनुरोध पर डाक्टर कृपा शंकर माथुर ने लखनऊ की दस्तकारियों के संबंध में ये लेख लिखना स्वीकार किया था। यह लेख माला अभी अधूरी है, डाक्टर माथुर की मृत्यु के कारणवश अधूरी ही रह जाएगी, यह लेख इस शृंखला में अंतिम है। 

अगर आप से पूछा जाए कि आप सोना या चांदी खाना पसंद करेंगे, तो शायद आप इसे मजाक समझें लेकिन लखनऊ में और उत्तर भारत के अधिकांश बड़े शहरों में कम से कम चांदी वर्क के रूप में काफी खाई जाती है। हमारे मुअज़्जिज मेहमान युरोपियन और अमरीकन अक्सर मिठाई या पलाव पर लगे वर्क को हटाकर ही खाना पसंद करते हैं, लेकिन हम हिन्दुस्तानी चांदी के वर्क को बड़े शौक से खाते हैं। 

चांदी के वर्क का इस्तेमाल दो वजहों से किया जाता है। एक तो खाने की सजावट के लिये और दूसरे ताकत के लिये। मरीजों को फल के मुरब्बे के साथ चांदी का वर्क अक्सर हकीम लोग खाने को बताते हैं। 

कहा जाता है कि चांदी के वर्क को हिकमत में इस्तेमाल करने का ख्याल हकीम लुकमान के दिमाग में आया, सोने-चांदी मोती के कुशते तो दवाओं में दिये ही जाते हैं और दिये जाते रहे हैं, लेकिन चांदी के वर्क का इस्तेमाल लगता है कि यूनान और मुसलमानों की भारत को देन  है। चांदी के चौकोर टुकड़े को हथौड़ी से कूट-कूट कर कागज़ से भी पतला वर्क बनाना, इतना पतला कि वह खाने की चीज के साथ बगैर हलक में अटके खाया जा सके। कहते हैं कि यह विख्यात हकीम लुकमान की ही ईजाद थी। जिनकी वह ख्याति है कि मौत और बहम के अलावा हर चीज का इलाज उनके पास मौजूद था। 

लखनऊ के बाजारों में मिठाई अगर बगैर चांदी के वर्क के बने  तो बेचने वाला और खरीदने वाला दोनों देहाती कहे जाएंगे। त्योहार और खासकर ईद के मुबारक मौके पर शीरीनी और सिवई की सजावट चांदी के वर्क से कि जाती है। शादी ब्याह के मौके पर नारियल, सुपारी और बताशे को  भी चांदी के वर्क से मढ़ा जाता है। यह देखने में भी अच्छा लगता है और शुभ भी माना जाता है। क्योंकि चांदी हिंदुस्तान के सभी बाशिंदों में पवित्र और शुभ मानी जाती है। 

लखनऊ के पुराने शहर में चांदी के वर्क बनाने के काम में चार सौ के करीब कारीगर लगे हैं। यह ज्यादातर मुसलमान हैं, जो चौक और उसके आस-पास की गलियों में छोटी-छोटी सीलन भरी अंधेरी दुकानों में दिन भर बैठे हुए वर्क कूटते रहते हैं।ठक-ठक की आवाज से जो पत्थर की निहाई पर लोहे की हथौड़ी से कूटने पर पैदा होती है, गलियाँ गूँजती रहती हैं। 

इन्हीं में से एक कारीगर मोहम्मद आरिफ़ से हमने बातचीत की। इनके घर से पाँच-छह पुश्तों से वर्क बनाने का काम होता है। चांदी के आधा इंच वर्गाकार टुकड़ों को एक झिल्ली के खोल में रखकर पत्थर की निहाई पर और लोहे की हथौड़ी से कूटकर वर्क तैयार करते हैं। डेढ़ घंटे में कोई डेढ़ सौ वर्कों की गड्डी तैयार हो जाती है, लेकिन यह काम हर किसी के बस का नहीं है। हथौड़ी चलाना भी एक कला है और इसके सीखने में एक साल से कुछ अधिक समय लग जाता है। इसकी विशेषता यह है कि वर्क हर तरफ बराबर से पतला हो,चौकोर हो,और बीच से फटे नहीं। 

वर्क बनाने वाले कारीगर को रोजी तो कोई खास नहीं मिलती, पर यह जरूर है कि न तो कारीगर और न ही उसका बनाया हुआ सामान बेकार रहता  है। मार्केट सर्वे से पता चलता है कि चांदी के वर्क की खपत बढ़ गई है और अब यह माल देहातों में भी इस्तेमाल में आने लगा है। 
ठक…. ठक…. ठक। घड़ी की सुई जैसी नियमितता से हथौड़ी गिरती है और करीब डेढ़ घंटे में 150 वर्क तैयार।  





(यह नक्शा मामाजी ने अपने हाथ से बना कर 1973 में दिया था जब मैं मेरठ से लखनऊ एल आई सी 
की एक परीक्षा देने आया था और उनके पास यूनिवर्सिटी कैंपस स्थित 78 बादशाह बाग कालोनी आया था ------ विजय राजबली माथुर )




