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Wednesday, 24 October 2018

संघर्ष और अभावों का जीवन था बाबूजी का ( जन्मदिन पर स्मरण ) ------ विजय राजबली माथुर

जन्म : 24-10-1919 को दरियाबाद , मृत्यु: 13-06-1995 को आगरा

संघर्ष और अभावों का जीवन था बाबूजी का ( जन्मदिन पर स्मरण ) 
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हमारे बाबूजी का जन्म 24-10-1919 को दरियाबाद, बाराबंकी में हुआ था और मृत्यु 13-06-1995 को आगरा में । बाबूजी जब चार वर्ष के ही थे तभी दादी जी नहीं रहीं और उनकी देख-रेख तब उनकी भुआ ने की थी। इसीलिए जब बाबूजी को बाबाजी ने जब पढ़ने के लिए काली चरण हाई स्कूल, लखनऊ भेजा तो वह कुछ समय अपनी भुआ के यहाँ व कुछ समय स्कूल हास्टल में रहे।

* भीखा लाल जी उनके सहपाठी और कमरे के साथी भी थे। जैसा बाबूजी बताया करते थे-टेनिस के खेल में स्व.अमृत लाल नागर जी ओल्ड ब्वायज असोसियेशन की तरफ से खेलते थे और बाबूजी उस समय की स्कूल टीम की तरफ से। स्व.ठाकुर राम पाल सिंह जी भी बाबूजी के खेल के साथी थे। बाद में जहाँ बाकी लोग अपने-अपने क्षेत्र के नामी लोगों में शुमार हुए ,हमारे बाबूजी 1939-45 के द्वितीय विश्व-युद्ध में भारतीय फ़ौज की तरफ से शामिल हुए।

** अमृत लाल नागर जी  हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हुए तो ठा.रामपाल सिंह जी  नवभारत टाइम्स ,भोपाल के सम्पादक। भीखा लाल जी पहले पी.सी एस. की मार्फ़त तहसीलदार हुए ,लेकिन स्तीफा देके भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए और प्रदेश सचिव भी रहे। बाबूजी को लगता था जब ये सब बड़े लोग बन गए हैं तो उन्हें पहचानेंगे या नहीं ,इसलिए फिर उन सब से संपर्क नहीं किया। एक आन्दोलन में आगरा से मैं लखनऊ आया था तो का.भीखा लाल जी से मिला था,उन्होंने बाबूजी का नाम सुनते ही कहा अब उनके बारे में हम बताएँगे तुम सुनो-उन्होंने वर्ष का उल्लेख करते हुए बताया कब तक दोनों साथ-साथ पढ़े और एक ही कमरे में भी रहे। उन्होंने कहा कि,वर्ल्ड वार में जाने तक की खबर उन्हें है उसके बाद बुलाने पर भी वह नहीं आये,खैर तुम्हें भेज दिया इसकी बड़ी खुशी है। बाद में बाबूजी ने स्वीकारोक्ति की कि, जब का.भीखा लाल जी विधायक थे तब भी उन्होंने बाबूजी को बुलवाया था परन्तु वह संकोच में नहीं मिले थे।

*** बाबूजी के फुफेरे भाई साहब स्व.रामेश्वर दयाल माथुर जी के पुत्र स्व कंचन ने (10 अप्रैल 2011 को मेरे घर आने पर) बताया कि ताउजी और बाबूजी दोस्त भी थे तथा उनके निवाज गंज के और साथी थे-स्व.हरनाम सक्सेना जो दरोगा बने,स्व.देवकी प्रसाद सक्सेना,स्व.देवी शरण सक्सेना,स्व.देवी शंकर सक्सेना। इनमें से दरोगा जी को 1964 में रायपुर में बाबाजी से मिलने आने पर व्यक्तिगत रूप से देखा था बाकी की जानकारी पहली बार प्राप्त हुई थी ।

