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Monday 31 August 2015

लखनऊ वापिसी क्यों ? --- विजय राजबली माथुर

शनिवार, 14 अगस्त 2010


लखनऊ वापसी क्यों ? --- 

१९७८ में आगरा में मकान ले कर बस चुकने के बाद क्या केवल पुत्र के आग्रह पर ही वापिस आया अथवा लखनऊ से लगाव पहले से ही था यह बताना भी बेहद जरूरी है.आगरा में १९८६ में राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय भाग लेना शुरू किया और शहर छोड़ने तक २३ वर्षों में सिर्फ एक बार ही दिल्ली प्रदर्शन में गया जबकि लखनऊ प्रदर्शन के हर अवसर का उपयोग लखनऊ आने में किया.एक तो लखनऊ खुद का जन्म स्थान था दूसरे बाबूजी का बचपन और शिक्षा-दीक्षा लखनऊ में होने के कारण लखनऊ का ज़िक्र होता ही रहता  था.डाली गंज में बाबू  जी ने फूफा जी के प्लाट के बगल में मकान बनवाने के लिए ज़मीन भी खरीदी थी लेकिन दोनों ही मकान न बना सकेऔर ज़मीन बेचनी पड़ी.
बाबूजी कालीचरण हाईस्कूल,लखनऊ में पढ़ते थे,खेल कूद में सक्रिय थे.टेनिस में सीनियर ब्वायज एसोसियेशन  के पंडित अमृत लाल नागर जी  के साथ भी बाबूजी खेले हैं और पत्रकार राम पाल सिंह जी  भी बाबूजी के खेल के साथी थे.का.भीखा लाल जी तो बाबू  जी के रूममेट  और सहपाठी थे  जो जब तहसीलदार बने तो बाबूजी का उनसे संपर्क टूट गया.एक प्रदर्शन के दौरान का.भीखा लाल जी से मैने भेंट की तो उन्होंने शिकायत भी की कि वह उनसे क्यों नहीं मिलते लेकिन उन्होंने संतोष भी जताया था कि वह खुद न मिले लेकिन अपने बेटे को तो भेज दिया.पुराने लोगों में बेहद आत्मीयता थी.१९३९ में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बाबू जी तो फ़ौज में चले गए थे; भीखा लाल जी तहसीलदार बन गए थे फिर नौकरी छोड़ कर राजनीती में आगये थे और उत्तर प्रदेश भारतीय कम्युनिस्ट  पार्टी के सचिव भी बने.युद्ध समाप्त होने के बाद बाबू जी खेती देखने के विचार से दरियाबाद आ गये थे.लेकिन वहां भाइयों का अनमना व्यवहार देख कर खिन्न हो गए.सात साल लड़ाई के दौरान पूरा वेतन बाबूजी ने बाबा जी को भेजा उसका भी कोई रिटर्न  नहीं मिला.लड़ाई के दौरान बाबूजी की यूनिट  के कंपनी कमांडर ने लखनऊ में लेफ्टिनेंट कर्नल  हो कर C .W. E. बनने पर बाबू  जी से फिर से नौकरी करने को कहा जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया.इस प्रकार हम लोगों को लखनऊ में जन्म से ही रहने का अवसर मिला.जिन लोगों का,जिन लोगों कि संतानों का बउआ – बाबूजी के प्रति बर्ताव ठीक नहीं रहा उनका कोई जिक्र अपने संस्मरणों में नहीं कर रहा हूँ. जो लोग मेरे माता-पिता के साथ ठीक-ठाक रहे सिर्फ मुझे ही ठुकराया है उनका उल्लेख जरूर किया जा रहा है५ या ६ वर्ष का रहा होऊंगा तब बड़े मंगल पर अलीगंज मंदिर में मैं  भीड़ में छूट गया था.बउआ महिला विंग से गयीं.नाना जी ने अजय को गोदी ले लिया और बाबूजी शोभा को गोदी में लिए थे मैने बाबूजी का कुर्ता  पकड़ रखा था.पीछे से भीड़ का धक्का लगने पर मेरे हाथ से बाबूजी का कुर्ता छूट गया और मैं कुचल कर ख़तम ही हो जाता अगर एक घनी दाढ़ी वाले साधू मुझे गोद में न उठा लेते तो.वे ही मुझे लेकर बाहर आये और सब को खोजने के बाद एक एकांत कोने में मुझे रेलिंग पर बैठा कर खड़े रहे उधर नाना जी और बाबू जी भी अजय और शोभा को बउआ के सुपुर्द कर मुझे ढूंढते हुए पहुंचे और खोते-खोते मैं बच गया.इसी प्रकार जब मामा जी लखनऊ university की ओर से रिसर्च के लिए आस्ट्रेलिया जाने हेतु बम्बई की गाडी से जा रहे थे तो अजय को चारबाग प्लेटफार्म  से कोई बच्चा चोर ले भागा.तुरंत mike से anauncement कराया गया तो घबरा कर उस आदमी ने अजय को ओवर ब्रिज पर छोड़ दिया जिसे मामा जी के छोटे साले ने देखा और गोद में ले आये तभी मामा जी बम्बई के लिए रवाना हुए वर्ना यात्रा रद्द कर रहे थे.मामा जी की बेटी की शादी में शोभा की बड़ी बेटी भी बादशाह बाग़ की कोठियों में खो गयी थी.सब लोग उसे खोज रहे थे और एक धोबी पुत्र रत्ना को साइकिल पर लिए घर-घर पूछ रहा था.मुझे देखते ही रत्ना रोते हुए मेरे पास आगई.लखनऊ में मैं ,भाई और भांजी खोते-खोते बचे.लखनऊ खोने की नहीं पाने और मिलने की धरती रही है.बाबू जी नहीं बना सके लखनऊ में मकान तो आगरा से हट कर मैं बस गया जो बाबू जी का सपना था मैंने पूरा कर दिया।
Typist-Yashwant