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Monday 22 March 2021

भारतीय संस्कृति का मूल तत्व ----- - हरिदत्त शर्मा

 जिसकी विशिष्टता विदेशियों ने भी स्वीकार की
भारतीय संस्कृति का मूल तत्व
-श्री हरिदत्त शर्मा
(समाचार संपादक नवभारत टाईम्स)
आज के भारतीय बुद्धिजीवियों में यह शंका बार-बार पैदा होती है कि हम प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा से क्या ग्रहण करें? उनका आम ख्याल यह है कि जो अच्छा पुराना है, उसे ले लिया जाना चाहिए और जो सड़ -गल गया है उसे एकदम त्याग देना चाहिए। यह एकदम स्वस्थ दृष्टिकोण है।

बुद्धिजीवी वर्ग में एक ऐसा भी अंश है जो प्राचीन संस्कृति के किसी भी तत्व को आज के युग में उपयोगी नहीं मानता। उसका तर्क यह है आज का युग रॉकेट का युग है, इसलिए बैलगाड़ी के युग की पुरातन संस्कृति आज बिल्कुल निरर्थक है। उसका कहना यह भी है कि हम आज ही, आज के ही विज्ञान से परंपरा से हटकर अपनी नई संस्कृति का निर्माण करें और उसी संस्कृति के धरातल पर भव्य जीवन को प्रतिष्ठापित करें।
सतही तौर पर देखने से इन लोगों की यह बात ठीक सी लगती है और इसीलिए समाज का एक हिस्सा ऐसे बुद्धिजीवियों का अनुसरण कर ही रहा है।

जो लोग इस प्रश्न को सतही तौर पर नहीं लेते वे इस प्रवृत्ति को सामाजिक दृष्टि से भयावह मानते हैं, क्योंकि किसी भी देश की संस्कृति चाहे वह कितनी भी संकटापन्न रही है और चाहे उसमें कितने ही हीन भाव समाविष्ट क्यों न हो गए हों उसमें कहीं ना कहीं ऐसे सूत्र अवश्य होते हैं जो इंसानियत को किसी न किसी तरह से आगे बढ़ाते रहते हैं। इस तरह से वह संस्कृति विश्व संस्कृति का एक अंग बन जाती है। जहां तक भारत का संबंध है उसकी तो बड़ी-बड़ी उपलब्धियां रही हैं और उसने धर्म, कला और साहित्य के क्षेत्रों में विश्व मानवता की बड़ी सेवाएं की हैं। साथ ही यह भी समझ लेना आवश्यक है कि सांस्कृतिक धरातल पर मानव संबंध वैज्ञानिक प्रगति की प्रतिच्छाया मात्र नहीं होते। यह स्वयं मानव विज्ञान बताता है। भारत की पुरातन संस्कृति इस सत्य की साक्षी है।

विदेशी आक्रांत मिटाने में असफल रहे
 यह सही है कि हमारा भारत पिछले 13 - 14 सौ वर्ष से लगातार विदेशी आक्रमणों से आक्रांत रहा और उसका इस काल का इतिहास एक प्रकार से आक्रमणों और आंतरिक उथल-पुथल का इतिहास हो गया है। इससे इस दौर में हमारे यहां आत्मरक्षा की भावना बढ़ी और परिणामतः संस्कृति में संकोच भाव आया, जिसका प्रभाव हमारी राजनीति, अर्थनीति, समाज नीति और साहित्य पर भी बुरा पड़ा। किंतु इस कालावधि में भी ऐसे ऐसे नरपुंगव आए जिन्होंने  जड़ता को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े-बड़े सांस्कृतिक आंदोलन खड़े किए। इसीलिए यहां जड़ता में भी गतिशीलता की लहर चलती रही है और यही कारण है कि बड़े से बड़े संकट काल में भी भारतीय जनता की सिंहवृत्ति कायम रही। हमारी भारतीय जनता पर विदेशी आक्रांताओं ने जो जो अत्याचार किए वे संभवत: विश्व के किसी अन्य देश में नहीं किए गए होंगे। दारुण से दारुण पीड़ा भारतीय जनता ने झेली। उसमें कभी-कभी निराशा की अंधियारी भी छाई लेकिन अपनी संस्कृति की मूल भावना से बंधी होने के कारण वह पीड़ा से भी क्रीडा करती रही, अंधेरे में भी प्रकाश देखती रही हार में भी जीत की मानसिकता को कायम रखे रही।

संस्कृति की यह मूल भावना क्या है? कौन सी ऐसी वृत्ति है जो भारत की बहुसंनी संस्कृति में एकात्मकता स्थापित करके जीवित रखे रही? हमारी संस्कृति में ऐसी कौन सी शक्ति थी जिसने अरब, तुर्क, तातार, मुगल और अन्य आक्रमणकारियों को अपने रंग में रंग कर हिंदुस्तानी बना लिया था? यद्यपि अंग्रेज इस शक्ति के समक्ष नहीं झुका और उसने अपने बर्बर प्रहारों से पूरे तरीके से भारत को धराशाई करने की कोशिश की, तथापि भारत के सांस्कृतिक स्वरूप को नष्ट करने में वह समर्थ नहीं हो सका। इतना ही नहीं हार झ़ख मार कर हमारी संस्कृति के मूल स्रोतों के निकट जिज्ञासु की तरह बैठा और अपनी भाव धाराओं को उसके ज्ञान बल से सोखने लगा।