**** बाबू जी ने खेती कर पाने में विफल रहने पर पुनः नौकरी तलाशना शुरू कर दिया। उसी सिलसिले में इलाहाबाद जाकर लौट रहे थे तब उनकी कं.के पुराने यूनिट कमांडर जो तब लेफ्टिनेंट कर्नल बन चुके थे और लखनऊ में सी.डब्ल्यू.ई.की पोस्ट पर एम्.ई.एस.में थे उन्हें इलाहाबाद स्टेशन पर मिल गए। यह मालूम होने पर कि बाबूजी पुनः नौकरी की तलाश में थे उन्हें अपने दफ्तर में बुलाया। बाद में बाबूजी जब उनसे मिले तो उन्होंने स्लिप देकर एम्प्लोयमेंट एक्सचेंज भेजा जहाँ तत्काल बाबूजी का नाम रजिस्टर्ड करके फारवर्ड कर दिया गया और सी.डब्ल्यू ई. साहब ने अपने दफ्तर में उन्हें ज्वाइन करा दिया। घरके लोगों ने ठुकराया तो बाहर के साहब ने रोजगार दिलाया। सात साल लखनऊ,डेढ़ साल बरेली,पांच साल सिलीगुड़ी,सात साल मेरठ,चार साल आगरा में कुल चौबीस साल छः माह दुबारा नौकरी करके 30 सितम्बर 1978 को बाबू जी रिटायर हुए.तब से मृत्यु पर्यंत (13 जून 1995 )तक मेरे पास बी-560 ,कमला नगर ,आगरा में रहे। बीच-बीच में अजय की बेटी होने के समय तथा एक बार और बउआ के साथ फरीदाबाद कुछ माह रहे।

***** कुल मिला कर बाबूजी का सम्पूर्ण जीवन संघर्ष और अभावों का रहा। लेकिन उन्होने कभी भी ईमान व स्वाभिमान को नहीं छोड़ा। मैं अपने छोटे भाई-बहन की तो नहीं कह सकता परंतु मैंने तो उनके इन गुणों को आत्मसात कर रखा है जिनके परिणाम स्वरूप मेरा जीवन भी संघर्षों और अभावों में ही बीता है जिसका प्रभाव मेरी पत्नी व पुत्र पर भी पड़ा है।चूंकि बाबूजी अपने सभी भाई-बहन में सबसे छोटे थे और बड़ों का आदर करते थे इसलिए अक्सर नुकसान भी उठाते थे। हमारी भुआ उनसे अनावश्यक दान-पुण्य करा देती थीं। अब उनकी जन्म-पत्री के विश्लेषण से ज्ञात हुआ है कि इससे भी उनको जीवन में भारी घाटा उठाना पड़ा है। उनकी जन्म-कुंडली में ब्रहस्पति 'कर्क' राशिस्थ है अर्थात 'उच्च' का है अतः उनको मंदिर या मंदिर के पुजारी को तो भूल कर भी 'दान' नहीं करना चाहिए था किन्तु कोई भी पोंगा-पंडित अधिक से अधिक दान करने को कहता है फिर उनको सही राह कौन दिखाता? वह बद्रीनाथ के दर्शन करने भी गए थे और जीवन भर उस मंदिर के लिए मनी आर्डर से रुपए भेजते रहे। इसी वजह से सदैव कष्ट में रहे। 1962 में वृन्दावन में बिहारी जी के दर्शन करके लौटने पर बरेली के गोलाबाज़ार स्थित घर पहुँचने से पूर्व ही उनके एक साथी ने नान फेमिली स्टेशन 'सिलीगुड़ी' ट्रांसफर की सूचना दी। बीच सत्र में शाहजहांपुर में हम लोगों का दाखिला बड़ी मुश्किल से हुआ था।

****** बाबूजी के निधन के बाद जो आर्यसमाजी पुरोहित शांति-हवन कराने आए थे उनके माध्यम से मैं आर्यसमाज, कमलानगर- बल्केश्वर, आगरा में शामिल हो गया था और कार्यकारिणी समिति में भी रहा। किन्तु ढोंग-पाखंड-आडंबर के विरुद्ध व्यापक संघर्ष चलाने वाले स्वामी दयानन्द जी के आर्यसमाज संगठन में आर एस एस वालों की घुसपैठ देखते हुये संगठन से बहुत शीघ्र ही अलग भी हो गया था परंतु पूजा पद्धति के सिद्धान्त व नीतियाँ विज्ञान-सम्मत होने के कारण अपनाता हूँ।

