Sunday 30 August 2015

लखनऊ में बीता बचपन --- विजय राजबली माथुर


मामा जी के साथ 


न्यू हैदराबाद के एक स्कूल में भी कुछ समय गया और हुसैन गंज कि राष्ट्रीय पाठशाला में भी पढ़ा तथा बहुत कम समय दुगांवा में रहने का कुछ भी याद नहीं है.हुसैन गंज में नाले के पास बनी फखरुद्दीन मंजिल के एक हिस्से में जब आकर रहे तभी पहले बाबु जी का विचार बंगाली ब्वायज  स्कूल में भेजने का था लेकिन फिर डी पी निगम गर्ल्स  जू हा.स्कूल में दाखिला करा दिया जहाँ दूसरी से चौथी क्लास तक पढ़ा.शिक्षा का माहौल अच्छा था,सिलाई और संगीत की भी शिक्षा दी गयी.संगीत की क्लास में लड़कों को गेंद और लड़कियों को रस्सी कूदने का खेल भी कराया जाता था.चौथी क्लास में कुछ समय तक वृद्ध  बंगाली पुरुष गणित  पढाने आये जो गलत करने वाले लड़के और लड़कियों दोनों को बुरी तरह स्केल से पीटते थे उन्हें बहुत जल्दी हटा दिया गया.प्रभात कमल श्रीवास्तव नामक एक साथी से बहुत प्रगाढ़ता हो गयी थी उसके पिता जी शायद डॉक्टर थे इसलिए वह कभी कभी विजय मेडिकल हाल और बगल के खद्दर भण्डार में हमें भी साथ ले जाता था.सिर्फ उसीके साथ ही बऊआ मुझे और छोटे भाई अजय को भेजती थीं.वह अक्सर सरकारी दफ्तर में लगी जंगल जलेबी तोड़ेने के लिए खड़ी जीपों पर भी चढ़ जाता था।

आज सड़कें चौड़ी हो गयी हैं लेकिन बड़े डिवाइडर भी लग गए हैं तब हम लोग स्कूल जाते आराम से सड़क पार कर लेते थे तब ये डिवाइडर नहीं थे शायद उनकी जरूरत भी नहीं थी लोग नियमों का पालन करते होंगे.बर्लिंग्टन होटल में ही पोस्ट ऑफिस था दोनों भाई जाकर पोस्ट कार्ड  वगैरह बड़े आराम से ले आते थे और सड़क के उस पार हलवाई से किसी मेहमान के आने पर समोसा वगैरह भी ले आते थे.तब समोसे का रेट एक आना था.आज जितने  रु.में एक समोसा मिलता है तब ४८ मिल जाते.सदर में राम लीला देखने या अमीनाबाद पैदल ही जाते थे कहीं सड़कों पर परेशानी नहीं होती थी.सबसे छोटे होने के कारण बहन शोभा को तो बऊया बाबूजी गोदी में ले लेते थे,हम दोनों भाईयों को पैदल सड़क पर चलने या पार करने में कोई परेशानी नहीं हुई।

१९६० में जब जी.पी.ओ.तक बढ़ का पानी आ गया था तब हमारी भुआ,फूफाजी सपरिवार अपने सप्रू मार्ग के मकानमें ताला लगा कर आ गए और बाढ़ उतरने के बाद ही वापिस गए थे.उन दिनों हर इतवार को बाबू  जी मेरे लिए ५ पैसा कीमत का ''स्वतंत्र भारत'' ले देते थे.हमारे फुफेरे भाईयों को यह अच्छा नहीं लगता था.उनमें से छोटे वाले हमारी ही कोलोनी में सिर्फ १ कि.मी.कि दूरी पर रहते हैं लेकिन जो फासला एक अमीर एक गरीब के साथ रखता है वही वह भी रख रहे हैं-अब भूल चुके हैं कि कभी हमारे घर पर बाढ़ पीड़ित बन कर भी रहे थे।

