Sunday 16 December 2018

16 दिसंबर - बांगलादेश का आज़ादी दिवस ------ विजय राजबली माथुर


  
16 दिसंबर 1971 , ढाका 


 मेरठ में रूडकी रोड क़े क्वार्टर में रहते हुए P .O .W .का जो नज़ारा  हमने देखा था  वह आज भी ज्यों का त्यों याद है। मेरठ कालेज में समाजशास्त्र परिषद की गोष्ठी में भाग लेते हुए मैंने बांगला-देश को मान्यता देने का विरोध किया था। 
नवभारत टाईम्स क़े समाचार संपादक हरी दत्त शर्मा अपने 'विचार-प्रवाह  ' में निरन्तर लिख रहे थे-"बांग्ला-देश मान्यता और सहायता का अधिकारी "। पाकिस्तानी अखबार लिख रहे थे कि,सारा बांगला देश आन्दोलन भारतीय फ़ौज द्वारा संचालित है। बांगला देश क़े घोषित राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान को भारतीय एजेंट ,मुक्ति वाहिनी क़े नायक ताज्जुद्दीन अहमद को भारतीय फ़ौज का कैप्टन तेजा राम बताया जा रहा था। लेफ्टिनेंट जेनरल टिक्का खां का आतंक पूर्वी पाकिस्तान में बढ़ता जा रहा था और उतनी ही तेजी से मुक्ति वाहिनी को सफलता भी मिलती जा रही थी। जनता बहुमत में आने पर भी याहिया खां द्वारा मुजीब को पाकिस्तान का प्रधान-मंत्री न बनाये जाने से असंतुष्ट थी ही और टिक्का खां की गतिविधियाँ आग में घी का काम कर रही थीं। रोजाना असंख्य शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से भाग कर भारत आते जा रहे थे।  उनका खर्च उठाने क़े लिये अद्ध्यादेश क़े जरिये एक रु.का अतिरिक्त रेवेन्यु स्टेम्प(रिफ्यूजी रिलीफ) अपनी जनता पर इंदिरा गांधी ने थोप दिया था। असह्य परिस्थितियें होने पर इंदिरा जी ने बांगला-देश मुक्ति वाहिनी को खुला समर्थन दे दिया और उनके साथ भारतीय फौजें भी पाकिस्तानी सेना से  टकरा गईं। टिक्का खां को पजाब क़े मोर्चे पर ट्रांसफर करके लेफ्टिनेंट जेनरल ए.ए.क़े.नियाजी को पूर्वी पाकिस्तान का मार्शल ला एडमिनिस्ट्रेटर बना कर भेजा गया । राव फरमान अली हावी था और नियाजी स्वतन्त्र नहीं थे। लेकिन जब भारतीय वायु सेना ने 16 दिसंबर 1971 को ढाका में छाताधारी सैनिकों को उतार दिया तो फरमान अली की इच्छा क़े विपरीत नियाजी ने हमारे लेफ्टिनेंट जेनरल सरदार जगजीत सिंह अरोरा क़े समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया। ९०००० पाक सैनिकों को गिरफ्तार किया गया था।  इनमें से बहुतों को मेरठ में रखा गया था।  इनके कैम्प हमारे क्वार्टर क़े सामने भी बनाये गये थे। 

मेरठ से रूडकी जाने वाली सड़क क़े दायीं ओर क़े मिलेटरी क्वार्टर्स थे। गेट क़े पास वाले में हम लोग  रहते थे। सड़क उस पार सेना का खाली मैदान तथा शायद सिग्नल कोर की कुछ व्यवस्था थी। उसी खाली मैदान में सड़क की ओर लगभग ५ फुट का गैप देकर समानांतर विद्युत् तार की फेंसिंग करके उसमें इलेक्टिक करेंट छोड़ा गया था। उसके बाद अन्दर बल्ली,लकड़ी आदि से टेम्पोरेरी क्वार्टर्स बनाये गये थे। यह कैम्प परिवार वाले सैनिकों क़े लिये था जिसमें उन्हें सम्पूर्ण सुविधाएँ मुहैया कराई गई थीं। सैनिकों /सैन्य-अधिकारियों की पत्नियाँ मोटे-मोटे हार,कड़े आदि गहने पहने हुये थीं। यह भारतीय आदर्श था कि वे गहने पहने ही सुरक्षित वापिस गईं। यही यदि पाकिस्तानी कैम्प होता तो भारतीय सैनिकों को अपनी पत्नियों एवं उनके गहने सुरक्षित प्राप्त होने की सम्भावना नहीं होती। पंजाब तथा गोवा क़े पूर्व राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल  जे.ऍफ़.जैकब ने अपनी  पुस्तक में लिखा है (हिंदुस्तान ७/ १ /२०११ ) ढाका में तैनात एक संतरी से जब उन्होंने उसके परिवार क़े बारे में पूंछा "तो वह यह कहते हुए फूट-फूट कर रो पड़ा कि एक हिन्दुस्तानी अफसर होते हुए भी आप यह पूछ रहे हैं जबकि हमारे अपने किसी अधिकारी ने यह जानने की कोशिश नहीं की "। तो यह फर्क है भारत और पाकिस्तान क़े दृष्टिकोण का। इंदिराजी ने शिमला -समझौते में इन नब्बे हजार सैनिकों की वापिसी क़े बदले में तथा प.पाक क़े जीते हुए इलाकों क़े बदले में कश्मीर क़े चौथाई भाग को वापिस न मांग कर उदारता का परिचय दिया ? वस्तुतः न तो निक्सन का अमेरिका और न ही ब्रेझनेव का यू.एस.एस.आर.यह चाहता था कि कश्मीर समस्या का समाधान हो और जैसा कि बाद में पद से हट कर पी. वी.नरसिंघा राव सा :ने कहा (दी इनसाईडर) -हम स्वतंत्रता क़े भ्रम जाल में जी रहे हैं। भारत-सोवियत मैत्री संधी से बंधी इंदिराजी को राष्ट्र हित त्यागना पड़ा, अटल जी द्वारा दुर्गा का ख़िताब प्राप्त इंदिराजी बेबस थीं। 
किन्तु 16 दिसंबर 1971 को पूर्वी पाकिस्तान के स्थान पर आज़ाद बांगलादेश के उदय होने पर एक कवि ने इंदिराजी के सम्मान में कहा था :
लोग इतिहास बदलते 
तुमने भूगोल बदल डाला। 

