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( जन्म :20 अप्रैल 1924 - मृत्यु :25 जून 1995 ) |
जहां तक मैं कर सका बउआ व बाबूजी की परम्पराओं व बातों को मानने का पूरा-पूरा प्रयास किया। लेकिन विद्रोहात्मक स्वभाव के कारण सड़ी-गली मान्यताओं को उनके जीवन काल में उनसे ही परिपालन न करने-कराने की कोशिश करता रहा और अब पूरी तौर पर अव्यवहारिक व भेदभावमूलक मान्यताओं का पालन नहीं करता हूँ। व्यक्तिगत रूप से एकांतप्रिय स्वभाव अनायास ही नहीं बन गया है बल्कि बचपन से ही एकांत में मस्त रहने का अभ्यस्त रहा। इसका प्रमाण यह चित्र है :**********
मथुरानगर, दरियाबाद के पुश्तैनी घर में बड़े ताऊजी की बड़ी बेटी स्व.माधुरी जीजी अपनी चाची अर्थात हमारी बउआ से मुझे मांग कर ले जाती थीं और अपनी छोटी बहनों के साथ खेलने लगती थीं। मुझे एक तरफ बैठा देती थीं मुझे उन बड़ी बहनों के खेल में दिलचस्पी नहीं रही होगी तभी तो बेर के पत्तों से अकेले ही खेल लेता था। उन पत्तों में कांटे भी हो सकते हों परंतु मुझे कभी किसी कांटे से फर्क नहीं पड़ा होगा अन्यथा फिर जीजी मुझे कभी अपने साथ न ले जा पातीं। संघर्षों व अभावों से झूझते हुये बउआ ने बचपन से ही मेरी मानसिकता को जिस प्रकार ढाला था उसे मजबूती के साथ अपनाए हुये मैं आज भी अपने को सफल समझता हूँ। हाँ पत्नि व पुत्र के लिए ये स्थितियाँ अटपटी लगने वाली हैं। परंतु मेरे लिए नहीं जिसका उदाहरण पूर्व प्रकाशित लेख का यह अंश है :*****
"पत्रकार स्व .शारदा पाठक ने स्वंय अपने लिए जो पंक्तियाँ लिखी थीं ,मैं भी अपने ऊपर लागू समझता हूँ :-
लोग कहते हम हैं काठ क़े उल्लू ,हम कहते हम हैं सोने क़े .
ऐसा इसलिए समझता हूँ जैसा कि सरदार पटेल क़े बारदौली वाले किसान आन्दोलन क़े दौरान बिजौली में क्रांतिकारी स्व .विजय सिंह 'पथिक 'अपने लिए कहते थे मैं उसे ही अपने लिए दोहराता रहता हूँ :-
यश ,वैभव ,सुख की चाह नहीं ,परवाह नहीं जीवन न रहे .
इच्छा है ,यह है ,जग में स्वेच्छाचार औ दमन न रहे .."
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