Showing posts with label बरेली. Show all posts
Showing posts with label बरेली. Show all posts

Saturday 12 September 2015

बरेली के कुछ और अनुभव --- विजय राजबली माथुर

गुरुवार, 16 मई 2013

बरेली के दौरान (भाग-2 )

बरेली के दौरान 
क्योंकि बरेली मे बहुत कम समय ही रहे थे अतः 10 सितंबर 2010 को लिखते समय बहुत सी बातें छूट गईं थीं किन्तु अभी भी स्मरण हैं अतः उनको भी सार्वजनिक किया जाना अब समीचीन लगा है।

जब तक बाबूजी ने बरेली में किराये पर घर लिया तब तक के लिए हम लोग शाहजहाँपुर -नानाजी के पास चले गए थे। उस समय तक नानाजी का दक्षिण मुखी घर सामने ऊंचा था तथा पीछे उत्तर की ओर रेलवे लाईन की तरफ नीचा था। नीचे आँगन में तख्त पर ऊपर के चबूतरे से हम लोग छलांग लगा कर खेल रहे थे। बहन सबसे छोटी होने के कारण संभल न सकी और गिर गई उसके सिर में तख्त से चोट लग गई। जब तक वहाँ थे नाना जी अपनी होम्योपेथिक दवाएं देते रहे। गोला बाज़ार में लाला धर्म प्रकाश जी की दुकान के पिछवाड़े हिस्से में उनके घर को किराये पर लेकर बाबूजी लखनऊ से सब सामान और हम लोगों को भी ले गए। बाबू जी का दफ्तर-CWE आफिस सुबह 07-30 से प्रारम्भ होता था। अतः हम दोनों भाई छोटी बहन को केंट जनरल अस्पताल ले जाकर मरहम-पट्टी करवा लाते थे।

शुरू में दोनों भाई रूक्स प्राईमारी स्कूल में थे और बहन का स्कूल हम लोगों से आगे और थोड़ी दूर पर था। उसके स्कूल की प्राचार्या क्रिश्चियन थीं जिनके दो पुत्र हमारे स्कूल में एक मेरे साथ और दूसरा भाई के साथ पढ़ते थे। बहन की एक अध्यापिका हमारे घर चौका-बर्तन करने वाली 'मेहरी'साहिबा की पुत्री थीं। उनकी शादी में हम दोनों भाई भी बाबूजी के साथ बारात में शामिल होकर गए थे। बउआ ने यह बात जब मेहरी साहिबा को बताई थी तो वह बहुत खुश हुईं थीं।

लखनऊ से जब बाबू जी अकेले आए थे तो अपने दफ्तर के कुछ साथियों के साथ बी आई बाज़ार में उन लोगों के साथ कमरे पर रहे थे। उनमे एक थे 'बाला प्रसाद'जी जिनसे बाबूजी की घनिष्ठता हो गई थी। उनके परामर्श पर ही बाबूजी उनके कमरे के सामने वाले दुकानदार 'धर्म दास' जी से सामान खरीदने बी आई बाज़ार जाते थे हम दोनों भाईयों को भी ले जाते थे। मकान मालिक 'धर्म प्रकाश' जी की दुकान से छिट -पुट चीज़ें ही कभी-कभी लेते थे। इन बाला प्रसाद जी के एक माने हुये पुत्र से ही जो इंजीनियर हो गए थे  मेहरी साहिबा की शिक्षिका पुत्री का विवाह हुआ था। क्योंकि बाबूजी के दफ्तर के साथियों को यह आश्चर्य हुआ था कि खुद 'तेली'समुदाय से होते हुये अपने दत्तक पुत्र का विवाह वह 'कहार' समुदाय की पुत्री से क्यों कर रहे हैं?अतः बाला प्रसाद जी को इस छिपे रहे रहस्य को उजागर करना पड़ा था कि उनके घर के वफादार सेवक ने  जिनकी पत्नी की मृत्यु पहले हो चुकी थी अपना अन्त समय जान कर अपने 10 वर्षीय पुत्र का हाथ  उनको पकड़ा कर उनसे वचन लिया था कि उसे अपने पुत्र के समान ही मानते हुये उसका लालन-पालन करेंगे। उन्होने अपनी जमा-पूंजी की पोटली भी बाला प्रसाद जी को सौंप दी थी  जिसे बाला प्रसाद जी ने इस शादी के वक्त उस पुत्र को सौंप दिया था। जैसा कि बाला प्रसाद जी ने अपने साथियों को बताया था इस पुत्र की शादी का खर्च उन्होने खुद किया था। हालांकि उस वक्त वह बरेली से ट्रांसफर हो चुके थे किन्तु जब बारात लेकर बरेली आना था तब अपने आफिस और कमरे के पास के मोहल्ले के साथियों को पूर्व में कार्ड भेज कर निमंत्रित किया था। बारात गोला बाज़ार के पास से चली थी और उसमें बैंड-बाजे का भी बंदोबस्त था। लड़की वालों के घर के पास एक खाली मैदान में बाकायदा बेंच-मेज़ पर खाने का प्रबंध 'पत्तल-शकोरे' में था। खाना अच्छा था। लड़की वालों की आर्थिक स्थिति को देखते हुये बाला प्रसाद जी ने खाने का खर्च खुद उठाया था। आजकल जब अखबारों मे पढ़ते हैं कि किस प्रकार लोग लड़की वालों का शोषण उनको दबा कर करते हैं तब 'बाला प्रसाद' जी का आचरण स्मरण हो जाता है। वह भी तब जबकि वह उनका पाला-माना पुत्र था। 