~विजय राजबली माथुर ©

Wednesday 24 October 2018

संघर्ष और अभावों का जीवन था बाबूजी का ( जन्मदिन पर स्मरण ) ------ विजय राजबली माथुर

जन्म : 24-10-1919 को दरियाबाद , मृत्यु: 13-06-1995 को आगरा

संघर्ष और अभावों का जीवन था बाबूजी का ( जन्मदिन पर स्मरण ) 
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हमारे बाबूजी का जन्म 24-10-1919 को दरियाबाद, बाराबंकी में हुआ था और मृत्यु 13-06-1995 को आगरा में । बाबूजी जब चार वर्ष के ही थे तभी दादी जी नहीं रहीं और उनकी देख-रेख तब उनकी भुआ ने की थी। इसीलिए जब बाबूजी को बाबाजी ने जब पढ़ने के लिए काली चरण हाई स्कूल, लखनऊ भेजा तो वह कुछ समय अपनी भुआ के यहाँ व कुछ समय स्कूल हास्टल में रहे।

* भीखा लाल जी उनके सहपाठी और कमरे के साथी भी थे। जैसा बाबूजी बताया करते थे-टेनिस के खेल में स्व.अमृत लाल नागर जी ओल्ड ब्वायज असोसियेशन की तरफ से खेलते थे और बाबूजी उस समय की स्कूल टीम की तरफ से। स्व.ठाकुर राम पाल सिंह जी भी बाबूजी के खेल के साथी थे। बाद में जहाँ बाकी लोग अपने-अपने क्षेत्र के नामी लोगों में शुमार हुए ,हमारे बाबूजी 1939-45 के द्वितीय विश्व-युद्ध में भारतीय फ़ौज की तरफ से शामिल हुए।

** अमृत लाल नागर जी  हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हुए तो ठा.रामपाल सिंह जी  नवभारत टाइम्स ,भोपाल के सम्पादक। भीखा लाल जी पहले पी.सी एस. की मार्फ़त तहसीलदार हुए ,लेकिन स्तीफा देके भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए और प्रदेश सचिव भी रहे। बाबूजी को लगता था जब ये सब बड़े लोग बन गए हैं तो उन्हें पहचानेंगे या नहीं ,इसलिए फिर उन सब से संपर्क नहीं किया। एक आन्दोलन में आगरा से मैं लखनऊ आया था तो का.भीखा लाल जी से मिला था,उन्होंने बाबूजी का नाम सुनते ही कहा अब उनके बारे में हम बताएँगे तुम सुनो-उन्होंने वर्ष का उल्लेख करते हुए बताया कब तक दोनों साथ-साथ पढ़े और एक ही कमरे में भी रहे। उन्होंने कहा कि,वर्ल्ड वार में जाने तक की खबर उन्हें है उसके बाद बुलाने पर भी वह नहीं आये,खैर तुम्हें भेज दिया इसकी बड़ी खुशी है। बाद में बाबूजी ने स्वीकारोक्ति की कि, जब का.भीखा लाल जी विधायक थे तब भी उन्होंने बाबूजी को बुलवाया था परन्तु वह संकोच में नहीं मिले थे।

*** बाबूजी के फुफेरे भाई साहब स्व.रामेश्वर दयाल माथुर जी के पुत्र स्व कंचन ने (10 अप्रैल 2011 को मेरे घर आने पर) बताया कि ताउजी और बाबूजी दोस्त भी थे तथा उनके निवाज गंज के और साथी थे-स्व.हरनाम सक्सेना जो दरोगा बने,स्व.देवकी प्रसाद सक्सेना,स्व.देवी शरण सक्सेना,स्व.देवी शंकर सक्सेना। इनमें से दरोगा जी को 1964 में रायपुर में बाबाजी से मिलने आने पर व्यक्तिगत रूप से देखा था बाकी की जानकारी पहली बार प्राप्त हुई थी ।