******* मेरे पाँच वर्ष की आयु से ही बाबूजी 'स्वतन्त्र भारत' प्रति रविवार को ले देते थे। बाद में बरेली व मेरठ में दफ्तर की क्लब से पुराने अखबार लाकर पढ़ने को देते थे जिनको उसी रोज़ रात तक पढ्ना होता था क्योंकि अगले दिन वे वापिस करने होते थे, पुराने मेगजीन्स जैसे धर्मयुग,हिंदुस्तान,सारिका,सरिता आदि पूरा पढ़ने तक रुक जाते थे फिर दूसरे सप्ताह के पुराने पढ़ने को ला देते थे। अखबार पढ़ते-पढ़ते अखबारों में लिखने की आदत पड़ गई थी। इस प्रकार कह सकता हूँ कि आज के मेरे लेखन की नींव तो बाबूजी द्वारा ही डाली हुई है। इसलिए जब कभी भूले-भटके कोई मेरे लेखन को सही बताता या सराहना करता है तो मुझे लगता है इसका श्रेय तो बाबूजी को जाता है क्योंकि यह तो उनकी 'दूरदर्शिता' थी जो उन्होने मुझे पढ़ने-लिखने का शौकीन बना दिया था। आज उनको यह संसार छोड़े हुये अब तेईस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं परंतु उनके विचार और सिद्धान्त आज भी मेरा 'संबल' बने हुये हैं।

Saturday, 24 October 2015

ईमान व स्वाभिमान का प्रतीक : ताजराज बली माथुर ------ विजय राजबली माथुर


**जन्मदिन 24 अक्तूबर पर एक स्मरण बाबूजी का :
(ताज राजबली माथुर : जन्म 24 -10-1919 मृत्यु 13-06-1995 )
हमारे बाबूजी का जन्म 24-10-1919 को दरियाबाद, बाराबंकी में हुआ था और मृत्यु 13-06-1995 को आगरा में । बाबूजी जब चार वर्ष के ही थे तभी दादी जी नहीं रहीं और उनकी देख-रेख तब उनकी भुआ ने की थी। इसीलिए जब बाबूजी को बाबाजी ने जब पढ़ने के लिए काली चरण हाई स्कूल, लखनऊ भेजा तो वह कुछ समय अपनी भुआ के यहाँ व कुछ समय स्कूल हास्टल में रहे। 

भीखा लाल जी उनके सहपाठी और  कमरे के साथी भी थे। जैसा बाबूजी बताया करते थे-टेनिस के खेल में स्व.अमृत लाल नागर जी ओल्ड ब्वायज असोसियेशन की तरफ से खेलते थे और बाबूजी उस समय की स्कूल टीम की तरफ से। स्व.ठाकुर राम पाल सिंह जी भी बाबूजी के खेल के साथी थे। बाद में जहाँ बाकी लोग अपने-अपने क्षेत्र के नामी लोगों में शुमार हुए ,हमारे बाबूजी 1939-45  के द्वितीय  विश्व-युद्ध में भारतीय फ़ौज की तरफ से शामिल हुए। 

अमृत लाल नागर जी हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हुए तो ठा.रामपाल सिंह जी नवभारत टाइम्स ,भोपाल के सम्पादक। भीखा  लाल जी पहले पी.सी एस. की मार्फ़त तहसीलदार हुए ,लेकिन स्तीफा देके भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए और प्रदेश सचिव भी रहे। बाबूजी को लगता था  जब ये सब बड़े लोग बन गए हैं तो उन्हें पहचानेंगे या नहीं ,इसलिए फिर उन सब से संपर्क नहीं किया। एक आन्दोलन में आगरा से मैं लखनऊ आया था तो का.भीखा  लाल जी से मिला था,उन्होंने बाबूजी का नाम सुनते ही कहा अब उनके बारे में हम बताएँगे तुम सुनो-उन्होंने वर्ष का उल्लेख करते हुए बताया कब तक दोनों साथ-साथ पढ़े और एक ही कमरे में भी रहे। उन्होंने कहा कि,वर्ल्ड वार में जाने तक की खबर उन्हें है उसके बाद बुलाने पर भी वह नहीं आये,खैर तुम्हें भेज दिया इसकी बड़ी खुशी है। बाद में बाबूजी ने स्वीकारोक्ति की कि, जब का.भीखा लाल जी विधायक थे तब भी उन्होंने बाबूजी को बुलवाया था परन्तु वह संकोच में नहीं मिले थे। 


