प्रतिवर्ष विभिन्न कायस्थ समाजों की ओर से देश भर मे भाई-दोज के अवसर पर कायस्थों के उत्पत्तिकारक के रूप मे 'चित्रगुप्त जयंती'मनाई जाती है । 'कायस्थ बंधु' बड़े गर्व से पुरोहितवादी/ब्राह्मणवादी कहानी को कह व सुना तथा लिख -दोहरा कर प्रसन्न होते रहे हैं। परंतु सच्चाई को न कोई समझना चाह रहा है न कोई बताना चाह रहा है।
आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा मे दीपावली पर्व के प्रवचनों मे स्वामी स्वरूपानन्द जी ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था और उनसे पूर्व प्राचार्य उमेश चंद्र कुलश्रेष्ठ जी ने पूर्ण सहमति व्यक्त की थी। यथा :
"प्रत्येक प्राणी के शरीर मे 'आत्मा' के साथ 'कारण शरीर' व 'सूक्ष्म शरीर' भी रहते हैं। यह भौतिक शरीर तो मृत्यु होने पर नष्ट हो जाता है किन्तु 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म शरीर' आत्मा के साथ-साथ तब तक चलते हैं जब तक कि,'आत्मा' को मोक्ष न मिल जाये। इस सूक्ष्म शरीर मे -'चित्त'(मन)पर 'गुप्त'रूप से समस्त कर्मों-सदकर्म,दुष्कर्म और अकर्म अंकित होते रहते हैं। इसी प्रणाली को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है। इन कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद पुनः दूसरा शरीर और लिंग इस 'चित्रगुप्त' मे अंकन के आधार पर ही मिलता है। अतः 'मन'अर्थात 'चित्त' को शुद्ध व सतर्क रखने के उद्देश्य से चित्रगुप्त पूजा का पर्व दीपावली के बाद दोज पर मनाया जाता था। इस हेतु विशेष आहुतियाँ हवन मे दी जाती थीं।"
आज कोई ऐसा नहीं करता है। बाजारवाद के जमाने मे भव्यता-प्रदर्शन दूसरों को हेय समझना आदि ही ध्येय रह गया है। यह विकृति और अप-संस्कृति है। काश लोग अपने अतीत को पहचान सकें और समस्त मानवता के कल्याण -मार्ग को पुनः अपना सकें।
अब इस पर्व को एक जाति-वर्ग विशेष तक सीमित कर दिया गया है।
पौराणिक-पोंगापंथी -ब्राह्मणवादी व्यवस्था मे जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित।
'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म से अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति।
आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव जब अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। क्योंकि ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी अस्पताल मे आज भी जेनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही लिखा मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-
1- जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको 'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
4-जो लोग विभिन्न सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने तथा इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य माना जाता था।
ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था। ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे।
कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता आधारित उपाधि-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया। खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है।
यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुये भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।
लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि, अब पतन की पराकाष्ठा पर पहुंचे कायस्थ क्या कह और कर रहे हैं। एक मुस्लिम का हुक्का गुड़गुड़ाने पर आक्षेप लगने से आहत हुये नरेन्द्र्नाथ दत्त ने रामकृष्ण परमहंस से जो ज्ञान प्राप्त किया उसी के आधार पर समाज में व्याप्त कुरीतियों, ढोंग और पाखंड पर करारा प्रहार किया था । स्वामी विवेकानंद के रूप में उनका कहना था जब तक भारत की एक भी झोंपड़ी में प्रकाश का आभाव रहता है और एक भी आदमी भूखा रहता है तब तक भारत का विकास नहीं हो सकता है।
यह एक विडम्बना ही है कि, भारत के कम्युनिस्टों ने स्वामी विवेकानंद को नहीं अपनाया बल्कि, विभाजन, विग्रह और द्वेष पर आधारित संगठनों ने उनके नाम का भारी दुरुपयोग कर रखा है।