**** बाबू जी ने खेती कर पाने में विफल रहने पर पुनः नौकरी तलाशना शुरू कर दिया। उसी सिलसिले में इलाहाबाद जाकर लौट रहे थे तब उनकी कं.के पुराने यूनिट कमांडर जो तब लेफ्टिनेंट कर्नल बन चुके थे और लखनऊ में सी.डब्ल्यू.ई.की पोस्ट पर एम्.ई.एस.में थे उन्हें इलाहाबाद स्टेशन पर मिल गए। यह मालूम होने पर कि बाबूजी पुनः नौकरी की तलाश में थे उन्हें अपने दफ्तर में बुलाया। बाद में बाबूजी जब उनसे मिले तो उन्होंने स्लिप देकर एम्प्लोयमेंट एक्सचेंज भेजा जहाँ तत्काल बाबूजी का नाम रजिस्टर्ड करके फारवर्ड कर दिया गया और सी.डब्ल्यू ई. साहब ने अपने दफ्तर में उन्हें ज्वाइन करा दिया। घरके लोगों ने ठुकराया तो बाहर के साहब ने रोजगार दिलाया। सात साल लखनऊ,डेढ़ साल बरेली,पांच साल सिलीगुड़ी,सात साल मेरठ,चार साल आगरा में कुल चौबीस साल छः माह दुबारा नौकरी करके 30 सितम्बर 1978 को बाबू जी रिटायर हुए.तब से मृत्यु पर्यंत (13 जून 1995 )तक मेरे पास बी-560 ,कमला नगर ,आगरा में रहे। बीच-बीच में अजय की बेटी होने के समय तथा एक बार और बउआ के साथ फरीदाबाद कुछ माह रहे।

***** कुल मिला कर बाबूजी का सम्पूर्ण जीवन संघर्ष और अभावों का रहा। लेकिन उन्होने कभी भी ईमान व स्वाभिमान को नहीं छोड़ा। मैं अपने छोटे भाई-बहन की तो नहीं कह सकता परंतु मैंने तो उनके इन गुणों को आत्मसात कर रखा है जिनके परिणाम स्वरूप मेरा जीवन भी संघर्षों और अभावों में ही बीता है जिसका प्रभाव मेरी पत्नी व पुत्र पर भी पड़ा है।चूंकि बाबूजी अपने सभी भाई-बहन में सबसे छोटे थे और बड़ों का आदर करते थे इसलिए अक्सर नुकसान भी उठाते थे। हमारी भुआ उनसे अनावश्यक दान-पुण्य करा देती थीं। अब उनकी जन्म-पत्री के विश्लेषण से ज्ञात हुआ है कि इससे भी उनको जीवन में भारी घाटा उठाना पड़ा है। उनकी जन्म-कुंडली में ब्रहस्पति 'कर्क' राशिस्थ है अर्थात 'उच्च' का है अतः उनको मंदिर या मंदिर के पुजारी को तो भूल कर भी 'दान' नहीं करना चाहिए था किन्तु कोई भी पोंगा-पंडित अधिक से अधिक दान करने को कहता है फिर उनको सही राह कौन दिखाता? वह बद्रीनाथ के दर्शन करने भी गए थे और जीवन भर उस मंदिर के लिए मनी आर्डर से रुपए भेजते रहे। इसी वजह से सदैव कष्ट में रहे। 1962 में वृन्दावन में बिहारी जी के दर्शन करके लौटने पर बरेली के गोलाबाज़ार स्थित घर पहुँचने से पूर्व ही उनके एक साथी ने नान फेमिली स्टेशन 'सिलीगुड़ी' ट्रांसफर की सूचना दी। बीच सत्र में शाहजहांपुर में हम लोगों का दाखिला बड़ी मुश्किल से हुआ था।

****** बाबूजी के निधन के बाद जो आर्यसमाजी पुरोहित शांति-हवन कराने आए थे उनके माध्यम से मैं आर्यसमाज, कमलानगर- बल्केश्वर, आगरा में शामिल हो गया था और कार्यकारिणी समिति में भी रहा। किन्तु ढोंग-पाखंड-आडंबर के विरुद्ध व्यापक संघर्ष चलाने वाले स्वामी दयानन्द जी के आर्यसमाज संगठन में आर एस एस वालों की घुसपैठ देखते हुये संगठन से बहुत शीघ्र ही अलग भी हो गया था परंतु पूजा पद्धति के सिद्धान्त व नीतियाँ विज्ञान-सम्मत होने के कारण अपनाता हूँ।