मार्क्स द्वारा प्रशंसा
फिर यही प्रश्न आता है कि इस महान संस्कृति का कौन सा तत्व भारतीय जनता को महान और वीर बनाए हुए था? एक शब्द में हम कह सकते हैं कि यह तत्व है; हमारी जनता का चैतन्य से विश्वास। इसी विश्वास में वह अमर है। इसी चैतन्य से उसे बुद्धि की तीक्ष्णता प्राप्त हुई है और इसी से नई से नई भावना ग्रहण करने की क्षमता। मार्क्स का कहना है स्वयं ब्रिटिश अधिकारियों की राय के अनुसार हिंदुओं में नहीं ढंग के काम सीखने और मशीनों का आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने की विशिष्ट योग्यता है। इस बात का प्रचुर प्रमाण कलकत्ते के सिक्के बनाने के कारखाने में काम करने वाले उन देशी इंजीनियरों की क्षमता तथा कौशल में मिलता है, जो  वर्षों  से भाप से चलने वाली मशीनों पर वहां काम कर रहे हैं। इसका प्रमाण हरिद्वार के कोयले वाले इलाकों में भाप से चलने वाले इंजनों से संबंधित भारतीयों में मिलता है और भी ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं।

मिस्टर कैंपबेल पर ईस्ट इंडिया कंपनी के पूर्वाग्रहों का बड़ा प्रभाव है पर वे  स्वयं भी इस बात को कहने के लिए मजबूर हैं कि: 'भारतीय जनता के बहुत संख्या समुदाय में जबरदस्त औद्योगिक क्षमता मौजूद है' पूंजी जमा करने की तुममें अच्छी योग्यता है गणित संबंधी उसके मस्तिष्क की योग्यताबद्ध भावना  है तथा हिसाब किताब के विषय और विज्ञान में वह बहुत सुगमता से दक्षता प्राप्त कर लेती है। वह कहते हैं, उनकी बुद्धि बहुत तीक्ष्ण होती है।

चैतन्य में (सद के प्रति आग्रह रखते हुए) विचार और कर्म की एकात्मकता आस्था होने से ही जनता ने अंग्रेजी शासनकाल में भी अंधकार में से प्रकाश प्राप्त कर लिया। इंग्लैंड का भारत पर शासन निकृष्टतम उद्देश्यों को लेकर हुआ था किंतु भारतीय जनता ने अपनी चैतन्य आस्था के कारण सामाजिक क्रांति करके अपने को नए वैज्ञानिक युग के अनुकूल ढाल लिया। अंग्रेजों ने उसकी यह कुशाग्रता देखकर उसे भ्रष्ट शिक्षा पद्धति दी, उसे कलंकमय मानसिकता की ओर प्रेरित किया, किंतु भारतीय जनता के सपूत विश्व जीवन के सभी क्षेत्रों में योगदान करने योग्य बन गए।

संघर्ष की प्रेरणा
26-01-1975, प्रभात, मेरठ 
अंग्रेजी शासन के जाने पर यद्यपि देश विभाजन की घोर विडंबना भारत धरा पर आई और उसके बाद उसे निरंतर दुख पर दुख उठाने पड़े, यहां तक कि  अपने उत्तरी सीमांतों पर विदेशी आक्रमण का झंझावात भी से सहना पड़ा, लेकिन उसका चैतन्य में इतना विश्वास है कि आज भी आगे बढ़ रही है। कुंठा और अवसाद के विष  को नीलकंठ के सामने अपने कंठ में रख लिया है और स्थिर चित्त से चित्तमय पथ की ओर चली ही जा रही है।

इसका तात्पर्य है कि हमारी संस्कृति की मूल धारा चैतन्यमय होकर प्रवाहित होती रही है। उसने जनमानस को अपनी प्रकाश किरणों से ज्वलंत रखा है। दोष उन लोगों का रहा जो धन और सजा की लोलुपता से पथभ्रष्ट हो गए, यानी कि दोष संस्कृति का न हो कर शोषक और शासक का रहा। आज भी यही दोष है। हमारी समृद्ध सांस्कृतिक परंपराएं दूषण के विरुद्ध संघर्षरत होने की प्रेरणा दे रही हैं। इस दूषण में पुराने और नए दोनों दोष सम्मिलित हैं। भारत की चैतन्यवृत्ति अर्थात संस्कृति की अग्नि इस दूषण की राख - राख कर देना चाहती है। वह हर क्षण तेज को उद्दीप्त कर रही है, उस तेज को जो पापपंक और रूढ़ियों के कूड़े करकट को जला डालता है और पुष्पमय भावनाओं को तपा-तपाकर कुंदन बना देता है। इसका प्रमाण है कि हमारे समाज में सांस्कृतिक आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष लगातार चलता रहता है।

यह सही है कि हमारे इन संघर्षों में दिशा हीनता भी आ जाती है, लेकिन यह भी तो सही है कि हमारे समाज के धनपति और सत्ताधिकारी  माया की तमिस्त्रा फैलाते रहते हैं। अंधेरे और उजाले की लड़ाई में अंधियारे की अधिकाई से अनेक बार रास्ता सूझना बंद हो जाता है, लेकिन प्रकाश सदा परास्त नहीं रहता। हमारा देश ज्योति, सद,अमृत अथवा चैतन्य से बंधा है, उसके पास वह श्रेष्ठ परंपरा है जिसके राम अविभक्त संपत्ति के सिद्धांत पुरस्कर्त हैं, यानी कि उनकी परंपरा मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण के विरुद्ध होने से आज के युग सत्य में समाहित हो जाती है।
                                                                                                           -युगवार्ता