बाबूजी के फुफेरे भाई साहब स्व.रामेश्वर दयाल माथुर जी के पुत्र कंचन ने (10  अप्रैल 2011  को मेरे घर आने पर) बताया कि ताउजी और बाबूजी  दोस्त भी थे तथा उनके निवाज गंज के और साथी थे-स्व.हरनाम सक्सेना जो दरोगा बने,स्व.देवकी प्रसाद सक्सेना,स्व.देवी शरण सक्सेना,स्व.देवी शंकर सक्सेना। इनमें से दरोगा जी को 1964  में रायपुर में बाबाजी से मिलने आने पर व्यक्तिगत रूप से देखा था बाकी की जानकारी पहली बार प्राप्त हुई थी । 



बाबू जी ने खेती कर पाने में विफल रहने पर पुनः नौकरी तलाशना शुरू कर दिया। उसी सिलसिले में इलाहाबाद जाकर लौट रहे थे तब उनकी कं.के पुराने यूनिट कमांडर जो तब लेफ्टिनेंट कर्नल बन चुके थे और लखनऊ में सी.डब्ल्यू.ई.की पोस्ट पर एम्.ई.एस.में थे उन्हें इलाहाबाद स्टेशन पर मिल गए। यह मालूम होने पर कि बाबूजी  पुनः नौकरी की तलाश में थे उन्हें अपने दफ्तर में बुलाया। बाद में बाबूजी जब उनसे मिले तो उन्होंने स्लिप देकर एम्प्लोयमेंट  एक्सचेंज भेजा जहाँ तत्काल बाबूजी का नाम रजिस्टर्ड करके फारवर्ड कर दिया गया और सी.डब्ल्यू ई. साहब ने अपने दफ्तर में उन्हें ज्वाइन करा दिया।  घरके लोगों ने ठुकराया तो बाहर के साहब ने रोजगार दिलाया। सात साल लखनऊ,डेढ़ साल बरेली,पांच साल सिलीगुड़ी,सात साल मेरठ,चार साल आगरा में कुल  चौबीस साल छः माह  दुबारा नौकरी करके 30  सितम्बर 1978  को बाबू जी रिटायर हुए.तब से मृत्यु पर्यंत (13  जून 1995 )तक मेरे पास बी-560  ,कमला नगर ,आगरा में रहे। बीच-बीच में अजय की बेटी होने के समय तथा एक बार और बउआ  के साथ फरीदाबाद कुछ माह रहे। 

कुल मिला कर बाबूजी का सम्पूर्ण जीवन संघर्ष और अभावों का रहा। लेकिन उन्होने कभी भी ईमान व स्वाभिमान को नहीं छोड़ा। मैं अपने  छोटे भाई-बहन की तो नहीं कह सकता परंतु मैंने तो उनके इन गुणों को आत्मसात कर रखा है जिनके परिणाम स्वरूप मेरा जीवन भी संघर्षों और अभावों में ही बीता है जिसका प्रभाव मेरी पत्नी व पुत्र  पर भी पड़ा है।चूंकि बाबूजी अपने सभी भाई-बहन में सबसे छोटे थे और बड़ों का आदर करते थे इसलिए अक्सर नुकसान भी उठाते थे। हमारी भुआ उनसे अनावश्यक दान-पुण्य करा देती थीं। अब उनकी जन्म-पत्री के विश्लेषण से ज्ञात हुआ है कि इससे भी उनको जीवन में भारी घाटा उठाना पड़ा है। उनकी जन्म-कुंडली में ब्रहस्पति 'कर्क' राशिस्थ है अर्थात 'उच्च' का है अतः उनको मंदिर या मंदिर के पुजारी को तो भूल कर भी 'दान' नहीं करना चाहिए था किन्तु कोई भी पोंगा-पंडित अधिक से अधिक दान करने को कहता है फिर उनको सही राह कौन दिखाता? वह बद्रीनाथ के दर्शन करने भी गए थे और जीवन भर उस मंदिर के लिए मनी आर्डर से रुपए भेजते रहे। इसी वजह से सदैव कष्ट में रहे। 1962 में वृन्दावन में बिहारी जी के दर्शन करके लौटने पर बरेली  के गोलाबाज़ार स्थित घर पहुँचने से पूर्व ही उनके एक साथी ने नान फेमिली स्टेशन 'सिलीगुड़ी' ट्रांसफर की सूचना दी। बीच सत्र में शाहजहांपुर में हम लोगों का दाखिला बड़ी मुश्किल से हुआ था।  