******* मेरे पाँच वर्ष की आयु से ही बाबूजी 'स्वतन्त्र भारत' प्रति रविवार को ले देते थे। बाद में बरेली व मेरठ में दफ्तर की क्लब से पुराने अखबार लाकर पढ़ने को देते थे जिनको उसी रोज़ रात तक पढ्ना होता था क्योंकि अगले दिन वे वापिस करने होते थे, पुराने मेगजीन्स जैसे धर्मयुग,हिंदुस्तान,सारिका,सरिता आदि पूरा पढ़ने तक रुक जाते थे फिर दूसरे सप्ताह के पुराने पढ़ने को ला देते थे। अखबार पढ़ते-पढ़ते अखबारों में लिखने की आदत पड़ गई थी। इस प्रकार कह सकता हूँ कि आज के मेरे लेखन की नींव तो बाबूजी द्वारा ही डाली हुई है। इसलिए जब कभी भूले-भटके कोई मेरे लेखन को सही बताता या सराहना करता है तो मुझे लगता है इसका श्रेय तो बाबूजी को जाता है क्योंकि यह तो उनकी 'दूरदर्शिता' थी जो उन्होने मुझे पढ़ने-लिखने का शौकीन बना दिया था। आज उनको यह संसार छोड़े हुये अब तेईस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं परंतु उनके विचार और सिद्धान्त आज भी मेरा 'संबल' बने हुये हैं।

Wednesday 31 January 2018

सन 2012 की नायिका ' मतलबी दुनिया '


 सन 2012 की नायिका ' मतलबी दुनिया ' : सविता सिन्हा 
मतलबी दुनिया यह खिताब है मिसेज आर आर सहाय का ।क्यों ? क्योंकि वह अपनी इस ज़िद्द पर अड़ी हुई हैं कि उनकी चचिया  सास (आरा और देवघर वाली दोनों ही ) सही हैं । वह बार-बार बताने के बावजूद उनसे सावधान रहने को तैयार नहीं हैं और 2012 का गाना गाती  रहती हैं। 2012 में क्या हुआ था ?
यों तो 2006 और 2007 में भी उनको अपनी नन्द  का पटना आना नहीं सुहाया था जबकि माँ जी जीवित थीं। 2009 और 2012 में भी उनके मना करने के बावजूद वह  वहाँ गईं और रहीं। जब मैं  11 मई 2012 को पहुंचाने गया था तो मेरा अभिवादन-नमस्ते मतलबी दुनिया ने स्वीकार नहीं किया था।  शाम को वह दिल्ली चली गईं और अगले दिन उनके रांची वाले चचिया श्वसुर ने 'नेता चोर ' का राग अलापा और उनके पति ने उसमें हाँ में हाँ मिलाई। इस वजह से दरार उत्पन्न हुई। उनके  इंजीनियर देवर ने उनसे उनकी नन्द  को हवाई जहाज़ में बैठा कर रवाना करने को कहा व देहरादून वाले उनके चचिया सुसर ने लखनऊ में मुकदमा चलाने को। इंजीनियर बराबर अपनी बहन को कहते थे कि माँ और दादी पीहर नहीं जातीं तो तुम क्यों जाती हो ? वह  मेरे मना करने के बावजूद जाती रहीं तब मतलबी दुनिया को यह  ड्रामा खेलना पड़ा। पटना से देवघर जिस दिन  ( 01 सितंबर 2012 ) उनकी नन्द   गईं थीं उस दिन लखनऊ में मेरे प्राण उखड़ते-उखड़ते रह गए थे। देवघर में उनके प्रिय देवर मनोज-ओंकार ने ( जिसको लेकर वह 1995 में आगरा आकर दयाल लाज में ठहरी थीं और 2015 में जिसके 24 घंटे अपने साथ रखने का डंका पीटा था ) उनकी नन्द के समक्ष   ही कहा था कि भाई- भतीजा-भतीजी कुछ नहीं होता है वह सब को काट डालेंगे। 2013 में देवघर वाली उनकी छोटी माँ SGPGI,लखनऊ में उनकी नन्द   से बोलीं कि वह अपनी दोनों  भतीजी को न मानें। मुझसे बोलीं कि मैं उनके बेटों मनोज-मधुकर का गार्जियन बन जाऊ फिर मेरे बाद वे दोनों मेरे पुत्र के गार्जियन होंगे। सब बातें जानने के बाद भी मतलबी दुनिया के लिए वह अच्छी हैं तो उनको मुबारक,हमारे ऊपर उनको अच्छा मानने और इज्ज़त देने का दबाव क्यों ?
आरा वाली की हरकतों के कारण मुझे एक लाख का कम से कम नुकसान हुआ ही अतः उनके अहमदाबाद वाले बेटे को अपने घर लखनऊ 2010 में  नहीं आने दिया था उस पर भी मतलबी दुनिया बिफरी थीं और उनके बचाव में मुझको फोन पर ही फटकार लगाई थी, आर आर साहब बोले थे कि, वह और आरा वाली का बेटा एक ही बात हैं । आरा वाली जब 13 दिसंबर 2014 को उनके घर पहुँचीं तो उनकी बड़ी बेटी  की तबीयत खराब हो गई और वह बैंक की परीक्षा न दे सकी। उसके एक सप्ताह बाद से आर आर साहब  बीमार  रहे हैं और बेहद परेशान भी । आरा वाली की  बेटी ने 24 दिसंबर को उनकी नन्द   को मेसेज देकर पूछा  कि 'अभी कहाँ हो ?' और उसके अगले दिन उनके देवघर वाले चाचा का निधन हो गया।
आर आर  साहब को 8 दिन अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा काफी  परेशान  भी रहे । जब दवाएं फायदा नहीं दे रही थीं तब उनको  बताया  था कि  रोग को उनकी चाचियों के टोटके ने ठीक होने से रोका हुआ है तो मतलबी दुनिया बिफर पड़ीं कि, उनकी छोटी माँ का बेटा ही 24 घंटे उनके साथ - साथ है और उनको अपनी नन्द की ज़रूरत नहीं है तारीख और गाड़ी बताएं जिससे लौटने के रिटर्न  टिकट वह तैयार रखें  । तब  उनकी नन्द  की इच्छा व उनकी बड़ी बेटी की चाहत   के बावजूद जाने - आने के टिकट केनसिल करा दिये। वस्तुतः  मैं तो मतलबी दुनिया की परछाईं से भी दूर रहना चाहता हूँ परंतु  पूर्व की भांति ही उनकी नन्द की ख़्वाहिश पर उनके  भाई साहब से मिलवाने  बेइज्जती बर्दाश्त करके जा रहा था।