Thursday 24 October 2019

बाबूजी को जन्मशती पर ' विजय विचार ' श्रद्धासुमन के रूप में समर्पित ------ विजय राजबली माथुर

जन्म:24-10-1919,दरियाबाद (बाराबंकी );मृत्यु:13-06-1995;आगरा  


हमारे बाबूजी स्व ताजराज बली माथुर  की जन्मपत्री के अनुसार 24 अक्तूबर 2019 को वह शतायु को प्राप्त करते। उनकी स्मृति में यह पुस्तक  ' विजय विचार ' श्रद्धासुमन के रूप में प्रस्तुत है ।
आज कुछ लोगों को यह प्रयास हास्यास्पद इसलिए लग सकता है क्योंकि आम धारणा है कि हमारा देश जाहिलों का देश था और हमें विज्ञान से विदेशियों ने परिचित कराया है। जबकि यह कोरा भ्रम ही है। वस्तुतः हमारा प्राचीन विज्ञान जितना  आगे था उसके किसी भी कोने तक आधुनिक विज्ञान पहुंचा ही नहीं है। हमारे पोंगा-पंथियों की मेहरबानी से हमारा समस्त विज्ञान विदेशी अपहृत कर ले गये और हम उनके परमुखापेक्षी बन गये ,इसीलिये मेरा उद्देश्य "अपने सुप्त ज्ञान को जनता जाग्रत कर सके " ऐसे आलेख प्रस्तुत करना है। मैं प्रयास ही कर सकता हूँ ,किसी को भी मानने या स्वीकार करने क़े लिये बाध्य नहीं कर सकता न ही कोई विवाद खड़ा करना चाहता हूँ । हाँ देश-हित और जन-कल्याण की भावना में ऐसे प्रयास जारी ज़रूर रखूंगा।   मैं देश-भक्त जनता से यह भी निवेदन करना चाहता हूँ कि,हमारी परम्परा में देश-हित,राष्ट्र-हित सर्वोपरी रहे हैं।
मेरे निष्कर्षों एवं दृष्टिकोण का लोगों द्वारा मखौल बनाने पर मैंने अपने माता-पिता से कहा था--एक दिन लोग इन पर डाक्टरेट हासिल करेंगें.मेरी छोटी बहन श्रीमती शोभा माथुर(पत्नी स्व कमलेश बिहारी माथुर,अवकाश-प्राप्त फोरमैन,बी.एच.ई.एल.,झाँसी) ने अपनी संस्कृत क़े राम विषयक नाटक की थीसिस में मेरे 'रावण-वध एक पूर्व निर्धारित योजना 'को उधृत किया है.इस प्रकार माता-पिता क़े  जीवन काल में ही मेरे लेखों को आगरा विश्वविद्यालय से   डाक्टरेट हासिल करने में बहन ने प्रयोग कर लिया और मेरा अनुमान सही निकला।
सत्य,सत्य होता है और इसे अधिक समय तक दबाया नहीं जा सकता। एक न एक दिन लोगों को सत्य स्वीकार करना ही पड़ेगा तथा ढोंग एवं पाखण्ड का भांडा फूटेगा ही फूटेगा.राम और कृष्ण को पूजनीय बना कर उनके अनुकरणीय आचरण से बचने का जो स्वांग ढोंगियों तथा पाखंडियों ने रच रखा है उस पर प्रहार करने का यह मेरा छोटा सा प्रयास था इसके आधार संत श्यामजी पाराशर लिखित पुस्तक 'रामायण का ऐतिहासिक महत्व' व डॉ रघुवीर शरण 'मित्र' लिखित खंड काव्य ' भूमिजा ' का अध्ययन रहे थे।
      सिलीगुड़ी से  बाबू जी को ट्रांसफर ऑर्डर न मिल पाने के कारण   सितम्बर 1967 में A T मेल से RESERVATION कराकर बैठा दिया। माँ को पहली बार हम तीनों भाई-बहनों को लेकर अकेले सफ़र करना था वह भी एक दम इतनी लम्बी दूरी का परन्तु उन्होंने कहीं भी साहस नहीं छोड़ा। गाड़ी लखनऊ चारबाग की छोटी लाइन पर पहुंची और बड़ी लाइन की गाड़ी से शाहजहांपुर जाना था। छोटी लाइन के कुली काली पोशाक पहनते थे और बड़ी लाइन के कुली लाल पोशाक.एक दूसरे के स्टेशनों में नहीं जाते थे। परन्तु छोटी लाइन का एक कुली भला निकल आया उसने छोटी लाइन से ले जा कर बड़ी लाइन से शाहजहांपुर को छूटने वाली पैसेंजर गाड़ी में सामान कई फेरों में ले जा कर पहुंचा दिया। शायद कुछ ज्यादा रु.लिए होंगे। वह कुली मुझे और अजय को सामान के साथ लाकर इंजन के ठीक पीछे वाले डिब्बे में बैठा गया। सामान ज्यादा था क्योंकि बाद में बाबू जी को अकेले आना था कितना सामान ला पते?कुली बीच में अकेला ही सामान ढो कर लाया और हम भाइयों के पास रख गया। तीसरी या चौथी बार के फेरे में माँ और शोभा भी आये;गाड़ी सीटी देने लगी थी,गार्ड ने हरी झंडी दिखा दी थी। कुली ने दौड़ लगा कर पटरियां फांद कर इंजन के सामने से सामान ला दिया और भाप इंजन के ड्राइवर को रुकने का इशारा किया जब माँ और शोभा डिब्बे में चढ़ गए तब कुली ने मेहनताना लिया और धीमी चलती गाड़ी से उतर गया। आज का ज़माना होता तो लम्बी गाड़ी में इंजन का हार्न और गार्ड की सीटी की आवाज़ भी सुनाई नहीं देती और विद्युत् गति में गाड़ी दौड़ जाती। उस समय तक भलमनसाहत थी। वह अज्ञात कुली हम लोगों के लिए देवदूत समान था उसे  भी लाखों नमन।
वीरेंद्र चाचा ( न्यूयार्क प्रवासी बाबूजी के एक चचेरे भाई ) ने मुझसे 2016 में यहाँ मिलने पर मुझसे मेरे  कुछ विचारों को पुस्तक रूप में छ्पवा लेने का सुझाव दिया था। मेरी श्रीमतीजी पूनम को यह सुझाव काफी अच्छा  लगा , उनके सान्निध्य और पुत्र यशवंत के सक्रिय सहयोग से ये विचार पुस्तकाकार रूप ले सके हैं।यही हम सबकी ओर से बाबूजी को उनकी जन्मशती पर सादर श्रद्धांजली है।  