बाबूजी के निधन के बाद जो आर्यसमाजी पुरोहित शांति-हवन कराने आए थे उनके माध्यम से मैं आर्यसमाज, कमलानगर- बल्केश्वर, आगरा में शामिल हो गया था और कार्यकारिणी समिति में भी रहा। किन्तु ढोंग-पाखंड-आडंबर के विरुद्ध व्यापक संघर्ष चलाने वाले स्वामी दयानन्द जी के आर्यसमाज संगठन में आर एस एस वालों की घुसपैठ देखते हुये संगठन से बहुत शीघ्र ही अलग भी हो गया था परंतु  पूजा पद्धति के सिद्धान्त व नीतियाँ विज्ञान-सम्मत होने के कारण अपनाता हूँ।  

मेरे पाँच वर्ष की आयु से ही बाबूजी 'स्वतन्त्र भारत' प्रति रविवार को ले देते थे। बाद में बरेली व मेरठ में दफ्तर की क्लब से पुराने अखबार लाकर पढ़ने को देते थे जिनको उसी रोज़ रात तक पढ्ना  होता था क्योंकि अगले दिन वे वापिस करने होते थे,  पुराने मेगजीन्स जैसे धर्मयुग,हिंदुस्तान,सारिका,सरिता आदि पूरा पढ़ने तक रुक जाते थे फिर दूसरे सप्ताह के पुराने पढ़ने को ला देते थे। अखबार पढ़ते-पढ़ते अखबारों में लिखने की आदत पड़ गई थी। इस प्रकार कह सकता हूँ कि आज के मेरे लेखन की नींव तो बाबूजी द्वारा ही डाली हुई है। इसलिए जब कभी भूले-भटके कोई मेरे लेखन को सही बताता या सराहना करता है तो मुझे लगता है इसका श्रेय तो बाबूजी  को जाता है क्योंकि यह तो उनकी 'दूरदर्शिता' थी जो उन्होने मुझे पढ़ने-लिखने का शौकीन बना दिया था। आज उनको यह संसार छोड़े हुये बीस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं परंतु उनके विचार और सिद्धान्त आज भी मेरा 'संबल' बने हुये हैं।  
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Wednesday, 2 September 2015