2015 में मेरे जन्मदिन की बधाई की आड़ में मतलबी दुनिया ने अपनी नन्द  को फोन किया( वैसे उनकी नन्द ही   इधर से करती हैं)  उधर से केवल ज़रूरत व मतलब होने पर ही फोन आता है। लेकिन वकालत अपनी दोनों धूर्त चचिया सासों की की।जबकि बाद में स्वीकार भी किया था कि, उनके पति को उसी हास्पिटल के उसी ICU में वही बेड मिला था जिस पर उनके देवघर वाले  दिवंगत चाचा रहे थे। आरा वाली उनकी अपनी असली माता श्री को कोसती रहती थी कि, कितने दामादों को खोने के बाद जाएंगी ? लेकिन उनको अपने पति और अपनी माँ तथा सास से लगाव होता तब न उनको बुरा मानतीं ? जबकि देख चुकीं थीं कि, आरा वाली और देवघर वाली ने मिलकर टोटके के जरिये  उनकी माँ के एक दामाद साहब को दुनिया से उनके रोग को तीखा बढ़ा कर इस दुनिया से रुखसत कर दिया था। ' भले घोड़े को एक चाबुक और भले आदमी को एक बात ' ही बहुत होती है परंतु वह भली औरत होतीं तब न सावधान होतीं ? वह तो सावधान करने वाले को ही बुरा प्रचारित करने में सिद्ध - हस्त हैं। मैंने मतलबी दुनिया के परिवार की  ही जन्म - पत्रियों का ही विश्लेषण नहीं किया है बल्कि देवघर वाले, वाली, उनके तीनों बच्चों  व दामाद के अलावा  आरा वाली के तीनों बच्चों तथा देहरादून वाले की बेटी की भी जन्म्पत्रियों के विश्लेषण किए हैं सब के रफ पेपर मेरे पास हैं। सब का सब हाल मालूम है।

 उस समय आर आर  साहब का महादशा व अंतर्दशा में समय ठीक था पर बीमार हुये तो  क्यों ? कैसे ? मतलबी दुनिया मानने को राज़ी नहीं है कि उनकी चचिया सासों का किया धरा वह सब  रहा है। जो मूरखा अपने पति व अपने बच्चों की सगी नहीं है और अपने दुश्मनों को ही पूजती है उससे रिश्तेदारी मैं नहीं निभा सकता ।
उनको समझाने का आग्रह उनकी तीन बहनों से किया था। पटना वाली अपनी बहन को  दबाव में  लेकर अपनी चचिया सासों के पक्ष में कर लिया  तो अमेरिका वाली से  उल्टे मेरे ही खिलाफ कारवाई की धमकी दिलवाई   थी। केवल लखनऊ वाली उनकी फुफेरी बहन ने तब जवाब दिया था ( क्योंकि  वह मुझ से एक जन्म पत्री का विश्लेषण प्राप्त कर चुकीं थीं,   इसलिए अब उनको भी जिनको पुरानी ID पर नहीं जोड़ा हुआ था अब  नई ID पर जोड़ कर  झूठ के जरिये गुमराह कर लिया गया है )  :







उपरोक्त स्क्रीन शाट यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि, वह आरा वाली के दामाद, पुत्र - पुत्रियोंके साथ - साथ अपने उस चचिया सुसर जो उनके समक्ष पूर्ण नग्न घूमता है के उस पुत्र को भी एफ़ बी फ्रेंड बनाए हुये हैं जिसने उनको अपनी जांघ पर बैठने का आह्वान किया था। ज़ाहिर है किसी और ने नहीं उनके द्वारा खुद ही उन लोगों को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी गई है। वे लोग उनके चरित्र के अनुरूप है सिर्फ इसीलिए वे अच्छे हैं।