Tuesday 25 June 2019

जननी,माँ,माता : निर्माता - पुण्यतिथि पर स्मरण

(स्व.कृष्णा माथुर : जन्म- 20 अप्रैल 1924,शाहजहाँपुर , मृत्यु - 25 जून 1995,आगरा  )


हम लोगों के यहाँ माँ को बउआ कहने का रिवाज था वही हमें भी बताया गया था आजकल फैशन में कुछ लोग मम्मी उच्चारित करने लगे हैं किन्तु हम अब भी वही ज़िक्र करते हैं जो बचपन से सिखाया गया था। हाँ सहूलियत के लिए कभी-कभी माँ कह देते हैं। जो ममत्व दे वह माँ और जो निर्माण करे वह माता कहलाने के योग्य होता है। श्री कृष्ण के लिए देवकी जननी तो थीं किन्तु माँ और माता की भूमिका का निर्वहन यशोदा ने किया था। इस दृष्टि से मैं खुद को भाग्यशाली समझ सकता हूँ कि हमारी बउआ  सिर्फ जननी ही नहीं वास्तव में माँ और माता भी थीं।सिर्फ बाबूजी ही नहीं बउआ की बताई -सिखाई बातों का भी प्रभाव आज तक मुझ पर कायम है जबकि दोनों को यह संसार छोड़े हुये अब चौबीस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। वैसे हमारे नानाजी ने मौसी को 5 वीं तथा बउआ को 4थी कक्षा तक ही पढ़वाया था। लेकिन बउआ का व्यवहारिक अनुभव आजकल के Phd. पढे लोगों से कहीं अधिक और सटीक था उनकी खुद की पुत्री भी डबल एम ए, Phd.होने के बावजूद अपनी माँ के बराबर ज्ञानार्जन न कर सकी हैं जिसका एक कारण अपनी माँ को ही अल्पज्ञ समझना भी है।

जहां तक मैं कर सका बउआ व बाबूजी की परम्पराओं व बातों को मानने का पूरा-पूरा प्रयास किया। लेकिन विद्रोहात्मक स्वभाव के कारण सड़ी-गली मान्यताओं को उनके जीवन काल में उनसे ही परिपालन न करने-कराने  की कोशिश करता रहा और अब पूरी तौर पर अव्यवहारिक व भेदभावमूलक मान्यताओं का पालन नहीं करता हूँ। व्यक्तिगत रूप से एकांतप्रिय स्वभाव अनायास ही नहीं बन गया है बल्कि बचपन से ही एकांत में मस्त रहने का अभ्यस्त रहा। इसका प्रमाण यह चित्र है :


मथुरानगर, दरियाबाद के पुश्तैनी घर में बड़े ताऊजी की बड़ी बेटी स्व.माधुरी जीजी अपनी चाची अर्थात हमारी बउआ से मुझे मांग कर ले जाती थीं और अपनी छोटी बहनों के साथ खेलने लगती थीं। मुझे एक तरफ बैठा देती थीं मुझे उन बड़ी बहनों के खेल में दिलचस्पी नहीं रही होगी तभी तो बेर के पत्तों से अकेले ही खेल लेता था। उन पत्तों में कांटे भी हो सकते हों परंतु मुझे कभी किसी कांटे से फर्क नहीं पड़ा होगा अन्यथा फिर जीजी मुझे कभी अपने साथ न ले जा पातीं। संघर्षों व अभावों से झूझते हुये बउआ ने बचपन से ही मेरी मानसिकता को जिस प्रकार ढाला था उसे मजबूती के साथ अपनाए हुये मैं आज भी अपने को सफल समझता हूँ। हाँ पत्नि व पुत्र के लिए ये स्थितियाँ अटपटी लगने वाली हैं। परंतु मेरे लिए नहीं जिसका उदाहरण पूर्व प्रकाशित लेख का यह अंश है

"पत्रकार स्व .शारदा पाठक ने स्वंय अपने लिए जो पंक्तियाँ लिखी थीं ,मैं भी अपने ऊपर लागू समझता हूँ :-

" लोग कहते हम हैं काठ क़े उल्लू ,हम कहते हम हैं सोने क़े .
इस दुनिया में बड़े मजे हैं  उल्लू   होने   क़े .."