लखनऊ की कुछ और झीनी यादें --- विजय राजबली माथुर

गुरुवार, 9 सितंबर 2010


लखनऊ की कुछ और झीनी यादें ---


(यों तो १९७३ में मेरठ से ही मैं साप्ताहिक अख़बारों में लिख रहा था,लखनऊ आकर ब्लॉग के माध्यम से लखनऊ से सम्बंधित  कुछ और लोगों से संपर्क हुआ तो लखनऊ में बचपन की कुछ और यादों को लिखने का पक्का विचार बना अन्यथा बरेली के सम्बन्ध में अधूरे लेखन को पूरा करना था.मेरी पत्नी पूनम कई दिनों से इसे आगे बढाने को कह रहीं थीं,लेखन में उनका पूरा सहयोग और प्रेरणा रहती है.उनके पिता जी पटना के श्रीवास्तव परिवार के स्व.विलास पति सहाय साः की सलाह पर मैंने ज्योतिष को प्रोफेशन बनाया था ,चूंकि वह गणित के माहिर थे अतः उन्होंने ज्योतिष के महत्त्व को ठीक से समझ लिया था.)
बात शायद ५९ या ६० की रही होगी;अजय और मैं बाबू  जी के साथ  साईकिल से ६-सप्रू मार्ग भुआ के घर से लौट रहे थे.बर्लिंगटन होटल के पास पहुंचे ही थे की पता चला नेहरु जी आ रहे हैं.बाबू जी ने प्रधान मंत्री को दिखाने के विचार से रुकने का निर्णय लिया जबकि घर के पास पहुच चुके थे.नेहरु जी खुली जीप में खड़े होकर जनता का अभिवादन करते और स्वीकार करते हुए ख़ुशी ख़ुशी अमौसी एअरपोर्ट से आ रहे थे.आज जब विधायकों,सांसदों तो क्या पार्षदों को भी शैडो के साए में चलते देखता हूँ तो लगता है कि नेहरु जी निडर हो कर जनता के बीच कैसे चलते थे? जनता उन्हें क्यों चाहती थी? हुसैनगंज चौराहे पर मेवा का स्वागत फाटक बनवाने वाले चौरसिया जी का भतीजा मेरे क्लास में पढता था.नेहरु जी की सवारी जा चुकी थी और जनता आराम से मेवा तोड़ कर ले जा रही थी कहीं कोई पुलिस का सिपाही नहीं था और फ़ोर्स भी तुरंत हट चुका था.यह था उस समय के शासक और जनता का रिश्ता.आज क्या वैसा संभव है?हुसैनगंज चौराहे पर ही मुहर्रम का जुलूस या गुड़ियों का मेला दिखाने भी बाबु जी ले जाते थे.इक्का-दुक्का सिपाही ही होते होंगे आज सा भारी पुलिस फ़ोर्स तब नज़र नहीं आता था.
विधान सभा पर २६ जनवरी को गवर्नर विश्वनाथ दास द्वारा ध्वजारोहण भी बाबु जी ने साईकिल के कैरियर और गद्दी पर दोनों भाइयों को खड़ा करके आसानी से दिखा दिया था क्या आज वैसा संभव है? आज तो साईकिल देखते ही पुलिस टूट पड़ेगी.उस समय तो एक निजी विवाह समारोह में भी विधान सभा के लॉन में एक चाय पार्टी में बाबा जी के साथ शामिल होने का मौका मिला था.वह समारोह संभवतः राय उमानाथ बली के घर का था.आज तो उस क्षेत्र में दो लोग दो पल ठहर भी जाएँ तो तहलका मच जायेगा. यह है हमारे लोकतंत्र की मजबूती !
न्यू हैदराबाद से  पहले तो मामा जी खन्ना विला में रहते थे जिसे स्व.वीरेन्द्र वर्मा ने किराए पर ले रखा था और मामा जी वर्मा जी के किरायेदार थे.वर्मा जी तब संसदीय सचिव थे और उनके पास रिक्शा में बैठ कर दो मंत्री चौ.चरण सिंह और चन्द्र भानु गुप्ता अक्सर आते रहते थे.तब यह सादगी थी और आज के मंत्री.......? बाद में मामा जी वहां से शिफ्ट हो गए जिसमे पहले सेन्ट्रल एकसाइज़ इंस्पेक्टर उनके साले श्री वेद प्रकाश माथुर रहते थे. घर के पीछे इसी पार्क के सामने मुझे लिए उनका (मामा जी का) फोटो :


वेद मामाजी की मोटर साईकिल पर मुझे बैठाये सरोज मौसी (माईंजी की बहन व डॉ राजेन्द्र बहादुर श्रीवास्तव साहब की पत्नि ) उनके घर के आगे पुलिस लाईन की तरफ वाली सड़क पर। 
इसी पार्क में बचपन में खेलने का अवसर मिला है.१९६० की बाढ़ में मामा जी का घर तीन तरफ से पानी से घिर गया था.कई दिन वे लोग वहीँ घिरे रहे और पानी उतरने पर ही निकल सके वहां नाव तक चली थी.हमारा घर हुसैनगंज में नाले से सटा था लेकिन हमलोग बाढ़ से बचे हुए थे बल्कि भुआ का पूरा परिवार हमारे ही घर में आकर रहा था.बाढ़ उतरने के बाद ही नाना जी ने आकर कुशलता की सूचना दी थी बल्कि जिस दिन बाढ़ आने वाली थी वह आकर बउआ को बता गए थे की बाढ़ आ रही है कई दिन बाद मिल पाएंगे.तब उनके सामने वाले पार्क में वोट भी पड़ते थे.क्या आज खुले में मतदान स्थल बन सकता है? बातें तो बहुत सी धुंधली यादों में हैं.लखनऊ वापिस आने पर लखनऊ से सम्बंधित पुराने लोगों से ये ब्लॉग परिचित कराता जा रहा है यही बहुत है.
Typist -यशवंत (जो मेरा मन कहे......)