चूंकि मैं अपनी पत्नी के रिश्ते को देखते हुये उन लोगों का नुकसान न होने पाये ऐसा चाहता था जिस कारण ही उनकी चाचिया सासों व चचिया सुसरों से आगाह किया था और यदि उनके खिलाफ मुहिम न चलाई होती तो वे उनके पति को भी ठीक न होने देतीं जिस प्रकार उनके बहनोई को ठीक नहीं होने दिया था।  उन दोनों को मेरे द्वारा बेनकाब किए जाने  के कारण कदम पीछे हटाने पड़े थे । लेकिन उनको भलमनसाहत कब पसंद है ? इसलिए दूसरी ID पर भी उनके द्वारा न जोड़ने पर भी उनके सेल्फ इम्प्लॉइमेंट वाली पोस्ट को लाईक करके उस  लिंक पर कुछ पोस्ट्स कमेंट्स में लगा दिये थे जिनके जरिये उन लोगों को ही लाभ हो सकता था। परंतु जहां मूर्खता सिर चढ़ कर बोल रही हो वहाँ भलाई चाहने वाला नहीं पीठ में छुरा भोंकने वाला पसंद किया जाता है जिसका नमूना उन पोस्ट्स को डिलीट करके व हाईड करके पेश किया गया है उसका भी स्क्रीन शाट प्रस्तुत है । :


सम्बद्ध अन्य पोस्ट्स : 


डॉ एस सी अस्थाना और डॉ एन के सिन्हा : रिशतेदारों से गैर भलेhttp://puraniyaden2908.blogspot.in/2017/11/blog-post.html


कुशाग्र बुद्धि बिलासपति सहाय साहबhttp://puraniyaden2908.blogspot.in/2017/12/blog-post.html


बुद्धि शून्यों के बादशाह - बेगम : राजीव रंजन और सविता सिन्हाhttp://puraniyaden2908.blogspot.in/2018/01/blog-post.html

Wednesday 10 January 2018

बुद्धि शून्यों के बादशाह - बेगम : राजीव रंजन और सविता सिन्हा

कमला नगर, आगरा में बाबू जी साहब व माँ जी  ( Mrs & Mr B P Sahay ) आर्यसमाजी विधि से   हवन करते हुये 

कोई भी प्राणी जो मननशील हो मनुष्य कहलाता है। बुद्धि-ज्ञान-विवेक के साथ मनन करना ही मनुष्यता है। परंतु जब मनन के स्थान पर थोथे सेंटिमेंट्स हावी हों तब ऐसे लोगों को दाराब फ़ारूक़ी साहब( जो पटकथा लेखक हैं और फिल्म डेढ़ इश्किया की कहानी लिख चुके हैं) ने ‘एजुकेटेड इल्लिट्रेट’:  ‘पढ़ा-लिखा गंवार’ कहा है। ज्वलंत उदाहरण के रूप में  राजीव रंजन ( सुपुत्र बी पी सहाय साहब http://puraniyaden2908.blogspot.in/2017/12/blog-post.htmlऔर सविता सिन्हा ( सुपुत्री डॉ एन के सिन्हा साहब       http://puraniyaden2908.blogspot.in/2017/11/blog-post.html ) प्रस्तुत हैं।




इतने विद्वान व समझदार पिताओं के पुत्र - पुत्री बेहद शर्मनाक तरीके से ‘एजुकेटेड इल्लिट्रेट’के रूप में खुद को पेश किए हुये हैं बताते हुये दुख व अफसोस तो होता है लेकिन सच्चाई सामने लाने के लिए ऐसा किया जाना मजबूरी और ज़रूरी है।