ऐसा इसलिए समझता हूँ जैसा कि सरदार पटेल क़े बारदौली वाले किसान आन्दोलन क़े दौरान बिजौली में क्रांतिकारी स्व .विजय सिंह 'पथिक 'अपने लिए कहते थे मैं उसे ही अपने लिए दोहराता रहता हूँ :-
यश ,वैभव ,सुख की चाह नहीं ,परवाह नहीं जीवन न रहे .
इच्छा है ,यह है ,जग में स्वेच्छाचार  औ दमन न रहे .."

Sunday 23 June 2019

हँसता हुआ भागा रोता हुआ रोगी और एक ही फायर में मुर्दा जी उठा ---विजय राजबली माथुर

(स्व .हर मुरारी लाल ,स्व.के .एम् .लाल और स्व .सावित्री देवी माथुर )


56  वर्ष पूर्व बउआ के फूफाजी से  सुनी हुई  बातों का  स्मरण

अक्सर वह हमारे नानाजी से मिलने आते रहते थे और हम लोग बाबूजी की सिलीगुड़ी पोस्टिंग के दौरान नानाजी के पास कुछ वर्ष रहे थे अतः उनकी बातें सुनने का सौभाग्य मिल गया था। कुछ रहस्यपूर्ण राजनीतिक बातें तो उन्होने विशेष रूप से मुझसे ही की थीं जिस पर नाना जी और उनके दूसरे भाई भी आश्चर्य चकित हुये थे तथा उनसे प्रश्न किया था कि उन लोगों को अब तक ये बातें क्यों नहीं बताई थीं?जिसके उत्तर में उनका कहना था यह लड़का आगे इंनका लाभ उठा सकेगा आप लोग सुन कर भी कुछ नहीं करते। उनका आंकलन गलत नहीं था परंतु मैं उनके अनुमान का आधार नहीं जानता। इसी प्रकार चूंकि नानाजी होम्योपेथी चिकित्सा करते थे उनसे चिकित्सकों के बारे में वह चर्चाएं करते रहते थे। उन्हीं में से कुछ पर प्रकाश डाल रहा हूँ।

एक घटना के बारे में उन्होने बताया था कि एक डाक्टर साहब नियमों के पक्के और हर गरीब-अमीर से समान व्यवहार करने वाले थे। उनके पास मरीजों की काफी भीड़ लगी रहती थी क्योंकि वह नाम मात्र शुल्क पर इलाज करते थे। एक रोज़ उनके क्षेत्र का एक सफाई कर्मी रोता चिल्लाता उनके पास लाया गया और उनसे अनुरोध किया गया कि वह उसे पहले देख लें। किन्तु उन्होने उसे अपने नंबर आने तक इंतज़ार कराने को कहा। उसकी कराह और पीड़ा को देख कर दूसरे मरीजों ने भी आग्रह किया कि डॉ साहब उसको ही पहले देख लीजिये। लेकिन डॉ साहब ने नियम का हवाला देते हुये उसे अपनी बारी का इंतज़ार  करने को कहा। डॉ साहब ने तब तक के लिए उसके  तीमारदार से उसे भुने चने खिलाते रहने को कह दिया। दो -ढाई घंटे बाद जब उसको नंबर आने पर बुलाया गया तब वह नदारद था। इंतज़ार में बैठे बाकी मरीजों ने बताया कि डॉ साहब वह तो हँसता-हँसता चला गया यह कहता हुआ कि ,"कौन डॉ साहब का इन्तजार करे?मेरा तो दर्द उनको दिखाये बगैर ही ठीक हो गया।अब तो मैं शौच को जा रहा हूँ ।  "
डॉ साहब ने भी हँसते हुये कहा कि उसके दर्द की वही दवा थी जो मैंने उसको दिलवा दी थी तो फायदा तो होना ही था और इस बात को मैं जानता था। लोगों की उत्सुकता पर डॉ साहब ने बताया कि कल रात बस्ती में एक शादी थी जिसमें उसने खूब चर्बी वाले भोजन खाये होंगे और वह चर्बी आंतों पर दबाव बना रही होगी जिसको भुने चनों ने सोख लिया और  उसका पेट दर्द खत्म हो गया होगा ।

एक और घटना का ज़िक्र नानाजी से माँ के फूफा जी ने जो किया था उसका उल्लेख करना इसलिए ज़रूरी है कि आज के एलोपेथी चिकित्सक तो इस घटना को झुठला देंगे जबकि वह डॉ साहब भी एलोपेथी के ही थे। उनकी बताई घटना इस प्रकार थी :
एक गर्भिणी स्त्री को अक्सर मूर्च्छा आ जाया करती थी जिसका इलाज यह डॉ साहब करते थे। किन्तु किसी रिश्तेदार के कहने पर उस महिला के घर वालों ने किसी बड़े डॉ के फेर में इनको दिखाना बंद कर दिया था। एक सुबह जब डॉ साहब टहल कर लौट रहे थे तो उन्होने देखा कि उस महिला के घर वाले एक अर्थी ले जा रहे हैं जिससे खून की बूंदें भी टपकती जा रही थीं। किसी से उन्होने उत्सुकता वश पूछ लिया कि कौन है यह जब उनको बताया गया कि एक प्रिगनेंट औरत कल रात में मर गई है और यह उसी की अर्थी है। डॉ साहब बुदबुदाये कि ज़िंदा को फूंकने जा रहे हैं ,पुलिस को खबर हो जाये तो सबके सब बंद हो जाएँगे और तेज़-तेज़ कदमों से आगे बढ़ गए।