Sunday, 30 August 2015

लखनऊ में बीता बचपन --- विजय राजबली माथुर


मामा जी के साथ 


न्यू हैदराबाद के एक स्कूल में भी कुछ समय गया और हुसैन गंज कि राष्ट्रीय पाठशाला में भी पढ़ा तथा बहुत कम समय दुगांवा में रहने का कुछ भी याद नहीं है.हुसैन गंज में नाले के पास बनी फखरुद्दीन मंजिल के एक हिस्से में जब आकर रहे तभी पहले बाबु जी का विचार बंगाली ब्वायज  स्कूल में भेजने का था लेकिन फिर डी पी निगम गर्ल्स  जू हा.स्कूल में दाखिला करा दिया जहाँ दूसरी से चौथी क्लास तक पढ़ा.शिक्षा का माहौल अच्छा था,सिलाई और संगीत की भी शिक्षा दी गयी.संगीत की क्लास में लड़कों को गेंद और लड़कियों को रस्सी कूदने का खेल भी कराया जाता था.चौथी क्लास में कुछ समय तक वृद्ध  बंगाली पुरुष गणित  पढाने आये जो गलत करने वाले लड़के और लड़कियों दोनों को बुरी तरह स्केल से पीटते थे उन्हें बहुत जल्दी हटा दिया गया.प्रभात कमल श्रीवास्तव नामक एक साथी से बहुत प्रगाढ़ता हो गयी थी उसके पिता जी शायद डॉक्टर थे इसलिए वह कभी कभी विजय मेडिकल हाल और बगल के खद्दर भण्डार में हमें भी साथ ले जाता था.सिर्फ उसीके साथ ही बऊआ मुझे और छोटे भाई अजय को भेजती थीं.वह अक्सर सरकारी दफ्तर में लगी जंगल जलेबी तोड़ेने के लिए खड़ी जीपों पर भी चढ़ जाता था।

आज सड़कें चौड़ी हो गयी हैं लेकिन बड़े डिवाइडर भी लग गए हैं तब हम लोग स्कूल जाते आराम से सड़क पार कर लेते थे तब ये डिवाइडर नहीं थे शायद उनकी जरूरत भी नहीं थी लोग नियमों का पालन करते होंगे.बर्लिंग्टन होटल में ही पोस्ट ऑफिस था दोनों भाई जाकर पोस्ट कार्ड  वगैरह बड़े आराम से ले आते थे और सड़क के उस पार हलवाई से किसी मेहमान के आने पर समोसा वगैरह भी ले आते थे.तब समोसे का रेट एक आना था.आज जितने  रु.में एक समोसा मिलता है तब ४८ मिल जाते.सदर में राम लीला देखने या अमीनाबाद पैदल ही जाते थे कहीं सड़कों पर परेशानी नहीं होती थी.सबसे छोटे होने के कारण बहन शोभा को तो बऊया बाबूजी गोदी में ले लेते थे,हम दोनों भाईयों को पैदल सड़क पर चलने या पार करने में कोई परेशानी नहीं हुई।

१९६० में जब जी.पी.ओ.तक बढ़ का पानी आ गया था तब हमारी भुआ,फूफाजी सपरिवार अपने सप्रू मार्ग के मकानमें ताला लगा कर आ गए और बाढ़ उतरने के बाद ही वापिस गए थे.उन दिनों हर इतवार को बाबू  जी मेरे लिए ५ पैसा कीमत का ''स्वतंत्र भारत'' ले देते थे.हमारे फुफेरे भाईयों को यह अच्छा नहीं लगता था.उनमें से छोटे वाले हमारी ही कोलोनी में सिर्फ १ कि.मी.कि दूरी पर रहते हैं लेकिन जो फासला एक अमीर एक गरीब के साथ रखता है वही वह भी रख रहे हैं-अब भूल चुके हैं कि कभी हमारे घर पर बाढ़ पीड़ित बन कर भी रहे थे।

मामा जी की गोद में

न्यू हैदराबाद में हमारे मामाजी डाक्टर कृपा शंकर माथुर भी रहते थे उनके घर,भुआ के घर और बाबू  जी के मामाजी के घर ठाकुरगंज भी हम लोग जाते थे.बाबु जी के ममेरे भाइयों में एक श्री गंगा प्रसाद जलेसरी नामी वकील और एक श्री दुलारे लाल माथुर I.A.S.का व्यवहार बाबू  जी के साथ मधुर रहा.हमारे ममेरे भाई भी यहीं शहर में हैं लेकिन रिश्ते निबाहने में वही दिक्कत है जो दौलतमंद महसूस करते हैं.निवाज गंज में बाबू  जी के फुफेरे भाई स्व.रामेश्वर दयाल माथुर रहते थे उनका भी मधुर व्यवहार बाबू  जी के साथ था.ताई जी (बाबु जी की फुफेरी भाभी) ने तो मेरे छुटपन में मेरे बीमार पड़ने पर अस्पताल की काफी दौड़-धूप की और बऊआ को ज़रा भी तकलीफ नहीं होने दी.१९६१ में बाबू  जी का तबादला बरेली हो गया तो  लखनऊ शहर छूट गया.