चाचा - चाची और भुआ के साथ हैं :
1995-96 के दौरान उनकी पुत्रियों के साथ उनके चाचा - चाची और भूआओं द्वारा द्वारा किए दुर्व्यवहार को देखते हुये सुमन ( प्रकाश कुमार ) के विवाह के समय जब बाबूजी साहब, माँ जी व ये दोनों महानुभाव एक साथ बैठे थे तब मैंने बाबूजी साहब से कहा था कि, ' भाई साहब को समझाइए कि, उनके चाचा - चाची और भुआएं जिस प्रकार उनकी बेटियों को प्रताड़ित करते हैं उनका विरोध और अपने बच्चों का बचाव करें । ' इस पर बाकी तीनों  तो मौन साध लिए लेकिन बादशाह साहब ने हुक्म फरमाया कि, वह अपने चाचा - चाची और भुआ के साथ हैं। और यह दिखा दिया जब उनके जिस चाचा ने उनके पिताजी को जिस दिन  जलील किया था उसी दिन उनका सत्कार करके। तब बाबूजी साहब को सार्वजनिक रूप से उनसे कहना पड़ा था - " You are not Reliable to me, You are not faithfull to me " ।इसी शख्स की पत्नी को इनकी पत्नी ' छोटी माँ ' के रूप में संबोधित करती और उनका अनुसरण करती हैं। इनके ही बेटे को लेकर हमारे घर एकमात्र बार आईं थीं आगरा में।
उनकी नहीं तो किसकी मानें  ? :
बाबूजी साहब ने बताया था कि, आलोक कुमार ने अपनी माताजी को ठग कर मकान पर कब्जा करके उसे बेचने का उपक्रम किया था जिसको उन्होने विफल कर दिया था। लेकिन अफसोस कि, उनके बड़े सुपुत्र साहब जिनको वही आलोक गया ले जाकर दान - पुण्य करा लाये थे ( जबकि मंदिर और पुजारी को दान देना उनके लिए घातक है उनको पहले ही बता रखा था ) जिसके बाद वह गंभीर बीमार हुये और अस्पताल मे भी एडमिट रहना पड़ा ।उनकी सहयोगी थीं बेगम साहिबा की छोटी माँ जिनके टोटके - टोने से बादशाह साहब उसी ICUऔर उसी बेड पर एडमिट रहे जिस पर उनके पिता को जलील करने वाले चाचा रहे थे।  जब 2015 में उनको याद दिलाया तो कहते हैं " उनकी नहीं तो किसकी मानें ? " कितनी शानदार बात हुई कि, जो अपनी माँ का सगा नहीं था वह बादशाह साहब की निगाह में उनका  सगा हुआ। तभी तो उनकी आँख की पुतली घूमते ही अपने पिताजी को यह कह कर अभी आ रहे हैं फिर आलोक साहब के साथ बाहर चले गए बिना उनको बताए हुये ही। यह इनके साथ सगेपन का ही दीवानापन था कि इनके घर की चौकीदारी करने दोनों पति-पत्नी अपनी दोनों छोटी - छोटी पुत्रियों को अकेला छोड़ कर चले गए थे। इनकी अपनी सबसे  बड़ी भतीज - बहू के समक्ष पूर्णत : नग्न उपस्थित होना, बाढ़ पीड़ितों की सहायता सामाग्री हड़प लेना  इन आलोक साहब के  चरित्र की विशेषता है। इनके द्वारा इन बादशाह साहब की बड़ी पुत्री को लात  से धकेल देना भी इन दोनों को नागवार नहीं लगा जो उनके प्रति इन दोनों के दीवानेपन की निंदनीय  पराकाष्ठा है। हाथ - कंगन को आरसी क्या ? पढे - लिखे को फारसी क्या ?? और तो और चूंकि आलोक ने पहले अपनी छोटी बेटी का विवाह किया था इसलिए बादशाह साहब ने भी उसी प्रक्रिया को दोहराया। 
2012 में क्या हुआ था ? : 
यों तो समय - समय पर उन लोगों को उनके चाचाओं - चाचियों के बारे में आगाह करते रहे थे , परंतु 11मई 2012 को बादशाह साहब को उनकी आरा वाली चाची का नामोल्लेख करके स्पष्ट कर दिया था कि वह आपके और हमारे बीच दरार डाल कर रिश्ता तुड़वाना चाहती हैं।उनका स्पष्ट समर्थन अपनी चाची के साथ रहा। 2009 में उनकी बेगम साहिबा भी अपनी इस खोटी चचिया सास का समर्थन कर चुकी थीं। वस्तुतः 2009 और 2012 में बादशाह साहब अपनी बेगम साहिबा से अपनी बहन को वहाँ आने से मना करवा चुके थे किन्तु उनकी बहन ज़िद्द करके वहाँ ज़बरदस्ती गईं। अतः भविष्य में आने से रोकने के लिए बादशाह साहब ने मेरे पुत्र को अनर्गल बातें सुना डालीं स्व्भाविक रूप से उसका प्रतीकार करना पड़ा जो उनको नागवार लगा। 2000 में उनके भाई सुमन पहले ही अपनी बहन को कह चुके थे कि जब दादी और माँ अपने मायके नहीं जाती हैं तो तुम क्यों आती हो ? उनसे तो तभी से कट - आफ था। 
रिटर्न टिकट कांड :    
''2012 में क्या हुआ था ?" यही वाक्य आधार बना कर 2015 में बादशाह साहब ने अपनी बेगम साहिबा के जरिये अपनी बहन को वहाँ उनकी बीमारी में देखने आने से रोकने के लिए सीधे मुझको कहलवाया कि, " हमें उनकी जरूरत नहीं है " और यह भी कि, " अपने आने की तारीख  और गाड़ी बताएं जिससे रिटर्न टिकट तैयार रखें।" उनके साथ उनकी छोटी माँ ( वही जो SGPGI, लखनऊ में उनकी ही बेटियों की खिलाफत करके गई थी,विशेष रूप से छोटी की ज़्यादा  ) का बेटा ( वही जिसने देवघर में 01 सितंबर 2012 को उनकी नन्द के समक्ष कहा था बहन-भाई, भतीजा- भतीजी कुछ नहीं होते हैं वह सब को काट - पीट डालेगा , उसी को साथ लेकर 1995 में आगरा पहुंची थीं )  24 घंटे उनके साथ है और किसी की उनको ज़रूरत नहीं है। 