डॉ साहब की बात पर लोगों में फुसफुसाहट हुई कि डॉ साहब ने यह क्यों कहा कि ज़िंदा को फूंकने जा रहे हैं। कुछ जानकारों ने हिम्मत करके लपक कर डॉ साहब को रोका और पूछा कि डॉ साहब आप क्या कह रहे थे?डॉ साहब बोले कि कुछ नहीं कहा आप लोग अपना काम करें। एक साहब बोले कि डॉ साहब आपने कहा था कि ज़िंदा को फूंकने जा रहे हैं। डॉ साहब बोले तो जाओ फूँकों। लोगों की मिन्नत के बाद बोले कि इस मुर्दे को लेकर हमारे साथ हमारे घर चलो । लोगों ने वैसा ही किया।

अपने घर के चबूतरे पर डॉ साहब ने उस महिला की अर्थी को रखवा कर उसके बंधन खुलवा दिये और खुद घर के भीतर घुस गए। जब लौटे तो उनके हाथ में लोडेड बंदूक थी । लोगों ने कहा कि डॉ साहब यह क्या?तब तक डॉ साहब ने हवा में फायर कर दिया और वह महिला हिलने-डुलने लगी। थोड़ी देर में उसने पूछा यह क्या तमाशा है हमारे साथ यह भीड़ क्यों और हमें बांधा क्यों?अब तो सभी लोगों के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। डॉ साहब ने अपने घर से उस महिला को वस्त्र दिलवाए और लोगों को सख्त हिदायत दी कि अब से कभी भी मूर्छा आने पर वह किसी और डॉ के पास नहीं जाएँगे तथा उनको ही सूचित करेंगे। निर्धारित समय पर उस महिला ने संतान को जन्म दिया और स्वस्थ रही।

दरअसल उस महिला को मिर्गी  नहीं थी जैसा कि उसके घर वाले समझते थे और दूसरे डॉ साहब भी। उस महिला का गर्भस्थ शिशु कभी कभी स्थानच्युत होकर अपना हाथ उस महिला के हृदय पर रख देता था जिससे उतनी देर को वह महिला मूर्छावस्था में पहुँच जाती थी। जब तक इन डॉ साहब को बुलाया जाता था यह बिना कोई दवा दिये उसके पेट पर हाथ फेर कर शिशु को सही अवस्था में पहुंचा देते थे जिससे मूर्छा हट जाती थी। लेकिन घर के लोग मृगि  के शक में दूसरे डॉ से दिखाने लगे जिनको इस तथ्य का पता न था। विगत दिवस की घटना में वह गर्भस्थ शिशु अपनी माँ के हृदय पर हाथ रखने के बाद सो गया था और मूर्छा लंबी होने से घर वालों ने मृत मान कर दाह-संस्कार का निर्णय कर लिया था। इत्तिफ़ाक से यह डॉ साहब टहल कर लौट रहे थे तो अर्थी से गिरती खून की बूंदों को देख कर समझ गए थे कि उस महिला की मौत नहीं हुई है। उनके द्वारा बंदूक के फायर करने से गर्भस्थ शिशु जाग गया था और उसने अपना हाथ अपनी माँ के हृदय के ऊपर से हटा लिया था जिससे वह पूर्व वत गतिमान हो गई थी।

लोगों की ज़रा सी चूक और दूसरे डॉ द्वारा हकीकत न समझने से एक महिला और उसके अजन्मे शिशु की अकारण मौत हो सकती थी जिसे इन अनुभवी चिकित्सक की सूझ बूझ से बचा लिया गया था।

नानाजी और बउआ के फूफाजी के मध्य होने वाली तमाम राजनीतिक बातों को ध्यान में रख कर मैं व्यवहार की कसौटी पर कई बार कस चुका हूँ।