यह भी याद है कि हमारे क्लास का एक छात्र रामलीला में पटाबाजी का खेल करता चलता था। गंगा-पार उतारने का दृश्य धोंपेश्वर महादेव मंदिर के तालाब में 'नाव' पर सम्पन्न किया जाता था। एक वर्ष लक्ष्मण की भूमिका वाले पात्र की लंबाई राम के पात्र से अधिक थी। वहाँ राम बारात और नाव उतरने के कार्यक्रम ही हम लोगों ने देखे थे,राम लीला तो काफी रात में नौटंकी के रूप मे होती थी। सावन के सोमवारों पर वहाँ उस मंदिर पर मेला लगता था।

बबूए मामाजी (बउआ के चचेरे भाई)उस वक्त हास्टल में रह कर सिविल इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे। कुछ त्यौहारों पर जब वह शाहजहाँपुर नहीं जाते थे बउआ ने उनको घर बुलाकर खाना खिलाया था। वैसे मिलने आने पर वह खाना नहीं खाते थे कि मेस में तो खर्चा कटेगा ही। नाना जी के फुफेरे भाई -महेश नाना जी,इंस्पेक्टर आफ फेकटरीज़  सिविल लाईन्स मे रहते थे उनके घर भी मिलने जाना होता रहता था। पहली बार पहुंचाने महेश नानाजी हम सबको अपनी कार से आए थे। बाबूजी की साईकिल को नानी जी की दही मथने की रस्सी से कार की छत पर बांध दिया था। खाना उन्होने खिला कर भेजा था हमारे घर हैंड पंप का पानी ही उन्होने व मौसियों ने पिया क्योंकि रात को तब नाश्ते का समय नहीं था।

सोमवार, 20 मई 2013

बरेली के दौरान (भाग-3)


जब हम लोग धर्म प्रकाश जी के इस मकान में रहने आए थे तब कमरों व बारामदे की छत खपरैल की थीं और एक पड़ौसी की तरफ की दीवार कच्ची मिट्टी की बनी थी। कुछ दिनों बाद दुकान के हिस्से को उन्होने पक्का करवा कर दो मंजिल बनवा कर दुकान के ऊपर भी घर किराये पर उठा दिया था। कच्ची दीवार को पूरा ही उन्होने पक्का करवा डाला था। जब मिट्टी की दीवार तोड़ी गई तो सुना था कि उसमें उनको कुछ गड़ा हुआ खजाना मिला था। कानूनन वह सरकार का होता। पड़ौसी का घर बंद रहता था वह अविवाहित सज्जन अपने किसी भतीजे के पास बाहर रहते थे। धर्म  प्रकाश जी की धर्म पत्नी साहिबा ने उनके सिर पर पोटली बांध कर गहने देकर उनको किसी रिश्तेदार के घर छिपवा दिया था। किसी की शिकायत पर जब पुलिस आई तो दुकान से उनके छोटे भाई को पकड़ कर थाने ले गई।  धर्म प्रकाश जी की पत्नी को मजदूर गण 'ललाईन'कहते थे। वही मकान निर्माण का कार्य देखती थीं। ऐसा सुनने में आया था कि वह थाने मे काफी गरम होती हुई पहुँचीं और अपने पति 'धर्म  प्रकाश'जी को गायब करने तथा देवर को प्रताड़ित करने  का इल्ज़ाम पुलिस पर लगाते हुये दरोगा जी को खूब फटकारा और उनके विरुद्ध शिकायत करने की धमकी दी जिससे घबराकर उन्होने उनके देवर 'नारायण दास' जी को भी तत्काल थाने से बगैर लिखा-पढ़ी के ही छोड़ दिया था। उनको पकड़ना ही नहीं दिखाया होगा। 

आज आए दिन पुलिस द्वारा महिलाओं के उत्पीड़न की कहानियों से रंगे अखबार पढ़ने को मिलते हैं तब आज की उच्च शिक्षित महिलाओं की बुद्धि पर हैरानी होती है। अबसे 52 वर्ष पूर्व की अशिक्षित 'ललाईन' के ज्ञान और पुलिस के प्रति उनके तेवर को क्या आज की शिक्षित महिलाएं अपना कर अपने शोषण-उत्पीड़न से टक्कर नहीं ले सकती हैं ? या अब पुलिस का चरित्र हींन  होना ही पुलिस की पहचान बन गया है -इस उदारवादी विकास वाले भारत में -महिला और पुरुष का भेद मिटा कर सबका उत्पीड़न समान बना दिया  गया है? बड़ा विस्मय होता है!

ललाईन सुबह मजदूरों के पहुँचते ही आ जाती थीं और किसी को भी खाली नहीं बैठने देती थीं। मजदूरों के खाना खाने के समय खुद घर जाकर खाना खातीं और अपने पति व देवर का खाना लाकर दुकान मे पहुंचाती थीं। मकान मालकिन होने के नाते हमारी बउआ दोपहर में उनको चाय पिला देती थीं। उन लोगों का अपना घर भी सादगी युक्त ही था। जैसा कि आज चार पैसे होते ही लोगों मे घमंड झलकता देखते हैं वैसा तब के उन धनाढ्यो में दूर-दूर तक नहीं दिखाई देता था। जब कभी बउआ के साथ उनके घर गए उन्होने अपने बच्चों के साथ ही हम लोगों को भी खेलने दिया व उनके साथ ही खाने की चीज़ भी दीं,बिना किसी भेद-भाव के। 

बाबू जी के आफिस के एक गेरिजन इंजीनियर साहब जिस मकान में रहते थे वह कुतुब बाज़ार जाने के रास्ते में पड़ता था। वह अक्सर अपने बारामदे में बैठे होते थे और बाबूजी द्वारा 'नमस्ते' करने का जवाब बड़ी ही आत्मीयता से देते थे। उस समय तक अफसर होने का घमंड उनमे नहीं था।