स्वभाविक रूप से हमने जाने - आने (रिटर्न टिकट तो सुविधा शुरू होने से लगातार हम खुद ही ले कर चलते थे , बेगम साहिबा के मोहताज नहीं थे ) रद्द - केनसिल करा दिये। बेगम साहिबा की बहनों के जरिये उन लोगों को समझाने का प्रयास किया जो व्यर्थ गया क्योंकि सभी को पहले से ही गुमराह किया हुआ था। लेकिन बादशाह साहब की बहन अपने भाई को देखने को उत्कंठित थीं अतः 22 अप्रैल 2015 को यहाँ से चल कर 23 को पहुंचे और 25 की प्रातः लौट लिए। परंतु जब लखनऊ में ट्रेन में बैठ चुके थे बेगम साहिबा ने अपनी नन्द को फोन करके न आने को फिर कहा । लेकिन ट्रेन से उतर कर घर लौटना परले  दरजे  की बेवकूफी होती अतः बेइज्जती सहते हुये ही एक बहन को उसके भाई से मिलवाया जा सका।  वहाँ उनकी बड़ी बेटी को समझाने का प्रयास किया कि, अपने पिता श्री को उनके चाचा - चाचियों के षड्यंत्र से बचाओ तो बादशाह साहब ने अपनी बेटी को घुड़क कर हटा दिया और उन बच्चों को मेरे ही विरुद्ध भड़का दिया। उनको उस समय यह भी आपत्ति थी कि पुलिस कालोनी,पटना  की एक डाइरेक्टर को ( जिनको वह अंतड़ीफ़ाड़ कहते हैं  ) और गोंमतीनगर, लखनऊ वाली उनकी फुफेरी साली साहिबा ( जिनको वह लड़ाका कहते हैं ) को मैंने फेसबुक पर क्यों जोड़ रखा है ?  
यही वजह थी कि, उनकी छोटी बेटी की शादी में चार ट्रिप करने और पाँच ट्रिप का तीन जनों का पैसा खर्च करने के बावजूद हम  दो जन शामिल नहीं हो सके जैसा वे दोनों चाहते थे उनकी मनोकामना पूर्ण की। 08 दिसंबर 2016 को जब अपनी श्रीमती जी को वापिस लाने गए थे तब बादशाह साहब ने स्पष्ट कहा कि, उनको अपनी बहन की कोई परवाह नहीं है( इसी वजह से दिसंबर 2010  मे उनकी बहन के ज़ीने से गिर जाने पर सूचना देने के बावजूद उन दोनों ने हाल - चाल तक न पूछा था ), दोबारा पूछा तब फिर वही दोहराया अतः उन दोनों के समक्ष मैंने भी स्पष्ट कर दिया था कि, अब सब खुद ही  सुन लिया है तो  अपने भाई - भाभी की झूठी तारीफ न करना । और इसके बाद उन लोगों से कट आफ करना मजबूरी ही हो गया जैसा कि उनके छोटी बाप ने 2013 में SGPGI,लखनऊ में कहा था उनकी परवाह न करो, उनकी छोटी माँ ने कहा था अपनी भतीजियों का ख्याल न करो। निश्चित रूप से उन लोगों ने बादशाह - बेगम को हम लोगों के खिलाफ भड़काया होगा और वे भड़क भी गए। चार वर्ष बाद अब हमारे पास भी कोई विकल्प नहीं है ।  मुझे फेसबुक पर नहीं जोड़ा गया था जबकि बादशाह साहब के चाचा के बेटे-दामाद -पुत्रवधू सबको फेसबुक पर जोड़ रखा था जिसमें उनकी आरा वाली चाची (जिसने उनकी बड़ी बेटी का दिमाग जाम करके हानि पहुंचाई ) के परिवारीजन भी हैं और उनके नंगू चाचा का वह पुत्र भी शामिल है जिसने उनकी बेगम साहिबा को अपनी जांघ पर बैठने का आव्हान किया था । चूंकि मैं उन सबका विरोध करता हूँ इसीलिए मुझे नहीं जोड़ा गया था। फिर भी मैंने निम्नोक्त पोस्ट को लाईक कर दिया था जिसे ज़रूरत से ज़्यादा  नफरत के चलते  डिलीट करके अपनी पोस्ट हाईड कर डाली। : 
नि
उनको हमारी क्या ज़रूरत होती जो अपने माता - पिता के नहीं अपने चाचाओं- चाचियों के सगे ठहरे ?चाचा का दामाद एक माह भी रह जाये थोड़ा है। अपने माता- पिता के दामाद को चार घंटे के ठहराव पर भी चाचा - चाची विरुदावली सुना कर प्रतिताड़ित करते रहे।  तब हमें भी क्या फिक्र हमें उनकी क्या जारूरत ? मुश्किल तो उनकी बहन / नन्द की है जो अपने भटके,जिद्दी,क्रूर-कपटी,अहंकारी   भाई - भाभी की फिक्रमंद रहती हैं।उनकी बड़ी भतीजी की शादी का गिफ्ट भेजना उनका ही दायित्व है , मैं 31 दिसंबर 2017 तक भेज देना चाहता था । पटना जाकर भी उन लोगों के घर मैं अब नहीं जा सकता जैसा कि, 26 सितंबर 2012 को दिन भर गोलघर पर बिता कर उनके घर के सामने जाकर भी उनके घर नहीं गया था और बाहर से ही उनसे मिले बगैर उनकी बहन को बुला लाया था। उनका घमंड,हमसे चिढ़ और घोर नफरत की इंतिहा देखते हुये  हम तो सिर्फ यही कहेंगे : 





"रिटर्न टिकट कांड " की चतुर्थ वर्षगांठ पर इस भंडा - फोड़ गिफ्ट से बेहतर उपहार और क्या हो सकता था ? 

बादशाह - ए आजम  राजीव रंजन के चाचाओं - चाचियों  के दामादा ज़िंदाबद-ज़िंदाबाद !
उनके     अपने          माता - पिता का दामाद                 मुर्दाबाद- मुर्दाबाद-मुर्दाबाद ! !