Sunday 16 December 2018

16 दिसंबर - बांगलादेश का आज़ादी दिवस ------ विजय राजबली माथुर


  
16 दिसंबर 1971 , ढाका 


 मेरठ में रूडकी रोड क़े क्वार्टर में रहते हुए P .O .W .का जो नज़ारा  हमने देखा था  वह आज भी ज्यों का त्यों याद है। मेरठ कालेज में समाजशास्त्र परिषद की गोष्ठी में भाग लेते हुए मैंने बांगला-देश को मान्यता देने का विरोध किया था। 
नवभारत टाईम्स क़े समाचार संपादक हरी दत्त शर्मा अपने 'विचार-प्रवाह  ' में निरन्तर लिख रहे थे-"बांग्ला-देश मान्यता और सहायता का अधिकारी "। पाकिस्तानी अखबार लिख रहे थे कि,सारा बांगला देश आन्दोलन भारतीय फ़ौज द्वारा संचालित है। बांगला देश क़े घोषित राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान को भारतीय एजेंट ,मुक्ति वाहिनी क़े नायक ताज्जुद्दीन अहमद को भारतीय फ़ौज का कैप्टन तेजा राम बताया जा रहा था। लेफ्टिनेंट जेनरल टिक्का खां का आतंक पूर्वी पाकिस्तान में बढ़ता जा रहा था और उतनी ही तेजी से मुक्ति वाहिनी को सफलता भी मिलती जा रही थी। जनता बहुमत में आने पर भी याहिया खां द्वारा मुजीब को पाकिस्तान का प्रधान-मंत्री न बनाये जाने से असंतुष्ट थी ही और टिक्का खां की गतिविधियाँ आग में घी का काम कर रही थीं। रोजाना असंख्य शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से भाग कर भारत आते जा रहे थे।  उनका खर्च उठाने क़े लिये अद्ध्यादेश क़े जरिये एक रु.का अतिरिक्त रेवेन्यु स्टेम्प(रिफ्यूजी रिलीफ) अपनी जनता पर इंदिरा गांधी ने थोप दिया था। असह्य परिस्थितियें होने पर इंदिरा जी ने बांगला-देश मुक्ति वाहिनी को खुला समर्थन दे दिया और उनके साथ भारतीय फौजें भी पाकिस्तानी सेना से  टकरा गईं। टिक्का खां को पजाब क़े मोर्चे पर ट्रांसफर करके लेफ्टिनेंट जेनरल ए.ए.क़े.नियाजी को पूर्वी पाकिस्तान का मार्शल ला एडमिनिस्ट्रेटर बना कर भेजा गया । राव फरमान अली हावी था और नियाजी स्वतन्त्र नहीं थे। लेकिन जब भारतीय वायु सेना ने 16 दिसंबर 1971 को ढाका में छाताधारी सैनिकों को उतार दिया तो फरमान अली की इच्छा क़े विपरीत नियाजी ने हमारे लेफ्टिनेंट जेनरल सरदार जगजीत सिंह अरोरा क़े समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया। ९०००० पाक सैनिकों को गिरफ्तार किया गया था।  इनमें से बहुतों को मेरठ में रखा गया था।  इनके कैम्प हमारे क्वार्टर क़े सामने भी बनाये गये थे। 

मेरठ से रूडकी जाने वाली सड़क क़े दायीं ओर क़े मिलेटरी क्वार्टर्स थे। गेट क़े पास वाले में हम लोग  रहते थे। सड़क उस पार सेना का खाली मैदान तथा शायद सिग्नल कोर की कुछ व्यवस्था थी। उसी खाली मैदान में सड़क की ओर लगभग ५ फुट का गैप देकर समानांतर विद्युत् तार की फेंसिंग करके उसमें इलेक्टिक करेंट छोड़ा गया था। उसके बाद अन्दर बल्ली,लकड़ी आदि से टेम्पोरेरी क्वार्टर्स बनाये गये थे। यह कैम्प परिवार वाले सैनिकों क़े लिये था जिसमें उन्हें सम्पूर्ण सुविधाएँ मुहैया कराई गई थीं। सैनिकों /सैन्य-अधिकारियों की पत्नियाँ मोटे-मोटे हार,कड़े आदि गहने पहने हुये थीं। यह भारतीय आदर्श था कि वे गहने पहने ही सुरक्षित वापिस गईं। यही यदि पाकिस्तानी कैम्प होता तो भारतीय सैनिकों को अपनी पत्नियों एवं उनके गहने सुरक्षित प्राप्त होने की सम्भावना नहीं होती। पंजाब तथा गोवा क़े पूर्व राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल  जे.ऍफ़.जैकब ने अपनी  पुस्तक में लिखा है (हिंदुस्तान ७/ १ /२०११ ) ढाका में तैनात एक संतरी से जब उन्होंने उसके परिवार क़े बारे में पूंछा "तो वह यह कहते हुए फूट-फूट कर रो पड़ा कि एक हिन्दुस्तानी अफसर होते हुए भी आप यह पूछ रहे हैं जबकि हमारे अपने किसी अधिकारी ने यह जानने की कोशिश नहीं की "। तो यह फर्क है भारत और पाकिस्तान क़े दृष्टिकोण का। इंदिराजी ने शिमला -समझौते में इन नब्बे हजार सैनिकों की वापिसी क़े बदले में तथा प.पाक क़े जीते हुए इलाकों क़े बदले में कश्मीर क़े चौथाई भाग को वापिस न मांग कर उदारता का परिचय दिया ? वस्तुतः न तो निक्सन का अमेरिका और न ही ब्रेझनेव का यू.एस.एस.आर.यह चाहता था कि कश्मीर समस्या का समाधान हो और जैसा कि बाद में पद से हट कर पी. वी.नरसिंघा राव सा :ने कहा (दी इनसाईडर) -हम स्वतंत्रता क़े भ्रम जाल में जी रहे हैं। भारत-सोवियत मैत्री संधी से बंधी इंदिराजी को राष्ट्र हित त्यागना पड़ा, अटल जी द्वारा दुर्गा का ख़िताब प्राप्त इंदिराजी बेबस थीं। 
किन्तु 16 दिसंबर 1971 को पूर्वी पाकिस्तान के स्थान पर आज़ाद बांगलादेश के उदय होने पर एक कवि ने इंदिराजी के सम्मान में कहा था :
लोग इतिहास बदलते 
तुमने भूगोल बदल डाला। 

~विजय राजबली माथुर ©