Saturday, 29 August 2015

लखनऊ तब और अब --- विजय राजबली माथुर




मंगलवार, 3 अगस्त 2010

लखनऊ तब और अब :

जन्म से १९६१ तक लखनऊ में रहने के बाद गत वर्ष अक्टूबर में पुनः लखनऊ वापसी हुई.तब से अब तक के लखनऊ में न केवल क्षेत्रफल की  दृष्टि से बल्कि लोगों के तौर तरीकों और आपसी व्यवहार  में भी बेहद तब्दीली हो चुकी है.१९८१ में जब कारगिल में नौकरी के सिलसिले में था तो टी बी अस्पताल के सी ऍम ओ साहब  ने बोली के आधार पर कहा था कि क्या आप लखनऊ के हैं?९ वर्ष कि उम्र में शहर छोड़ेने के बीस सालों बाद भी बोली के आधार पर मुझे लखनऊ से जोड़ा गया था.लेकिन ४९ साल बाद वापिस लखनऊ लौटने पर यहाँ के लोगों ने मुझे बाहरी माना है.तब हुसैन गंज में रहता था,मुरली नगर के डी पी निगम गर्ल्स जू.हाई स्कूल  में पढता था और अब कचहरी से लगभग १० कि मी दूर नई कालोनी में रहता हूँ.लखनऊ की नई कालोनियों में लगभग ८०% लोग बाहर  से आकर बसे हैं और लखनवी तहजीब से कोसों दूर हैं वे ही मुझे बाहरी मानते हैं.

जो ज्योतिषी बेईमानी,ढोंग और पाखण्ड पर चलते हैं उन्हें भी मेरा ईमानदारी और वैज्ञानिक आधार पर  चलना नहीं सुहाता है.यह सब लखनवी कल्चर के खिलाफ है लेकिन लखनऊ उन्हीं का है.

लखनऊ से बरेली वहां से शाहजहाँ पुर जहाँ से सिलिगुड़ी फिर शाहजहाँ पुर और मेरठ रहकर आगरा पहुंचे और अपना मकान बना कर बस गए.मेरठ कॉलेज में पढाई के दौरान छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष से फ़िराक गोरखपुरी  साहब का यह कथन सुनकर आगरा बसने का फैसला किया था कि,यू.पी.में जितने आन्दोलन मेरठ -कानपुर डायगनल  से शुरू हुए विफल रहे जबकि बलिया-आगरा डायगनल  से शुरू आन्दोलन पूरे यू.पी. में छा कर देश में भी सफल रहे.आगरा के अब के लोगों में वह राजनीतिक  समझ नहीं देखी  उनकी बेरुखी और पुत्र के आग्रह के कारण पुनः लखनऊ आने का फैसला किया ,अभी तो पूरी तरह सेटल भी नहीं हो सके हैं –देखते हैं की क्या यहाँ रह कर देश के लिए कोई राजनीतिक योग दान दे सकता हूँ या नहीं.”जननी जन्मभूमिश  च स्वर्गादपि गरीयसी” कहा तो जाता है लेकिन मेरी जन्म  भूमि लखनऊ और यहाँ के लोग मुझे देश-समाज के हित में कुछ करने देने में कितना सहयोग करते हैं ? यही देखना –समझना बाकी है.उम्मीद छोड़ी नहीं है.

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(ये विवरण पहले एक अन्य ब्लाग में प्रकाशित हैं परंतु वहाँ और भी निजी बातों का साथ-साथ संकलन था इसलिए सार्वजनिक महत्व के विषयों को छांट-छांट कर अलग इस ब्लाग में देने का निर्णय लिया है। इस कड़ी में आज रक्षाबंधन पर्व के अवसर पर यह प्रथम विवरण प्रकाशित कर रहे हैं । --- (विजय राज बली माथुर )