मामा जी की गोद में

न्यू हैदराबाद में हमारे मामाजी डाक्टर कृपा शंकर माथुर भी रहते थे उनके घर,भुआ के घर और बाबू  जी के मामाजी के घर ठाकुरगंज भी हम लोग जाते थे.बाबु जी के ममेरे भाइयों में एक श्री गंगा प्रसाद जलेसरी नामी वकील और एक श्री दुलारे लाल माथुर I.A.S.का व्यवहार बाबू  जी के साथ मधुर रहा.हमारे ममेरे भाई भी यहीं शहर में हैं लेकिन रिश्ते निबाहने में वही दिक्कत है जो दौलतमंद महसूस करते हैं.निवाज गंज में बाबू  जी के फुफेरे भाई स्व.रामेश्वर दयाल माथुर रहते थे उनका भी मधुर व्यवहार बाबू  जी के साथ था.ताई जी (बाबु जी की फुफेरी भाभी) ने तो मेरे छुटपन में मेरे बीमार पड़ने पर अस्पताल की काफी दौड़-धूप की और बऊआ को ज़रा भी तकलीफ नहीं होने दी.१९६१ में बाबू  जी का तबादला बरेली हो गया तो  लखनऊ शहर छूट गया.

Saturday 29 August 2015

लखनऊ तब और अब --- विजय राजबली माथुर




मंगलवार, 3 अगस्त 2010

लखनऊ तब और अब :

जन्म से १९६१ तक लखनऊ में रहने के बाद गत वर्ष अक्टूबर में पुनः लखनऊ वापसी हुई.तब से अब तक के लखनऊ में न केवल क्षेत्रफल की  दृष्टि से बल्कि लोगों के तौर तरीकों और आपसी व्यवहार  में भी बेहद तब्दीली हो चुकी है.१९८१ में जब कारगिल में नौकरी के सिलसिले में था तो टी बी अस्पताल के सी ऍम ओ साहब  ने बोली के आधार पर कहा था कि क्या आप लखनऊ के हैं?९ वर्ष कि उम्र में शहर छोड़ेने के बीस सालों बाद भी बोली के आधार पर मुझे लखनऊ से जोड़ा गया था.लेकिन ४९ साल बाद वापिस लखनऊ लौटने पर यहाँ के लोगों ने मुझे बाहरी माना है.तब हुसैन गंज में रहता था,मुरली नगर के डी पी निगम गर्ल्स जू.हाई स्कूल  में पढता था और अब कचहरी से लगभग १० कि मी दूर नई कालोनी में रहता हूँ.लखनऊ की नई कालोनियों में लगभग ८०% लोग बाहर  से आकर बसे हैं और लखनवी तहजीब से कोसों दूर हैं वे ही मुझे बाहरी मानते हैं.

जो ज्योतिषी बेईमानी,ढोंग और पाखण्ड पर चलते हैं उन्हें भी मेरा ईमानदारी और वैज्ञानिक आधार पर  चलना नहीं सुहाता है.यह सब लखनवी कल्चर के खिलाफ है लेकिन लखनऊ उन्हीं का है.

लखनऊ से बरेली वहां से शाहजहाँ पुर जहाँ से सिलिगुड़ी फिर शाहजहाँ पुर और मेरठ रहकर आगरा पहुंचे और अपना मकान बना कर बस गए.मेरठ कॉलेज में पढाई के दौरान छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष से फ़िराक गोरखपुरी  साहब का यह कथन सुनकर आगरा बसने का फैसला किया था कि,यू.पी.में जितने आन्दोलन मेरठ -कानपुर डायगनल  से शुरू हुए विफल रहे जबकि बलिया-आगरा डायगनल  से शुरू आन्दोलन पूरे यू.पी. में छा कर देश में भी सफल रहे.आगरा के अब के लोगों में वह राजनीतिक  समझ नहीं देखी  उनकी बेरुखी और पुत्र के आग्रह के कारण पुनः लखनऊ आने का फैसला किया ,अभी तो पूरी तरह सेटल भी नहीं हो सके हैं –देखते हैं की क्या यहाँ रह कर देश के लिए कोई राजनीतिक योग दान दे सकता हूँ या नहीं.”जननी जन्मभूमिश  च स्वर्गादपि गरीयसी” कहा तो जाता है लेकिन मेरी जन्म  भूमि लखनऊ और यहाँ के लोग मुझे देश-समाज के हित में कुछ करने देने में कितना सहयोग करते हैं ? यही देखना –समझना बाकी है.उम्मीद छोड़ी नहीं है.

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(ये विवरण पहले एक अन्य ब्लाग में प्रकाशित हैं परंतु वहाँ और भी निजी बातों का साथ-साथ संकलन था इसलिए सार्वजनिक महत्व के विषयों को छांट-छांट कर अलग इस ब्लाग में देने का निर्णय लिया है। इस कड़ी में आज रक्षाबंधन पर्व के अवसर पर यह प्रथम विवरण प्रकाशित कर रहे हैं । --- (विजय राज बली माथुर )